ज्ञानसंजीवनी तीज

तिथि-समय :
तृतीया तिथि प्रारम्भ – सितम्बर 09, 2021 को 02:33 ए एम बजे
तृतीया तिथि समाप्त – सितम्बर 10, 2021 को 12:18 ए एम बजे



पूजा का शुभ समय:
प्रातःकाल हरितालिका पूजा मुहूर्त – 05:21 ए एम से 07:50 ए एम
अवधि – 02 घण्टे 29 मिनट्स
प्रदोषकाल हरितालिका पूजा मुहूर्त – 05:46 पी एम से 08:05 पी एम
अवधि – 02 घण्टे 19 मिनट्स

हरितालिका तीज व्रत  के बारे में जानें
भारतीय पंचांग के अनुसार भाद्रपद मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को हरतालिका तीज पर्व के रुप में मनाते हैं। हरतालिका तीज का पर्व सुखद दांपत्य जीवन और मनचाहा वर प्राप्ति के लिए मनाया जाता है। सुहागिन स्त्रियां व्रत रखकर पति की लंबी आयु की कामना करती हैं वहीं कन्या मनचाहा वर पाने के लिए व्रत रखकर माता पार्वती और भगवान शिव की पूजा करती हैं। हरतालिका तीज व्रत को सभी व्रतों में श्रेष्ठ माना जाता है। यह व्रत अत्यंत कठिन  होता है। इसे दो प्रकार से किया जाता है। एक निर्जला और दूसरा फलहारी, निर्जला व्रत में पानी नहीं पीते है, इसके साथ ही अन्न या फल कुछ भी ग्रहण नहीं करते हैं, वहीं फलाहारी व्रत रखने वाले लोग व्रत के दौरान जल पी सकते हैं और फल का सेवन करते हैं, जो कन्याएं निर्जला व्रत नहीं कर सकती हैं तो उनको फलाहारी व्रत करना चाहिए

हरितालिका तीज व्रत में ध्यान रखने योग्य बातें
इस दिन व्रत करने वाली स्त्रियां सूर्योदय से पूर्व ही उठ जाती हैं और नहा धोकर पूरा श्रृंगार करती हैं। पूजन के लिए केले के पत्तों से मंडप बनाकर गौरी−शंकर की प्रतिमा स्थापित की जाती है। इसके साथ पार्वती जी को सुहाग का सारा सामान चढ़ाया जाता है। रात में भजन, कीर्तन करते हुए जागरण कर तीन बार आरती की जाती है और शिव पार्वती विवाह की कथा सुनी जाती है।
इस व्रत के व्रती को शयन का निषेध है इसके लिए उसे रात्रि में भजन कीर्तन के साथ रात्रि जागरण करना पड़ता है प्रातः काल स्नान करने के पश्चात् श्रद्धा एवम भक्ति पूर्वक किसी सुपात्र सुहागिन महिला को श्रृंगार सामग्री,वस्त्र,खाद्य सामग्री,फल,मिष्ठान्न एवम यथा शक्ति आभूषण का दान करना चाहिए। नहाय खाय के साथ हरितालिका तीज का व्रत शुरू हो जाएगा। व्रत रखने से पहले यानि आज महिलाएं अपने हाथों पर मेहंदी रचाती है।हरितालिका तीज के दिन गौरी-शंकर की पूजा की जाती है।इस दिन महिलाएं कथा सुनने के बाद निर्जला रहकर पूरे दिन व्रत रखती हैं। इस दिन गौरी-शंकर की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर पूजा की जाती है।

हरितालिका तीज व्रत में उपयोगी पूजन सामिग्री
वस्त्र, सभी प्रकार के फल एवं फूल पत्ते, श्रीफल, कलश, अबीर, पान के पत्ते, चंदन, घी-तेल, कपूर, कुमकुम, दीपक, फुलहरा और विशेष प्रकार की पत्तियां इनमें शामिल हैं। लकड़ी का पाटा, लाल या पीले रंग का कपड़ा,गीली काली मिट्टी या बालू रेत, तुलसी, मंजरी, बेलपत्र, शमी पत्र, केले का पत्ता, धतूरे का फल एवं फूल, अकांव का फूल, जनैऊ, कलेवा पूजा के लिए नारियल, पानी से भरा कलश, माता के लिए चुनरी, सुहाग का सामान, मेंहदी, काजल, सिंदूर, चूड़ियां, बिंदी और पंचामृत भी आवश्यक सामाग्रियों में से एक हैं।

