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रामचरितमानस में शिक्षा ही शिक्षा भरी पड़ी है, इसमें भक्ति के साथ साथ ज्ञान की जो अद्भुत बातें सरल भाषा में भरी हुई है यदि उसे जीवन में उतारा जाय तो मनुष्य का परम लाभ हो जाये।

सनातन शास्त्रों में आप जितना डूबेंगे उतना ही नया मिलता है कुछ,पर आज हम विजय रथ का प्रसंग देखेंगे । जी हाँ, ऐसा रथ जिससे आप जीवन मृत्यु रूपी अजेय शत्रु को जीत सकते हैं, फिर अन्य कोई भी युद्ध जीतने की तो बात ही क्या है ?

यह प्रसंग है जब बिभीषण राम को बिना रथ और रावण को रथ पर देखकर अधिक प्रेम के कारण अधीर हो जाते हैं, उस समय भगवाम श्रीरामचन्द्र ने जिस रथ का वर्णन किया उसे यदि जीवन में पालन किया जाए तो जन्म मृत्यु रूपी महान शत्रु अर्थात भवरोग से पार हुआ जा सकता है और अन्य युद्ध जीतने की तो बात ही क्या है

हम सभी इस रामचरितमानस के अद्भुत प्रसंग को पढ़ें, समझें व उससे अधिक से अधिक लाभ उठाने का प्रयत्न अवश्य करें :

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा।
देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥
अधिक प्रीति मन भा संदेहा।
बंदि चरन कह सहित सनेहा॥१॥

भावार्थ : रावण को रथ पर और श्री रघुवीर को बिना रथ के देखकर विभीषण अधीर हो गए।प्रेम अधिक होने से उनके मन में सन्देह हो गया (कि वे बिना रथ के रावण को कैसे जीत सकेंगे)।श्री रामजी के चरणों की वंदना करके वे स्नेह पूर्वक कहने लगे॥१॥

नाथ न रथ नहि तन पद त्राना।
केहि बिधि जितब बीर बलवाना॥
सुनहु सखा कह कृपानिधाना।
जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥२॥

भावार्थ : हे नाथ! आपके न रथ है, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न जूते ही हैं। वह बलवान्‌ वीर रावण किस प्रकार जीता जाएगा? कृपानिधान श्री रामजी ने कहा- हे सखे! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है॥२॥

सौरज धीरज तेहि रथ चाका।
सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे।
छमा कृपा समता रजु जोरे॥३॥

भावार्थ : शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं।
सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं।बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥३॥

ईस भजनु सारथी सुजाना।
बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा।
बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥४॥

भावार्थ : ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है।
दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥४॥

अमल अचल मन त्रोन समाना।
सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा।
एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥५॥

भावार्थ : निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है।
इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥५॥

सखा धर्ममय अस रथ जाकें।
जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥६॥

भावार्थ : हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है॥६॥

महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर॥८० क॥

भावार्थ : हे धीरबुद्धि वाले सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान्‌ दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है (रावण की तो बात ही क्या है)॥८० (क)॥

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