किसी भी ग्रन्थ, लेख या वक्तव्य का उद्देश्य उसके उपक्रम में ही निहित रहता है। ग्रन्थकार, लेखक अथवा वक्ता अपनी कृति के आरम्भ में ही उसके उद्देश्य का उल्लेख करता है।इस दृष्टि से यदि हम रामायण के उपक्रम को देखें तो हम सहज ही उसके उद्देश्य को समझ सकते हैं।
रामायण के प्रारम्भ में ही महर्षि वाल्मीकि और देवर्षि नारद की भेंट होने का वर्णन है। इसी भेंट में वे देवर्षि नारद से वह जिज्ञासा करते हैं जो उनके मन मस्तिष्क में चल रही थी। वे किसी ऐसे व्यक्ति के सम्बन्ध में जिज्ञासा करते हैं जिसमें वे सोलह गुण विद्यमान हों जो उनके मन में उठ रहे थे। स्पष्ट है कि वे ऐसे धीरोदात्त व्यक्ति के सम्बन्ध में लिखना चाहते थे। देखिए –
ॐ तप:स्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम्।
नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुङ्गवम्।।
श्लोक १/१/१
तपस्वी वाल्मीकि ने तप और स्वाध्याय में लगे रहने वाले, वक्ताओं में श्रेष्ठ और मुनियों (मननशील व्यक्तियों) में श्रेष्ठ नारद से पूछा।
यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि वाल्मीकि ने तभी पूछा होगा जब नारद के उत्तर का कुछ उपयोग करने की कोई योजना उनके मन में रही होगी।
वे पूछते हैं –
को न्वस्मिन् साम्प्रते लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान्।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रत:।।
वा.रा.१/१/२
अभी वर्तमान समय में कौन व्यक्ति गुणवान, पराक्रमी, धर्मज्ञ, कृतज्ञ (किए हुए उपकार को मानने वाला), सत्यवक्ता और दृढ़व्रती है।
उनकी जिज्ञासा भूतकाल में हुए किसी महापुरुष के सम्बन्ध में नहीं थी। वे केवल वर्तमान में उपस्थित व्यक्ति की बात कर रहे थे। मरने के पश्चात् तो लोग सभी को महान बता दिया करते हैं। इसके सिवाय यह भी है कि भूतकाल में कौन कितना महान हो गया यह वर्तमान को महान बना देने के लिए निश्चित निर्धारणबिन्दु तो नहीं है।
चारित्रेण च को युक्त: सर्वभूतेषु को हित:।
विद्वान् क: क: समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शन:।।
वा.रा.१/१/३
कौन व्यक्ति चारित्र्य से युक्त है और सम्पूर्ण प्राणियों के हित में लगा रहता है। कौन विद्वान् और समर्थ है। कौन प्रियदर्शन (देखने में प्रिय और सबको प्रिय देखने वाला) है।
आत्मवान् को जितक्रोधो द्युतिमान् कोऽनसूयक:।
कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे।।
वा.रा.१/१/४
जिसका मन वश में हो, क्रोध को जीत लिया हो, तेजस्वी और परनिन्दा न करनेवाला कौन है। रणभूमि में कुपित होने पर किससे देवता (भी) भय खाते हैं।
ये ही वे सोलह गुण हैं जिनके सम्बन्ध में महर्षि वाल्मीकि जानना चाहते हैं कि किस व्यक्ति में ये गुण विद्यमान हैं।
वे देवर्षि नारद को यह ज्ञान रखने के सर्वथा योग्य मानते हैं। वे आगे कहते हैं-
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे।
महर्षे त्वं समर्थोऽसि ज्ञातुमेवंविधं नरम्।।
वा.रा.१/१/५
इतना मैं जानना चाहता हूँ। मेरे मन में बड़ा कौतूहल हो रहा है। हे महर्षि! आप ऐसे मनुष्य को जानने में समर्थ हैं। अर्थात अवश्य जानते होंगे।
ऐसा सुनकर नारद बोले कि इतने सभी गुण एक व्यक्ति में होना दुर्लभ हैं। तो भी मैं विचार करके बताता हूँ। सुनो-
इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनै: श्रुत:।
इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न राम एक ऐसे पुरुष हैं जिनकी ख्याति जन जन में फैली है।
ऐसा कहकर वे श्रीराम के कुछ गुणों का वर्णन करने लगते हैं। इस वर्णन में वे संक्षेप में श्रीराम का पूरा चरित्र वर्णित कर देते हैं।
अन्त में वे यह भी कहते हैं कि यह रामकथा वेदों के समान अत्यन्त पवित्र, पापनाशक और पुण्यमय है। जो यह रामचरित्र पढ़ेगा वह सभी पापों से मुक्त हो जाएगा। देखिए –
इदं पवित्रं पापघ्नं पुण्यं वेदैश्च सम्मितम्।
य: पठेद् रामचरितं सर्व पापै: प्रमुच्यते।।
वा.रा.१/२/९८
तत्पश्चात वे देवर्षि नारद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात कहते हैं। वह इस प्रकार है-