इस तरह करें हरितालिका तीज पूजन
१. हरतालिका तीज पर बालू रेत से भगवान गणेश, भगवान शिव और माता पार्वती की प्रतिमा बनाएं।
२. इन प्रतिमाओं को एक चौकी पर स्थापित कर दें।
३. फिर उस चौकी पर चावलों से अष्टदल कमल बनाएं। इसी पर कलश की स्थापना करें।
४. कलश में जल, अक्षत, सुपारी और सिक्के डालें। साथ ही आम के पत्ते रखकर उस पर नारियल भी रखें। यह सब कलश स्थापित करने से पहले करें।
५. फिर चौकी पर पान के पत्ते रखें। इस पर अक्षत भी रखें। फिर भगवान गणेश, भगवान शिव और माता पार्वती को स्नान कराएं।
६. अब उनके आगे घी का दीपक और धूप जलाएं। फिर गणेश जी और माता पार्वती को कुमकुम का तिलक और शिव शंकर को चंदन का तिलक लगाएं।
७. तिलक करने के बाद फूल व माला चढ़ाएं। शिव जी सफेद फूल अर्पित करें।८. भगवान गणेश को दूर्वा चढ़ाएं। शिव जी को बेलपत्र, धतूरा, भांग और शमी के पत्ते अर्पित करें।

९ . गणेश जी और माता पार्वती को पीले चावल अर्पित करें। शिव जी को सफेद चावल अर्पित करें।
१०. सभी भगवानों को कलावा चढ़ाएं। फिर गणेश जी और भगवान शिव को जनेऊ अर्पित करें।
११. माता पार्वती को श्रृंगार की वस्तुएं अर्पित करें।
१२. सभी को फल अर्पित करें।
१३. इसके बाद हरतालिक तीज की कथा पढ़ें या सुनें।
१४. भगवान गणेश, भगवान शिव और माता पार्वती की आरती करें। फिर मिठाई अर्पित करें और हाथ जोड़कर प्रणाम करें।

ध्यानम्
मंदारमाला कुलितालकायै
कपालमालाङ्कित शेखराय।
दिव्याम्बरायै च दिगंबराय नमः

शिवायै च नमः शिवाय।।

आवाहनं
आगच्छ देवी सर्वेशे सर्वदेवांश्च संस्तुते।
अतस्त्वां पूजयिष्यामि प्रसन्ना भव सर्वदा।।
आसनं
शिवे शिवप्रिये देवि मंगले च जगन्मये।
शिव कल्याणदे देवि शिवरुपे नमोSस्तुते।।
पाद्यं
शिवरुपे नमस्तेSस्तु शिवाय सततं नमः।
शिवप्रीतियुता नित्त्यं पाद्यं मे प्रति गृह्यताम्।।
अर्घ्यं
संसारताप विच्छेदं कुरु में सिंह वाहिनी।
सर्व काम प्रदेदेवी अर्घ्यं मे प्रति गृह्यताम्।।
आचमनं
राज्य सौभाग्यदे देवि प्रसन्ना भव पार्वती।
मन्त्रेणानेन देवि त्वं पूजिताSसि महेश्वरि।।
पंचामृतस्नानं
मंदाकिनी गोमती च कावेरी च सरस्वती।
कृष्णा च तुंगभद्रा च सर्वाः स्नानार्थ मागतः।।
वस्त्रम्
वस्त्रयुग्मं गृहाणेदं देवी देवस्य वल्लभे।
सर्वसिद्धि प्रदे देवि मंगलं कुरु में सदा।।
चन्दनम्
चन्दनेन सुगंधेन कर्पूरागुरु कुंकुमै:
लेपयेत् सर्वगात्राणि प्रीयतां च हरप्रिये।।
अक्षतान्
रंजिते कुंकुमेनैव अक्षतैश्च सुशोभनैः।
पूजयेद्विधिना देवी प्रसन्नाभव पार्वती।।
पुष्पम्
माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो।
मया दत्तानि पूजायाः पुष्पाणि प्रतिगृह्यताम्।।
धूपम्
चंदनागरु -कस्तूरी कुंकुंमाढ्या मनोहराः।
भक्त्या दत्ता मया देवि धूपोयं प्रतिगृह्यताम्।।
दीपम्
त्वं ज्योतिःसर्व देवानां तेजसां तेज उत्तमम्।
आत्मज्योतिः परं धाम दीपोSयम् प्रति गृह्यताम्।।
नैवेद्यं
नैवेद्यं गृह्यतां देवि भक्तिं में निश्चलां कुरु।
ईप्सितं च वरं देहि परत्र च परांगतिम्।।
फलं
इदं फलं मया देवि स्थापितं पुरतस्तव।
येन मे सफलं कर्म भवेज्जन्मनि जन्मनि।।
ताम्बूलं
पूगीफलं महद्दिव्यं नागवल्लीदलैर्युतम्।
कर्पूरेण समायुक्तं ताम्बूलं प्रति गृह्यतां।।
प्रार्थना
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्ति हीनं यदीश्वरि।
पूजिताSसि महादेवी सम्पूर्णं च वदस्व में।।

