स्वयाम्भुव मनु और शतरूपा जी के दो पुत्र और तीन पुत्रियां थी। पुत्रों के नाम थे प्रियव्रत और उत्तानपाद।उत्तानपाद जी की दो रानियां थी सुनीति और सुरुचि। लेकिन राजा का सुरुचि से अधिक प्रेम था और सुनीति से कम था। सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम और सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव था।
एक दिन राजा उत्तानपाद सुरुचि के पुत्र उत्तम को गोद में बिठाकर प्यार कर रहे थे। उसी समय बालक ध्रुव वहां आ गया और उसने भी अपने पिता की गोद में बैठना चाहा। सुनीति भी साथ में बैठी हुई थी। घमण्ड से भरी हुई सुरुचि ने अपनी सौत के पुत्र को महराज की गोद में आने का यत्न करते देख उनके सामने ही उससे कठोर शब्दों में कहा- ‘बच्चे! तू राजसिंहासन पर बैठने का अधिकारी नहीं है। तू भी राजा का ही बेटा है, इससे क्या हुआ; तूने मेरी कोख से जन्म नहीं लिया।
अगर तुझे पिता की गोद में बैठना है और तुझे राजसिंहासन की इच्छा है तो परम पुरुष श्रीनारायण तपस्या-आराधना कर और उनकी कृपा से मेरे गर्भ में आकर जन्म ले’ । मेरी कोख से जन्म लेने के बाद तू पिता की गोद में बैठना।
ध्रुवजी को बहुत क्रोध आया। जैसे डंडे की चोट खाकर साँप फुँफकार मारने लगता है, उसी प्रकार अपनी सौतेली माँ के कठोर वचनों से घायक होकर घ्रुव क्रोध के मारे लंबी-लंबी साँस लेने लगा। उसके पिता चुपचाप यह सब देखते रहे, मुँह से एक शब्द भी नहीं बोले।
संतजन इसका सुंदर आध्यात्मिक भाव बताते हैं की उत्तानपाद का अर्थ हैं जिसका सिर नीचे और पैर ऊपर हैं। जैसे माँ के गर्भ में जीव होता हैं। हम सब जीव उत्तानपाद हैं। सुरुचि का अर्थ हैं हमारा मन। और सुनीति का अर्थ हैं बुद्धि। उत्तानपाद सुरुचि की बात मानते थे और सुनीति की नहीं मानते थे।
हम भी मन(सुरुचि) के अनुरुप काम करते हैं। जबकि हमे बुद्धि(सुनीति) से सोच समझकर काम करना चाहिए। यही कारण हैं जब हम मन के अनुरुप काम करते हैं तो हमे उत्तम फल मिल जाता हैं लेकिन यदि हम बुद्धि से सोच समझकर काम करते तो हमे ध्रुव फल मिलेगा। जो अटल होगा। जो कभी नहीं मिटेगा। ))
तब पिता को छोड़कर ध्रुव रोता हुआ अपनी माँ सुनीति के पास आया। बालक ध्रुव सिसक-सिसककर रोने लगा। सुनीति ने बेटे को गोद में उठा लिया और जब महल के दूसरे लोगों से अपनी सौत सुरुचि की कही हुई बातें सुनी, तब उसे भी बड़ा दुःख हुआ । आज सुनीति को भी बहुत दुःख हुआ और उसकी आँखों से भी आंसू आने लगे।
