सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्म: सनातन:।।
मनु स्मृति ४/१३८

मनुष्य सत्य बोले। प्रिय बोले। अप्रिय सत्य न बोले। प्रिय भी असत्य न बोले। यही सनातन (चिरकाल से चला आया) धर्म है।

महर्षि मनु के उपर्युक्त श्लोक में चार बातें कहीं गईं हैं।

१.

कहा गया है कि मनुष्य सत्य बोले। मनुष्य को चाहिए कि जैसे उसने देखा, सुना और समझा है वैसा ही बोले। काल्पनिक बातों को मिला कर उस सत्य से भिन्न कुछ न बोले।
महर्षि के इस सिद्धान्त का प्रसिद्ध उल्लंघन महाभारत के द्रोणपर्व में तब हुआ था जब महाराज युधिष्ठिर ने द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के मारे जाने की पुष्टि हेतु अपना वक्तव्य दिया था। भीमसेन ने अश्वत्थामा नाम के हाथी का वध करके द्रोणाचार्य के सामने यह घोषणा की थी कि अश्वत्थामा मारा गया। भीमसेन का उद्देश्य यह था कि आचार्य को उनके पुत्र के वध की सूचना देकर उन्हें युद्ध में हतोत्साहित और शिथिल कर दिया जाए। भीमसेन ने मिथ्या वक्तव्य दिया था किन्तु वे भी असत्य भाषण करते हुए लज्जा अनुभव कर रहे थे। देखिए भीमसेन का वक्तव्य-

भीमसेनस्तु सव्रीडमुपेत्य द्रोणमाहवे।
अश्वत्थामा हत इति शब्दमुच्चैश्चकार ह।।
महाभारत द्रोणपर्व १९०/१६

रणभूमि में भीमसेन द्रोण के पास आकर लजाते हुए उच्च स्वर से यह शब्द करने लगे कि अश्वत्थामा मारा गया।

आचार्य को अपने पुत्र के पराक्रम और युद्ध कौशल पर पूरा विश्वास था। वे जानते थे कि अश्वत्थामा को कोई नहीं मार सकता। परन्तु भीमसेन की गर्जना से वे शंकित हो उठे। उन्होंने युधिष्ठिर से इसकी पुष्टि करनी चाही। तब युधिष्ठिर ने उन्हें इस प्रकार सूचना दी।

अश्वत्थामा हत इति शब्दमुच्चैश्चकार ह।
अव्यक्तमब्रवीद् राजन् हत: कुञ्जर इत्युत।।
महाभारत द्रोणपर्व १९०/५५

युधिष्ठिर ने “अश्वत्थामा मारा गया” यह तो उच्च स्वर से कहा परन्तु “हाथी मारा गया” यह बात बहुत धीरे से कही।

यहां पर यह स्पष्ट है महाराज युधिष्ठिर ने कुछ भी असत्य नहीं कहा परन्तु श्रोता के पास असत्य प्रेषित करने का प्रयत्न अवश्य किया था।

२.

इसके साथ ही तुरन्त कहा है कि प्रिय बोले। इसका तात्पर्य यह है कि सत्य को प्रिय करके बोले। यदि सत्य कटु है अथवा शोक, क्लेश देने वाला है तो उसे भाषा, शैली और देहसंचालन (body language) के प्रयोग से प्रिय करके ही बोले। ऐसे वाक्य बोले जो श्रोता को प्रिय लगें और वे सत्य भी हों।

३.

आगे कहा है अप्रिय सत्य को न बोले। इसका यह आशय नहीं है कि यदि सत्य अप्रिय है तो बोला ही न जाए। बल्कि यह है कि सत्य की अप्रियता को हटाकर या उसे न्यून करके बोला जाए। वक्तव्य को प्रेरित करके बोला जाए।

उदाहरण के लिए जब हम किसी मित्र से यह कहना चाहते हैं कि उसके सारे मित्र सम्बन्धी उसके सामने ही मर जाएँगे। तो इस तथ्य को इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि उसकी आयु उसके सभी मित्रों और सम्बन्धियों की आयु से अधिक है।

ऐसा बोलने पर तथ्य तो अपरिवर्तित है किन्तु भाषा के वाक्यविन्यास में परिवर्तन करके अप्रिय को प्रिय बना दिया गया है।

४.

मनुष्य प्रिय असत्य न बोले। इसे ही ठकुरसुहाती कहते हैं। इसमें प्रमुख बात यह होती है कि वक्ता वह बात बोलता है जो श्रोता को प्रिय लगे, भले ही वह असत्य हो। प्रकट है कि असत्य है तो अन्तत: अकल्याणकारी ही होगा।

कतिपय प्रवचनकार, लेखक, कवि, पत्रकार और प्रवक्ता अपने उद्बोधनों में इस विधा का अवलम्बन लेते हैं। इस कारण समाज का हित साधन होने के स्थान पर अहित अधिक हो रहा है।

अन्त में महर्षि मनु यह भी कहते हैं कि यह सनातन धर्म है। धर्म के इस स्वरूप में कभी किसी काल में न तो परिवर्तन किया गया है और न उस परिवर्तन को उचित समझा गया है। यही धर्म चिरकाल से मनीषियों द्वारा अनुमोदित धर्म है इसलिए इसे सनातन धर्म कहते हैं।

भगवद्गीता में इस सत्य बोलने की बात को और भी सटीक और व्यवहारिक ढंँग से कहा गया है। वहाँ कहा है।

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रिय हितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।।
गीता १७/१५

अनुद्वेगकारी, सत्य, प्रिय और हितकारी वक्य बोलना और स्वाध्याय का अभ्यास करना वाणी सम्बन्धी तप है।

इस श्लोक में, बोले गये वाक्य को सत्य तथा प्रिय होने के साथ हितकारी और अनुद्वेगकारी होना भी आवश्यक माना गया है। ऐसा वाक्य जिससे श्रोता उद्विग्न हो उठे, बोलना अनुचित है। जैसे किसी व्यक्ति के सार्वजनिक सम्मान के अवसर पर पूर्वकाल में उसके किसी असम्मान का उल्लेख करना। यद्यपि यह उल्लेख सत्य है तो भी उद्वेगकारी है अतः बोलने योग्य नहीं है।

वाक्य को सत्य तो होना ही चाहिए। उसके साथ वह प्रिय भी होना चाहिए। इसके सिवाय भगवान कृष्ण यह भी कहते हैं कि वह वाक्य श्रोता के लिए कल्याणकारी भी होना चाहिए।

धार्मिक प्रवचनकार और नेतागण प्राय: प्रिय वाक्य बोलते रहते हैं। वे यह ध्यान नहीं रखते कि उनके द्वारा बोले जा रहे वाक्य श्रोता समाज के लिए हितकारी भी हैं या नहीं।

~डा॰ आशीष

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