हरितालिका तीज व्रत कथा

ध्यानम्
मंदारमाला कुलितालकायै
कपालमालाङ्कित शेखराय।
दिव्याम्बरायै च दिगंबराय नमः

शिवायै च नमः शिवाय।।

श्री सूत जी महाराज कहते हैं -मंदार की माला से जिन(पार्वती जी )का केशपाश अलंकृत हैं और मुंडों की माला से जिन (शिवजी) की जटा अलंकृत है, जो (पार्वती जी) दिव्य वस्त्र धारण की हैं और जो(शिवजी) दिगंबर(नग्न) हैं, ऐसी श्री पार्वती जी तथा श्री शिव जी को मैं प्रणाम करता हूं। रमणीक कैलाश पर्वत के शिखर पर बैठी हुई श्री पार्वती जी कहती हैं- हे महेश्वर! हमें कोई गुप्त व्रत या पूजन बताइए। जो सब धर्मों से सरल हो, जिसमें परिश्रम भी कम करना पड़े, लेकिन फल अधिक मिले। हे नाथ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हो तो यह विधान बताइए। हे प्रभो! किस तप, व्रत या दान से आदि, मध्य और अंत रहित आप जैसे महाप्रभु हम को प्राप्त हुए हैं। शिवजी बोले-हे देवी! सुनो, मैं तुमको एक व्रत जो मेरा सर्वस्व और छिपाने योग्य है, लेकिन तुम्हारे प्रेम के वशीभूत होकर मैं तुम्हें बतलाता हूं। शिवजी ने कहा-भारतवर्ष में जैसे- नक्षत्रों में चंद्रमा, ग्रहों में सूर्य, वर्णों में ब्राह्मण, देवताओं में विष्णु भगवान्, नदियों में गंगा, पुराणों में महाभारत, वेदों में सामवेद और इंद्रियों में मन श्रेष्ठ है। सब पुराणों और वेदों का सर्वस्व जिस तरह कहा गया है, मैं तुम्हें एक प्राचीन व्रत बतलाता हूं, एकाग्र होकर मन से सुनो। जिस व्रत के प्रभाव से तुमने मेरा आधा आसन प्राप्त किया है, वह मैं तुमको बतलाऊंगा, क्योंकि तुम मेरी प्रेयसी हो। भाद्रपद मास में हस्त नक्षत्र से युक्त शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को उसका अनुष्ठान मात्र करने से स्त्रियां सब पापों से मुक्त हो जाती हैं। हे देवी! तुमने आज से बहुत दिनों पहले हिमालय पर्वत पर इस व्रत को किया था, यह वृत्तांत में तुमसे कहूंगा। पार्वती जी ने पूछा- है नाथ! मैंने क्यों यह व्रत किया था, यह सब आपके मुंह से सुनना चाहती हुँ। उत्तर की ओर एक बड़ा रमणीक और पर्वतों म् श्रेष्ठ हिमवान नामक पर्वत है। उसके आस पास तरह-तरह की भूमियां है, तरह तरह के वृक्ष उसपर लगे हुवे हैं। नाना प्रकार के पक्षी और अनेक प्रकार के पशु उसपर निवास करते हैं।वहां पहुंचकर गंधर्वों के साथ बहुत से देवता,सिद्ध,चारण, पक्षिगण सर्वदा प्रसन्न मन से विचरते है।वहां पहुंचकर गंधर्व गाते है। अप्सराएं नाचती हैं।उस पर्वतराज के कितने ही शिखर ऐसे है कि जिनमे स्फटिक,रत्न और वैदूर्यमणि आदि की खानें भरीं है। यह पर्वत ऊंचा तो इतना अधिक है कि मित्र के घर की तरह समझकर आकाश का स्पर्श किये रहता है। उसके समस्त शिखर सदैव हिम से आच्छादित रहते हैं और गंगाजल की ध्वनि सदा सुनाई देती रहती है। है हे पार्वती! तुमने बाल्यकाल में उसी पर्वत पर तपस्या की थी। 