सुनीति ने गहरी साँस लेकर ध्रुव से कहा, ‘बेटा! तू दूसरों के लिये किसी प्रकार के अमंगल की कामना मत कर। जो मनुष्य दूसरों को दुःख देता है, उसे स्वयं ही उसका फल भोगना पड़ता है। सुरुचि ने जो कुछ कहा है, ठीक ही है; क्योंकि महाराज को मुझे ‘पत्नी’ तो क्या, ‘दासी’ स्वीकार करने में भी लज्जा आती है। तूने मुझ मन्दभागिनी के गर्भ से ही जन्म लिया है और मेरे ही दूध से तू पला है ।
बेटा! सुरुचि ने तेरी सौतेली माँ होने पर भी बात बिलकुल ठीक कही है; अतः यदि राजकुमार उत्तम के समान राजसिंहासन पर बैठना चाहता है तो द्वेषभाव छोड़कर उसी का पालन कर। बस, श्रीअधोयक्षज भगवान् के चरणकमलों की आराधना में लग जा। ‘बेटा! तू उन भक्तवत्सल श्रीभगवान् का ही आश्रय ले। तू अन्य सबका चिन्तन छोड़कर केवल उन्हीं का भजन कर।
आज ध्रुव ने जब माँ के वचन सुने तो वैराग्य हो गया और भगवान की तपस्या के लिए वन की ओर चल दिए।
जब ध्रुव जी वन की ओर जा रहे थे तो मार्ग में नारद जी मिले हैं। नारदजी ने ध्रुव से कहा—बेटा! अभी तो तू बच्चा है, खेल-कूद में ही मस्त रहता है; हम नहीं समझते कि इस उम्र में किसी बात से तेरा सम्मान या अपमान हो सकता है। चल मैं तुझे तेरे पिता की गोदी में बिठा देता हूँ।
ध्रुव जी कहते हैं- ब्रह्मन्! अब मुझे किसी पिता की गोदी में नहीं बैठना। मुझे तो उस परमपिता परमात्मा की गोदी में बैठना है। अब संसार की कोई कामना नहीं है। इसलिए आप मुझे उसी परमात्मा की प्राप्ति का कोई अच्छा-सा मार्ग बतलाइये । आप भगवान् ब्रम्हाजी के पुत्र हैं और संसार के कल्याण के लिये ही वीणा बजाते सूर्य की भाँति त्रिलोकी में विचरा करते हैं।
ध्रुव की बात सुनकर भगवान् नारदजी बड़े प्रसन्न हुए और कहते हैं- बेटा! तेरा कल्याण होगा, अब तू श्रीयमुनाजी के तटवर्ती परम पवित्र मधुवन को जा। वहाँ श्रीहरि का नित्य-निवास है । वह श्रीकालिन्दी के निर्मल जला में तीर्नों समय स्नान करके नित्यकर्म से निवृत्त हो यथाविधि आसन बिछाकर स्थिर भाव से बैठना।
फिर रेचक, पूरक और कुम्भक—तीन प्रकार के प्राणायाम से धीरे-धीरे प्राण, मन और इन्द्रिय के दोषों को दूरकर धैर्ययुक्त मन से परमगुरु श्रीभगवान् का ध्यान करना। नारद जी ने भगवान के सुंदर रूप का वर्णन किया है। जिसे आप श्रीमद भागवत पुराण में पढ़ सकते हैं।
नारद जी ने ध्रुव जी को एक मन्त्र प्रदान किया ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’। और इस मन्त्र के द्वारा भगवान की तपस्या करने को कहा। और फिर भगवान की पूजा विधि बताई। नारद जी ने सुंदर उपदेश दिया है। फिर बालक ध्रुव ने परिक्रमा करके उन्हें प्रणाम किया। और मधुवन की और चल दिए हैं।
इधर नारद जी उत्तानपाद के महलों में पहुंचे हैं। श्रीनारदजी ने कहा—राजन्! तुम्हारा मुख सूखा हुआ है, तुम बड़ी देर से किस सोच-विचार में पड़े हो ?
