ऊँ नमोस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नम।
     (शु०य०वे)

सनातन धर्म में प्रकृति पूजा की शास्त्र सम्मत परंपराएं अलग अलग मास के अलग अलग मुहूर्त में निर्वाह की जाती है,जैसे बट सावित्री पूजन, आमलकी वृक्ष का पूजन तथा उसके छांव में भोजन, पीपल के वृक्ष का पूजन,आम काष्ठ की समिधा, बिल्वपत्र का शिवपूजन में उपयोगिता , गौ पूजन,पितृपक्ष में काक बलि, बलिवैश्वदेव में में बृहद से बृहद एवं सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों तक के लिए आहार सनातन धर्म मे देने का विधान है, इसी प्रकार श्रावण शुक्ल पंचमी तिथि को नागपंचमी से जाना जाता है,सनातन धर्मावलंबी इस दिन अष्टनागों (अनन्त, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक,पद्म, महापद्म, कुलिक, और शंखपाल की) की विशेष पूजन करते है तथा दूध और (खील) लाजा का भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण करते हैं, उत्तर भारत में महिलाएं गाय का गोबर,नदी की मिट्टी या रेत और पीला सरषों मिलाकर उसे पंडित जी से अभिमंत्रित करवाकर घर के दीवालों पर चारों तरफ नाग देवता की आकृति बनाकर उनकी पूजा करती है,पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शेषनाग स्वयं पृथ्वी को अपने फन पर धारण करते हैं।

गृह निर्माण, पितृ दोष और कुल की उन्नति के लिए नाग पूजा का और भी अधिक महत्व है। इनकी पूजा आराधना से सर्पदंश का भय नहीं रहता ! नाग पंचमी के दिन नाग पूजन और दुग्ध पान करवाने का विशेष महत्व है।यदि आपकी जीवन के कालचक्र में दोष, अंगारक दोष, चांडाल दोष एवं ग्रहण दोष अथवा पितृ दोष है और उसके कारण आपके जीवन में बाधा आ रही है। तो १५ अगस्त को इस बार नागपंचमी आप के लिए बेहद लाभप्रद होने वाली है। राहू के जन्म नक्षत्र ‘भरणी’ के देवता काल हैं एवं केतु के जन्म नक्षत्र ‘अश्लेषा’ के देवता सर्प हैं।

श्रीमद्भगवगिता में अपनी दैवीसंपदा एवं विभूति दर्शनमें प्रभु ने कहा है:

सर्पाणामस्मि वासुकिः। (भ ग १०/२८)
अनन्तश्चास्मि नागानां। (भ ग १०/२९)

अर्थात् : सर्पों में अर्थात् सर्पो के विविध प्रकारों में सर्पराज वासुकि मैं हूँ। नागों के नाना भेदोंमें मैं अनन्त हूँ अर्थात् नागराज शेष हूँ।

वेद और महाभारत पढ़ने पर हमें पता चलता है कि आदिकाल में प्रमुख रूप से ये जातियां थीं – देव, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, भल्ल, वसु, अप्सराएं, पिशाच, सिद्ध, मरुदगण, किन्नर, चारण, भाट, किरात, रीछ, नाग, विद्‍याधर, मानव, वानर आदि।

इनमें से कुछ जातियां आलौकिक शक्तियों से संपन्न होती थी। नाग जाति भी आलौकिक जातियों में से एक थी।

नाग जाति के लोगों को वैसे पाताल का वासी माना जाता है। धरती पर ही सात पातालों का वर्णन पुराणों में मिलता है। ये सात पाताल है-
१-अतल,
२-वितल,
३-सुतल,
४-तलातल,
५-महातल,
६-रसातल,
७-पाताल

सुतल नामक पाताल में कश्यप की पत्नी कद्रू से उत्पन्न हुए अनेक सिरों वाले सर्पों का एक समुदाय रहता था।

कद्रू जो प्रजापति दक्ष की कन्या हैं तथा कश्यप मुनि की पत्नी, से सम्पूर्ण नाग जाती का जन्म हुआ हैं, इसीलिए उन्हें नाग माता के नाम से जाना जाता हैं।

नाग प्रजाति के मुख्य १२ नाग हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं-

१. अनंत
२. कुलिक
३. वासुकि
४. शंकुफला
५. पद्म
६. महापद्म
७. तक्षक
८. कर्कोटक
९. शंखचूड़
१०. घातक
११. विषधान
१२. शेष नाग

एक सिद्धांत अनुसार नागवंशी मूलत: कश्मीर के थे। कश्मीर का ‘ अनंतनाग ‘ इनका गढ़ माना जाता था। कांगड़ा, कुल्लू व कश्मीर सहित अन्य पहाड़ी इलाकों में नाग ब्राह्मणों की एक जाति आज भी मौजूद है।

नाग वंशावलियों में ‘शेष नाग’ को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेष नाग को ही ‘अनंत’ नाम से भी जाना जाता है। इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकी हुए फिर तक्षक और पिंगला। वासुकी का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था और मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से ‘ तक्षक ‘ कुल चलाया था। उक्त तीनों की गाथाएं पुराणों में पाई जाती हैं।

पुराणों एवं नागवंशीय शिलालेखों के अनुसार ‘भोगवती’ नागों की राजधानी है। प्राचीन मगध में राजगृह के निकट भी नागों का केंद्र था। जरासंध पर्व के अंतर्गत उन स्थानों का भी उल्लेख मिलता है, जहां नाग लोग रहते थे।

error: Content is protected !!