12 वर्षों तक तुम उल्टी होकर केवल धुआं पीकर रही। 64 वर्षों तक सूखे पत्ते खाकर रही।माघ मास में तुम जल में बैठी रहती और वैशाखी की दुपहरी या में पंचाग्नि तापती थी। श्रावण महीने में जल बरसता तो तुम भूखी प्यासी रहकर मैदान में बैठी रहती थी। तुम्हारे पिता इस तरह के कष्ट सहन को देखकर बड़े दुखी हुए। वे चिंता में पड़ गए कि मैं अपनी कन्या किसको दूं, उसी समय नारद जी वहां आ पहुंचे। मुन्नी श्रेष्ठ नारद जी उस समय तुम्हें देखने गए थे, नारद जी को देखकर गिरिराज ने अर्घ्य, पाद्य, आसन आदि देकर उनकी पूजा की। हिमवान बोले- हे स्वामिन ! आप किस लिए आए हैं। मेरा अहोभाग्य है, आपका आगमन मेरे लिए अच्छा है। नारद जी ने कहा- हे पर्वतराज! सुनो! मैं भगवान विष्णु का भेजा हुआ आपके पास आया हूं। आपको चाहिए कि यह योग्य कन्या रत्न किसी योग्य वर को दें। भगवान विष्णु के समान योग्य वर ब्रह्मा,इंद्र और  शिव इनमें से कोई नहीं है। इसलिए मैं यही कहूंगा कि आप अपनी कन्या भगवान विष्णु को ही देवें। हिमवान ने कहा- भगवान विष्णु स्वयं मेरी कन्या ले रहे हैं और आप यह संदेश लेकर आए हैं तो मैं उन्हें अपनी कन्या दूंगा। हिमवान  की इतनी बात सुनकर मुनिराज नारद आकाश में विलीन हो गये। वे पीतांबर,शंख, चक्र और गदा धारी भगवान विष्णु के पास पहुंचे। वहां हाथ जोड़कर नारद जी ने भगवान विष्णु से कहा हे देव! सुनिए, मैंने आपका विवाह पक्का करा दिया है। उधर ही हिमवान ने पार्वती के पास जाकर कहा कि हे पुत्री! मैंने तुम्हें भगवान विष्णु के लिए वचन दे दिया है, तब पिता की बात सुनकर तुम बिना उत्तर दिए ही अपनी सखी के घर चली गई।वहीं जमीन पर पढ़कर तुम बड़ी दुखी होती हुई विलाप करने लगी। तुम को इस प्रकार विलाप करती हुई देख कर सखी बोली- तुम इतनी दुखी क्यों हो, इसका कारण बताओ। तुम्हारी जो कुछ इच्छा होगी मैं यथाशक्ति उसको पूरा करने की चेष्टा करूंगी, इसमें कोई संशय नहीं है। पार्वती बोली- मेरी जो कुछ अभिलाषा है उसे तुम प्रेम पूर्वक सुनो, मैं एकमात्र शिवजी को अपना पति बनाना चाहती हूं, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। मेरे इस विचार को पिताजी ने ठुकरा दिया है। इस समय अपने शरीर को त्याग दूंगी। पार्वती की इस बात को सुनकर सखियों ने कहा। शरीर का त्याग ना करो। चलो, किसी ऐसे वन को चले जहां पिता को पता ना लगे। ऐसी सलाह कर तुम वैसे बन में जा पहुंची। उधर तुम्हारे पिता घर-घर तुम्हें खोजने लगे। दूतों द्वारा भी खबर लेने लगे कि किसी देवता या किन्नर ने मेरी पुत्री का हरण तो नही कर लिया  है? उन्होंने मन ही मन कहा मैं नारद जी के आगे प्रतिज्ञा कर चुका हूं कि अपनी पुत्री भगवान विष्णु को दूंगा। ऐसा सोचते सोचते ही हिमवान मूर्छित हो गए। गिरिराज को मूर्छित देख सब लोग हाहाकार करते दौड़ पड़े। जब होश आया तो सब पूछने लगे कि हे गिरिराज! आप अपनी मूर्छा का कारण बताइए?। हिमवान ने कहा- आप लोग मेरे दु:ख का कारण सुनें, ना मालूम कौन मेरी कन्या को हरण करके ले गया है। ऐसा नहीं हुआ तो उसे किसी काले सांप ने काट लिया या सिंह खा गए होंगे। हाय! हाय! मेरी पुत्री कहां गई? किसी दुष्ट ने मेरी पुत्री को मार तो नहीं डाला!!?  