राजा ने कहा—ब्रह्मन्! मैं बड़ा ही स्त्रैण और निर्दय हूँ। हाय, मैंने अपने पाँच वर्ष के नन्हे से बच्चे को उसकी माता के साथ घर से निकाल दिया।
उस असहाय बच्चे को वन में कहीं भेड़िये न खा जायँ । अहो! मैं कैसा स्त्री का गुलाम हूँ! मेरी कुटिलता तो देखिये—वह बालक मेरी गोद में चढ़ना चाहता था, किन्तु मुझ दुष्ट ने उसका तनिक भी आदर नहीं किया ।
श्रीनारदजी ने कहा—राजन्! तुम अपने बालक की चिन्ता मत करो। उसके रक्षक भगवान् हैं। जिस काम को बड़े-बड़े लोकपाल भी नहीं कर सके, उसे पूरा करके वह शीघ्र ही तम्हारे पास लौट आयेगा। उसके कारण तुम्हारा यश भी बहुत बढ़ेगा ।
इधर ध्रुवजी ने मधुवन में पहुँचकर यमुनाजी में स्नान किया और उस रात पवित्रतापूर्वक उपवास करके श्रीनारदजी के उपदेशानुसार एकाग्रचित्त से परमपुरुष श्रीनारायण की उपासना आरम्भ कर दी। उन्होंने तीन-तीन रात्रि के अन्तर से शरीर निर्वाह के लिये केवल कैथ और बेर के फल खाकर श्रीहरि की उपासना करते हुए एक मास व्यतीत किया। दूसरे महीने में उन्होंने छः-छः दिन के पीछे सूखे घास और पत्ते खाकर भगवान् का भजन किया ।
तीसरा महीना नौ-नौ दिन पर केवल जल पीकर समाधियोग के द्वारा श्रीहरि की आराधना की। चौथे महींने में उन्होंने श्वास को जीतकर बारह-बारह दिन के बाद केवल वायु पीकर ध्यानयोग द्वारा भगवान् आराधना की ।
पांचवे महीने में ध्रुव ने श्वास को जीतकर और एक पैर पर खड़े होकर भगवान को याद किया। जब राजकुमार ध्रुव एक पैर से खड़े हुए, तब उनके अँगूठे से दबकर आधी पृथ्वी इस प्रकार झुक गयी, जैसे किसी गजराज के चढ़ जाने पर नाव झुक गयी, जैसे किसी गजराज के चढ़ जाने पर पद-पद पर दायीं-बायीं ओर डगमगाने लगती है ।
ध्रुवजी अपने इन्द्रिय द्वार तथा प्राणों को रोककर अनन्य बुद्धि से विश्वात्मा श्रीहरि का ध्यान करने लगे। इस प्रकार उनकी समष्टि प्राण से अभिन्नता हो जाने के कारण सभी जीवों का श्वास-प्रश्वास रुक गया। इससे समस्त लोक और लोकपालों को बड़ी पीड़ा हुई और वे सब घबराकर श्रीहरि की शरण में गये ।
देवताओं ने कहा—भगवन्! समस्त जीवों के शरीरों का प्राण एक साथ ही रुक गया है ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है। आप हमारी रक्षा कीजिये।
श्रीभगवान् ने कहा—दवताओं! तुम डरो मत। बालक ध्रुव के तप के कारण ऐसा हुआ है। तुम अपने अपने लोकों को जाओ मैं सब ठीक कर दूंगा।
अब भगवान गरुड़ पर चढ़कर अपने भक्त को देखने के लिये मधुवन में आये। जिस रूप का ध्रुव जी ध्यान कर रहे थे भगवान ने उस रूप को अपनी ओर खिंच लिया। ध्रुव जी एकदम से घबरा गए और जैसे ही उन्होंने नेत्र खोले तो भगवान् के उसी उसी रूप को बाहर अपने सामने खड़ा देखा। प्रभु का दर्शन पाकर बालक ध्रुव को बड़ा कुतूहल हुआ, वे प्रेम में अधीर हो गये।
उन्होंने पृथ्वी पर दण्ड के समान लोटकर उन्हें प्रणाम किया। फिर वे इस प्रकार प्रेमभरी दृष्टि से उनकी ओर देखने लगे मानो नेत्रों से उन्हें पी जायँगे, मुख से चूम लेंगे और भुजाओं में कस लेंगे । वे हाथ जोड़े प्रभु के सामने खड़े थे और उनकी स्तुति करना चाहते थे, परन्तु किस प्रकार करें यह नहीं जानते थे।