ऐसा कह वे वायु के झोंके से कांपते हुए वृक्ष के समान कांपने लगे इसके बाद हिमवान तुम्हें वन- वन खोजने लगे वह वन भी सिंह,भालू, हिंसक जंतुओं से बड़ा भयानक था। तुम भी अपनी सखियों के साथ उस भयानक वन में चलती -चलती एक ऐसी जगह जा पहुंची जहां एक नदी बह रही थी, उसके रमणीक तट पर एक बड़ी सी कंदरा थी। तुमने उसी कंदरा में आश्रम बना लिया और मेरी एक बालुकामयी प्रतिमा बनाकर अपनी सखियों के साथ निराहार रहकर मेरी आराधना करने लगी। जब भाद्रपद शुक्ल पक्ष की हस्त नक्षत्र से युक्त तृतीया तिथि प्राप्त हुई तब तुमने मेरा विधिवत पूजन किया और रात भर जग कर गीत वाद्य आदि से मुझे प्रसन्न करने में बिताया। उस व्रत राज के प्रभाव से मेरा आसन डगमगा उठा। जिससे मैं तत्काल उस स्थान पर जा पहुंचा, जहां पर तुम अपनी सखियों के साथ रहती थी।  वहां पहुंचकर मैंने तुमसे कहा कि मैं तुम पर अति प्रसन्न हूं, बोलो क्या चाहती हो? तुमने कहा-हे मेरे देवता! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न है, तो मुझे अपनी पत्नी बना ले। मेरे ‘तथास्तु’ कहकर कैलाश पर्वत पर वापस आने पर तुमने वह प्रतिमा नदी में प्रवाहित कर दी। सखियों के साथ उस महान व्रत का पारण किया हिमवान भी तब तक उस वन में तुम्हें खोजते हुए आ पहुंचे। चारों दिशाओं में तुम्हारी खोज करते करते व्याकुल हो चुके थे। इसलिए तुम्हारे आश्रम के समीप पहुंचते ही गिर पड़े! थोड़ी देर बाद उन्होंने नदी के तट पर 2 कन्याओं को सोते हुए देखा। देखते ही उन्होंने तुम्हें छाती से लगा लिया और बिलख कर रोने लगे। फिर पूछा- पुत्री! तुम सिंह, व्याघ्र आदि जंतुओं से भरे इस वन में क्यों आ पहुंची? पार्वती ने उत्तर दिया- हे पिताजी, मैंने पहले ही अपने आप को शिवजी के हाथों में सौंप दिया था, आपने मेरी बात टाल दी, इससे मैं यहां चली आई। हिमवान ने सांत्वना दी कि हे पुत्री! मैं तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कुछ भी नहीं करूंगा। मैं तुम्हें अपने साथ घर ले आए और मेरे साथ तुम्हारा विवाह निश्चित कर दी। इसी से तुमने मेरा अर्ध आसन पाया है। तब से आज तक किसी के सामने मुझे यह व्रत प्रकट करने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ। हे देवी! मैं यह बताता हूं कि इस व्रत का ‘हरितालिका’ नाम क्यों पड़ा?  तुमको सखियां हर ले गई थी इसी से हरितालिका नाम पड़ा। पार्वती जी ने कहा हे प्रभो! आपने नाम तो बताया, अब इसकी विधि भी बताएं।इसका क्या पुण्य है, क्या फल है, यह व्रत कौन करे? श्री शिवजी पार्वतीजी से कहते हैं कि हे देवी! मैंने समस्त स्त्री जाति की भलाई के लिए यह उत्तम व्रत बतलाया है।जो स्त्री अपने सौभाग्य की रक्षा करना चाहती हो वह यत्न पूर्वक इस व्रत को करे। केले के खंभे आदि से सुशोभित एक सुंदर मंडप बनावे। उसमें रंग बिरंग के रेशमी कपड़ों से चंदवा लगाकर। चंदन आदि सुगंधित द्रव्यों से वह मंडप लिपवाले। फिर शंख,भेरी मृदंग आदि बाजे बजाते हुए बहुत से लोग एकत्रित होकर तरह-तरह के मंगला चार करते हुए उस मंडप में पार्वती तथा शिव जी की प्रतिमा स्थापित करे। उस रोज दिनभर उपवास कर बहुत से सुगंधित फूल,सुगंध और मनोहर धूप, नाना प्रकार के निवेद्य आदि एकत्र कर मेरी पूजा करें और रात भर जागरण करे। ऊपर जो जो वस्तुएं गिनाई गई हैं उनके अतिरिक्त नारियल, सुपारी, जुंबिरी नींबू, कहीं-कहीं से वातापी नींबू भी कहते हैं लॉन्ग, अनार, नारंगी आदि जो जो फल प्राप्त हो सके उन्हें इकट्ठा कर ले उस ऋतु में जो फल तथा फूल मिल सके विशेष रूप से उन्हें लाएं।इसके बाद धूप दीप आदि से पूजन कर प्रार्थना करें। हे शिवे!  शिव रूपिणी सब अर्थों को देने वाली हे देवी! से शिव रूपे आपको बारंबार नमस्कार है। इस तरह एक चित्त होकर स्त्री-पुरुष दोनों एक साथ पूजन करें। फिर वस्त्र आदि जो कुछ हो उसका संकल्प करें,हे देवी! जो स्त्री इस प्रकार पूजन करती है वह सब पापों से छूट जाती है,और उसे सात जन्मों तक सुख तथा सौभाग्य प्राप्त होता है। जो स्त्री तृतीया तिथि का व्रत न कर अन्न भक्षण करती है वह सात जन्म तक बंध्या रहती है और उसको बार-बार विधवा होना पड़ता है। वह सदा दरिद्र पुत्र शोक से शोकाकुल, स्वभाव की लड़ाकी,सदा दुख भोगने वाली होती है। और उपवास न करने वाली स्त्री अंत में घोर नरक में जाती है। मांसाहार करने से बाघिन्, दही खाने से बिल्ली, मिठाई खाने से चींटी, और कुछ खाने से मक्खी होती है, तीज को अन्न  खाने से शुकरी, फल खाने से बंदरिया, पानी पीने से जोक,दूध पीने से नागिन, उस रोज सोने से अजगरी और पति को धोखा देने से मुर्गी होती है।इसलिए सभी स्त्रियां व्रत अवश्य करें। दूसरे दिन स्वर्ण, चांदी, तांबा, अथवा बांस के पात्र में अन्न  भरकर ब्राह्मण को दान दें और पारण करें। जो स्त्री इस प्रकार व्रत करती है वह मेरे समान पति पाती है। और जब वह मरने लगती है तो तुम्हारे समान उसका रूप हो जाता है। उसे सब प्रकार से सांसारिक भोग और सायुज्य मुक्ति मिलती है। इस हरितालिका व्रत कथा मात्र सुन लेने से प्राणी को एक हजार अश्वमेश और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। हे देवी! मैन यह सब व्रतों  में उत्तम व्रत बतलाया है जिसके करने से प्राणी सब पापों से छूट जाता है। इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