भगवान ने उनके मन की बात जान ली और अपने वेदमय शंख को उनके गाल से छुआ दिया। शंख का स्पर्श होते ही उन्हें वेदमयी दिव्य वाणी प्राप्त हो गयी और जीव तथा ब्रम्ह के स्वरूप का भी निश्चय हो गया। वे अत्यन्त भक्तिभाव से धैर्यपूर्वक विश्वविख्यात कीर्तिमान् श्रीहरि की स्तुति करने लगे।
ध्रुव द्वारा भगवान की स्तुति –
ध्रुवजी ने कहा—प्रभो! आप सर्वशक्तिसम्पन्न है; आप ही मेरी अन्तःकरण में प्रवेशकर अपने तेज से मेरी इस सोयी हुई वाणी को सजीव करते हैं तथा हाथ, पैर, कान और त्वचा आदि अन्यान्य इन्द्रियों एवं प्राणों को भी चेतनता देते हैं। मैं आप अन्तर्यामी भगवान् को प्रणाम करता हूँ ।
प्रभो! इन शवतुल्य शरीरों के द्वारा भोग जाने वाला, इन्द्रिय और विषयों के संसर्ग से उत्पन्न सुख तो मनुष्यों को नरक में भी मिल सकता है। जो लोग इस विषय सुख के लिये लालायित रहते हैं और जो जन्म-मरण के बन्धन से छुड़ा देने वाले कल्पतरुस्वरूप आपकी उपासना भगवत-प्राप्ति के सिवा किसी अन्य उद्देश्य से करते हैं, उनकी बुद्धि अवश्य ही आपकी माया के द्वारा ठगी गयी है ।
नाथ! आपके चरणकमलों का ध्यान करने से और आपके भक्तों के पवित्र चरित्र सुनने से प्राणियों को जो आनन्द प्राप्त होता है, वह निजानन्दस्वरूप ब्रम्ह में भी नहीं मिल सकता। फिर जिन्हें काल की तलवार काटे डालती है उन स्वर्गीय विमानों से गिरने वाले पुरुषों को तो वह सुख मिल ही कैसे सकता है।
मुझे तो आप उन विशुद्धहृदय महात्मा भक्तों का संग दीजिये, जिनका आपमें अविच्छिन्न भक्तिभाव है; उनके संग से मैं आपके गुणों और लीलाओं की कथा-सुधा को पी-पीकर उन्मत्त हो जाऊँगा और सहज ही इस अनेक प्रकार के दुःखों से पूर्ण भयंकर संसार सागर के उस पार पहुँच जाऊँगा ।
आप जगत् के कारण, अखण्ड, अनादि, अनन्त, आनन्दमय निर्विकार ब्रम्हस्वरूप हैं। मैं आपकी शरण हूँ ।
प्रभु जिस प्रकार एक गऊ अपने तुरंत के जन्में हुए बछड़े को दूध पिलाती और व्याघ्रादि से बचाती रहती है, उसी उसी प्रकार आप भी भक्तों पर कृपा करने के लिये निरन्तर विकल रहने के कारण हम-जैसे सकाम जीवों की भी कामना पूर्ण करते उनकी संसार-भय से रक्षा करते रहते हैं ।
श्रीभगवान् ने कहा—उत्तम व्रत का पालन करने वाले राजकुमार! मैं तेरे हृदय का संकल्प जानता हूँ। यद्यपि उस पद का प्राप्त होना बहुत कठिन है, तो भी मैं तुझे वह देता हूँ। तेरा कल्याण हो । अन्य लोकों का नाश हो जाने पर भी जो स्थिर रहता है तथा तारागण के सहित धर्म, अग्नि, कश्यप और शुक्र आदि नक्षत्र एवं सप्तर्षिगण जिसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं, वह ध्रुवलोक मैं तुझे देता हूँ ।
फिर भगवान कहते हैं की जब तेरे पिता तुझे राजसिंहासन देकर वन को चले जायँगें; तब तू छत्तीस हजार वर्ष तक धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करेगा। तेरी इन्द्रियों की शक्ति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी । आगे चलकर किसी समय तेरा भाई उत्तम शिकार खेलता हुआ मारा जायगा, तब उसकी माता सुरुचि पुत्र-प्रेम में पागल होकर उसे वन में खोजती हुई दावानल(जंगल की आग) में जलकर मर जाएगी।
तू अनेकों बड़ी-बड़ी दक्षिणाओं वाले यज्ञों के द्वारा मेरा यजन करेगा तथा यहाँ उत्तम-उत्तम भोग भोगकर अन्त में मेरा ही स्मरण करेगा । इससे तू अन्त में सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय और सप्तर्षियों से भी ऊपर मेरे निज धाम को जायगा, वहाँ पहुँच जाने पर फिर संसार में लौटकर नहीं आना होता है ।
इस प्रकार भगवान ने बालक ध्रुव को दर्शन और आशीर्वाद दिया और गरुड़ पर बैठकर अपने धाम को चले गए।
जब राजा उत्तानपाद ने सुना कि मेरे पुत्र ने आज भगवान के साक्षात् दर्शन कर लिए हैं तब राजा उत्तानपाद ने पुत्र का मुख देखने के लिये उत्सुक होकर बहुत-से ब्राम्हण, कुल के बड़े-बूढ़े, मन्त्री और बन्धुजनों को साथ लिया तथा एक बढ़िया घोड़ों वाले सुवर्णजटित रथ पर सवार होकर वे झटपट नगर के बाहर आये। उनके आगे-आगे वेदध्वनि होती जाती थी तथा शंख, दुन्दुभि एवं वंशी आदि अनेकों मांगलिक बाजे बजते जाते थे ।
उनकी दोनों रानियाँ सुनीति और सुरुचि भी सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित हो राजकुमार उत्तम के साथ पालकियों पर चढ़कर चल रही थीं । ध्रुवजी उपवन के पास आ पहुँचे, उन्हें देखते ही महाराज उत्तानपाद तुरंत रथ से उतर पड़े। पुत्र को देखने के लिये वे बहुत दिनों से उत्कण्ठित हो रहे थे।
इन्होने झट से अपने पुत्र को अपनी भुजाओं में भरकर ह्रदय से लगा लिया। और ध्रुव जी ने अपने पिता के चरणों में प्रणाम किया है।फिर दोनों माताओं ने ध्रुव को गले से लगाया है। जब सभी लोग ध्रुव के प्रति अपना लाड़-प्यार प्रकट कर रहे थे, उसी समय उन्हें भाई उत्तम के सहित हथिनी पर चढ़ाकर महाराज उत्तानपाद ने बड़े हर्ष के साथ राजधानी में प्रवेश किया। राजधानी को दुल्हन की तरह सजाया हुआ है। हर जगह मंगल गीत गए जा रहे है और ध्रुव जी का गाजे बाजे से स्वागत किया जा रहा है।
कुछ समय बाद जैसे जैसे भगवान ने कहा था वैसा ही हुआ। राजा उत्तानपाद ने ध्रुव को शासन प्रदान किया है और आप वृद्धावस्था आयी जानकर आत्मस्वरूप का चिन्तन करते हुए संसार से विरक्त होकर वन को चल दिये।
ध्रुव ने प्रजापति शिशुमार की पुत्री भ्रमि के साथ विवाह किया, उससे उनके कल्प और वत्सर नाम के दो पुत्र हुए। ध्रुव की दूसरी स्त्री वायु पुत्री इला थी। उससे उनके उत्कल नाम के पुत्र और एक कन्यारत्न का जन्म हुआ ।
इनके भाई उत्तम का अभी विवाह नहीं हुआ था कि एक दिन शिकार खेलते समय उसे हिमालय पर्वत पर एक बलवान् यक्ष ने मार डाला। उसके साथ उसकी माता भी परलोक सिधार गयी ।
ध्रुव ने जब भाई के मारे जाने का समाचार सुना तो वे क्रोध, शोक और उद्वेग से भरकर एक विजयप्रद रथ पर सवार हो यक्षों के देश में जा पहुँचे। और ध्रुव जी महाराज ने यक्षों के साथ युद्ध किया है। ध्रुव जी यक्षों को मारने में लगे हैं। उनके पितामह स्वयाम्भुव मनु ने देखा तो उन्हें उन पर बहुत दया आयी। वे बहुत-से ऋषियों को साथ लेकर वहाँ आये और अपने पौत्र ध्रुव को समझाने लगे। मनुजी ने कहा—बेटा! बस, बस! अधिक क्रोध करना ठीक नहीं। यह पापी नरक का द्वार है। इसी के वशीभूत होकर तुमने इन निरपराध यक्षों का वध किया है ।