हरितालिका तीज व्रत अन्य कथा

ध्यानम्
मंदारमाला कुलितालकायै
कपालमालाङ्कित शेखराय।
दिव्याम्बरायै च दिगंबराय नमः

शिवायै च नमः शिवाय।।

एक बार भगवान शंकर माता पार्वती से बोले कि तुमने पर्वतराज हिमालय पर स्थित गंगा के तट पर अपनी बाल्यावस्था में बारह वर्षों तक घोर तपस्या की थी। तुम्हारी इस तपस्या को देखकर तुम्हारे पिता दुःखी थे कि एक दिन नारदजी तुम्हारे घर पधारे। तुम्हारे पिता ने नारदजी का सत्कार करने के बाद उनसे आने का प्रयोजन पूछा तो उन्होंने बताया कि वह भगवान विष्णु के आदेश पर यहां आए हैं। उन्होंने कहा कि आपकी कन्या ने कठोर तप किया है और उससे प्रसन्न होकर वह आपकी कन्या से विवाह करना चाहते हैं। इस बारे में मैं आपकी राय जानने आया हूं। नारदजी की बात सुनकर गिरिराज खुश हो गये और उनको लगा कि सारी चिंताएं दूर हो गईं। वह बोले कि इसमें मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। हर पिता की यही इच्छा होती है कि उसकी पुत्री सुख−संपदा से युक्त पति के घर की लक्ष्मी बने।नारदजी यह बात सुनकर भगवान विष्णु के पास गये और उन्हें सारी बात बताई। लेकिन जब इस विवाह की बात तुम्हें पता चली तो तुम्हें दुःख हुआ और तुम्हारी एक सहेली ने तुम्हारी मनोदशा को जब भांप लिया तो तुमने उसे बताया कि मैंने सच्चे हृदय से भगवान शिव शंकर का वरण किया है लेकिन मेरे पिता ने मेरा विवाह भगवान विष्णु के साथ तय कर दिया है इसी से मैं दुविधा में हूं। मेरे पास प्राण त्यागने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। यह सुनने के बाद तुम्हारी सहेली ने तुम्हें समझाया और जीवन की सार्थकता से अवगत कराया। वह तुम्हें घनघोर जंगल में ले गई जहां तुम्हारे पिता तुमको खोज नहीं पाते। वहां तुम साधना में लीन हो गई और तुम्हें विश्वास था कि ईश्वर तुम्हारे कष्ट दूर करेंगे। तुम्हारे पिता तुम्हें ढूंढ−ढूंढ कर परेशान हो गये और यह सोचने लगे कि कहीं भगवान विष्णु बारात लेकर घर आ गये और तुम नहीं मिली तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाएगी। दूसरी ओर तुम नदी के तट पर एक गुफा में साधना में लीन थी। भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र में तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण करके व्रत किया और रात भर मेरी स्तुति की। भगवान शंकर ने माता पार्वती से कहा, तुम्हारी इस कठिन तपस्या से मेरा आसन डोलने लगा और मेरी समाधि टूट गई। मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर तुम्हारे पास पहुंचा और तुमसे वर मांगने के लिए कहा तो तुमने मुझे अपने समक्ष पाकर कहा कि मैं आपका वरण कर चुकी हूं यदि आप मेरी तपस्या से प्रसन्न हैं तो मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करें। तब मैंने तथास्तु कहा और कैलाश पर्वत पर लौट आया। अगले दिन तुम्हारे पूजा समाप्त करने के समय ही तुम्हारे पिता तुम्हें ढूंढ़ते−ढूंढ़ते वहां आ पहुंचे। तुम्हारी दशा देखकर वह दुःखी हुए। तुमने उन्हें बताया कि क्यों तुमने यह तपस्या की। इसके बाद वह तुम्हारी बातें मानकर तुम्हें घर ले गये और कुछ समय बाद हम दोनों का विवाह संपन्न कराया। भगवान बोले, हे पार्वती! भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना की इसी कारण हमारा विवाह हो सका। इसका महत्व यह है कि मैं इस व्रत को करने वाली कुमारियों को मन मुताबिक फल देता हूं। इसलिए सौभाग्य की इच्छा रखने वाली हर युवती को यह व्रत करना चाहिए।

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