हमारा अपने भाई पर अनुराग था, यह तो ठीक है; परन्तु देखो, उसके वध से सन्तप्त होकर तुमने एक यक्ष के अपराध करने पर प्रसंग वश कितनों की हत्या कर डाली । तुम हिंसा का त्याग करो। क्योंकि जीव अपने-अपने कर्मानुसार सुख-दुःखादि फल भोगते हैं।
बेटा! ये कुबेर के अनुचर तुम्हारे भाई को मारने वाले नहीं हैं, क्योंकि मनुष्य के जन्म-मरण का वास्तविक कारण तो ईश्वर है । एकमात्र वही संसार को रचता, पालता और नष्ट करता है, किन्तु अहंकार शून्य होने के कारण इसके गुण और कर्मों से वह सदा निर्लेप रहता है। तुम अपने क्रोध को शान्त करो। क्रोध कल्याण मार्ग का बड़ा ही विरोधी है। भगवान् तुम्हारा मंगल करें ।
क्रोध के वशीभूत हुए पुरुष से सभी लोगों को बड़ा भय होता है; इसलिये जो बुद्धिमान् पुरुष ऐसा चाहता है कि मुझसे किसी भी प्राणी को भय न हो और मुझे भी किसी से भय न हो, उसे क्रोध के वश में कभी न होना चाहिये । तुमने जो यह समझकर कि ये मेरे भाई के मारने वाले हैं, इतने यक्षों का संहार किया है, इससे तुम्हारे द्वारा भगवान् शंकर के सखा कुबेरजी का बड़ा अपराध हुआ है ।
इस प्रकार स्वयाम्भुव मनु के अपने पौत्र ध्रुव को शिक्षा दी। तब ध्रुवजी ने उन्हें प्रणाम किया। इसके पश्चात् वे महर्षियों के सहित अपने लोक को चले गये ।
ध्रुव का क्रोध शान्त हो गया है और वे यक्षों के वध से निवृत्त हो गये हैं, यह जानकर भगवान् कुबेर वहाँ आये। उस समय यक्ष, चारण और किन्नर लोग उनकी स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखते ही ध्रुवजी हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब कुबेर ने कहा।
तुमने अपने दादा के उपदेश से ऐसा दुस्त्यज वैर त्याग कर दिया; इससे मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। वास्तव में तुमने यक्षों को मारा है और न यक्षों ने तुम्हारे भाई को। समस्त जीवों की उत्पत्ति और विनाश का कारण तो एकमात्र काल ही है। ध्रुव! अब तुम जाओ, भगवान् तुम्हारा मंगल करें। और तुम भगवान का भजन करो।
कुबेर कहते हैं- ध्रुव! तुम्हें जिस वर की इच्छा हो, मुझसे निःसंकोच एवं निःशंक होकर माँग लो। क्योंकि तुम भगवान के प्रिय हो।
ध्रुव जी कहते हैं- यदि आप मुझे कुछ देना चाहते तो केवल इतना दीजिये की मुझे भगवान की याद हमेशा बनी रहे। मुझे श्रीहरि की अखण्ड स्मृति बनी रहे। इडविडा के पुत्र कुबेरजी ने बड़े प्रसन्न मन से उन्हें भगवत्स्मृति प्रदान की।
फिर ध्रुवजी भी अपनी राजधानी को लौट आये। वहाँ रहते हुए उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों से भगवान् यज्ञपुरुष की आराधना की। ध्रुवजी अपने में और समस्त प्राणियों में सर्वव्यापक श्रीहरि को ही विराजमान देखने लगे। उनकी प्रजा उन्हें साक्षात् पिता के समान मानती थी। इस प्रकार तरह-तरह के ऐश्वर्य भोग से पुण्य का और भोगों के त्यागपूर्वक यज्ञादि कर्मों के अनुष्ठान से पाप का क्षय करते हुए उन्होंने छत्तीस हजार वर्ष तक पृथ्वी का शासन किया ।
फिर एक दिन इन्होने अपने पुत्र उत्कल को राजसिंहासन सौंप दिया और खुद बद्रिकाश्रम चले गए। और यहां पर भगवान का भजन करते थे। एक दिन ध्रुवजी ने आकाश से एक बड़ा ही सुन्दर विमान उतरते देखा। उसमें दो पार्षद गदाओं का सहारा लिये खड़े थे।
उनका सुंदर रूप था । उनके चार भुजाएँ थीं, सुन्दर श्याम शरीर था, किशोर अवस्था थी और अरुण कमल के समान नेत्र थे। उन्हें पुण्यश्लोक श्रीहरि के सेवक जान ध्रुवजी हड़बड़ाहट में पूजा आदि का क्रम भूलकर सहसा खड़े हो गये और ये भगवान् के पार्षदों में प्रधान हैं—ऐसा समझकर उन्होंने श्रीमधुसूदन ने नामों का कीर्तन करते हुए उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया ।
ध्रुवजी का मन भगवान् के चरणकमलों में तल्लीन हो गया और वे हाथ जोडकर बड़ी नम्रता से सिर नीचा किये खड़े रह गये। तब श्रीहरि के प्रिय पार्षद सुनन्द और नन्द ने उनके पास जाकर मुसकराते हुए कहा ।
सुनन्द और नन्द कहने लगे—राजन्! आपका कल्याण हो, आप सावधान होकर हमारी बात सुनिये। आपने पाँच वर्ष की अवस्था में ही तपस्या करके सर्वेश्वर भगवान् को प्रसन्न कर लिया था । हम उन्हीं निखिल जगन्नियन्ता सारंगपाणि भगवान् विष्णु के सेवक हैं और आपको भगवान् के धाम में ले जाने के लिये यहाँ आये हैं ।
ध्रुव जी ने बदरिकाश्रम में रहने वाले मुनियों को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लिया। इसके बाद दिव्य रूप धारण कर उस विमान पर चढ़ने को तैयार हुए।
ध्रुव जी ने अब देखा की उनके सामने कोई खड़ा है । ध्रुव जी ने पूछा- आप कौन हैं? और यहां क्यों खड़े हैं?
उसने कहा की मैं मृत्यु हूँ और आपका देह लेने के लिए खड़ी हूँ।
ध्रुव जी कहते हैं आप मेरी देह ले लीजिए।
तब मृत्यु कहती है हमारे अंदर इतनी शक्ति नहीं है की एक भक्त की देह मैं ले सकु। आप मेरे सिर पर पैर रख दीजिये। और ऐसा कहकर मृत्यु झुक गई। तब वे मृत्यु के सिर पर पैर रखकर उस समय अद्भुत विमान पर चढ़ गये। उस समय आकाश में दुन्दुभि, मृदंग और ढोल आदि बाजे बजने लगे, श्रेष्ठ गन्धर्व गान करने लगे और फूलों की वर्षा होने लगी।
जब ध्रुव जी महाराज विमान में बैठकर जा रहे थे तभी उन्हें अपनी माँ सुनीति की याद आ गई। वे सोचने लगे, ‘क्या मैं बेचारी माता को छोड़कर अकेला ही दुर्लभ वैकुण्ठधाम को जाऊँगा ? नन्द और सुनन्द ने ध्रुव के हृदय की बात जानकर उन्हें दिखलाया कि देवी सुनीति आगे-आगे दूसरे विमान पर जा रही हैं ।
उन्होंने क्रमशः सूर्य आदि सभ ग्रह देखे। मार्ग में जहाँ-तहाँ विमानों पर बैठे हुए देवता उनकी प्रशंसा करते हुएफूलों की वर्षा करते जाते थे । उस दिव्य विमान पर बैठकर ध्रुवजी त्रिलोकी को पारकर सप्तर्षिमण्डल से भी ऊपर भगवान् विष्णु के नित्यधाम में पहुँचे। इस प्रकार उन्होंने अविचल गति प्राप्त की । और उन्हें कभी नाश ना होने वाला ध्रुव लोक का वास मिला।
श्रीमद भागवत पुराण में आप इस कथा को विस्तार से पढ़ सकते हैं।
बोलिए ध्रुव जी महाराज की जय। श्री हरि ! श्री हरि