पठन्द्विजो वागृषभत्वमीयात्
स्यात्क्षत्रियोभूमिपतित्वमीयात्।
वणिग्जन: पण्यफलत्वमीयाज्
जनश्च शूद्रोऽपि महत्त्वमीयात्।।
वा.रा.१/२/१००
यदि इसको ब्राह्मण पढ़ें तो वह विद्वान हो सकता है। यदि क्षत्रिय पढ़ें तो भूमिपति राजा हो सकता है। यदि वैश्य पढ़ें तो वह व्यापार में लाभ प्राप्त कर सकता है। और यदि शूद्र पढ़ें तो वह महत्त्व अथवा प्रतिष्ठा पा जाता है।
इसका तात्पर्य यह है कि समाज के सभी लोगों के लिए परम उपकारी यह कथा है। जो लोग यह प्रचार करते हैं कि रामायण शूद्रों के विरोध में है, वे मिथ्या प्रचार कर रहे हैं। रामायण के उपक्रम में ही रामायण के अध्ययन करने से शूद्र के प्रतिष्ठित होने की घोषणा है।
यह प्रसंग हमने इसलिए लिखा कि पाठकों के मन में यह स्पष्ट हो जाए कि रामायण की रचना के पूर्व महर्षि वाल्मीकि के मन में क्या कुछ चल रहा था और नारद से मिलने पर उन्हें क्या मार्गदर्शन मिला। यही रामायण का वास्तविक उद्देश्य के निर्धारण का सूत्र है।
यह प्रसंग यह भी बताता है कि वाल्मीकि, नारद से मिलने के पूर्व ही कविता करना जानते थे। शास्त्रों का उनका अध्ययन था। और वे कुछ महत्वपूर्ण लिखने के लिए व्यग्र हो रहे थे।
वाल्मीकि और नारद की इस भेंट के पश्चात् एक और महत्वपूर्ण घटना घटी थी जिसने वाल्मीकि को प्रभावित कर दिया। वह घटना इस प्रकार थी।
नारद जी से भेंट करने के उपरान्त महर्षि वाल्मीकि तमसा नदी के तट पर पहुँचे जो गंगा नदी के निकट ही था। वहाँ एक घाट को कीचड़ रहित देखकर महर्षि ने अपने बुद्धिमान शिष्य भरद्वाज से कहा कि यहाँ का जल वैसा ही निर्मल है जैसा सत्पुरुषों का मन होता है।
वे बोले –
न्यस्तां कलशस्तात दीयतां वल्कलं मम।
इदमेवावगाहिष्ये तमसातीर्थमुत्तमम्।।
वा.रा.१/२/६
तात भरद्वाज! यहीं पर कलश रख दो और मेरे वल्कल मुझे दो। मैं तमसा के इस उत्तम तीर्थ में स्नान करूँगा।
भरद्वाज ने वैसा ही किया। वे जितेन्द्रिय महर्षि वल्कल हाथ में लेकर विशाल वन की शोभा देखते हुए सब ओर विचरण करने लगे।
उस समय उन्होंने क्रौञ्च पक्षियों के एक जोड़े को देखा जो एक दूसरे से अलग नहीं हो रहे थे और मधुर बोली बोल रहे थे। उनके देखते ही देखते उसी समय एक व्याध ने उस जोड़े में से एक नर पक्षी को बाण से मार डाला।
तं शोणितपरीतांगं चेष्टमानं महीतले।
भार्यां तु निहतं दृष्ट्वा रुराव करुणां गिरम्।
वा.रा.१/२/११
रक्त से लथपथ वह पक्षी धरती पर गिर पड़ा और पंख फड़फड़ाता हुआ तड़पने लगा। उसकी भार्या अपने पति की हत्या हुई देखकर करुण वाणी में रोने लगी।
ऐसा देखकर महर्षि करुणा से भर उठे। उन्होंने इसे अधर्म माना।
तत: करुणवेदित्वादधर्मोऽयमिति द्विज:।
निशाम्य रुदतीं क्रौञ्चीमिदं वचनमब्रवीत्।।
वा.रा.१/२/१४
स्वभावत: करुणा का अनुभव करने वाले महर्षि ने यह निश्चय किया कि “यह अधर्म हुआ है।” तब उन्होंने क्रौञ्ची की ओर देखते हुए यह वचन कहा।
धर्म और अधर्म के मध्य सूक्ष्म भेद और उसके निर्धारण का यह विलक्षण और विश्व का एकमात्र उदाहरण ही होगा। रामायण का यह प्रसंग उन लोगों के लिए मार्गदर्शन कर सकता है जो धर्म के नाम पर गुट और गिरोह बना कर संसार भर में धींगामुश्ती कर रहे हैं।
रामायण की रचना के मूल में महर्षि के हृदय में करुणा स्त्रोत फूटने पर निस्रत वह जगप्रसिद्ध श्लोक है जिसने रामायण लिखे जाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। वह श्लोक इस प्रकार है –
मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:।
यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्।।
वा.रा.१/२/१५
अरे निषाद तुम कभी भी शाश्वत शान्ति को प्राप्त नहीं कर सकोगे क्योंकि तुमने काममोहित क्रौञ्च के जोड़े में से एक को मार डाला है।
यही वह श्लोक है जिससे महर्षि के हृदय में काव्यधारा बहने लगी।
वे उस हत्यारे व्याध के लिए अमंगलमय शाप देकर पुनः स्वयं सोचने लगे।
तस्येत्थं ब्रुवतश्चिन्ता बभूव हृदि वीक्षत:।
शोकार्तेनास्य शकुने: किमिदं व्याहृतं मया।।
ऐसा कहकर उन्होंने (अपने ही कहे पर) विचार किया। तब उनके मन में यह चिन्ता हुई कि इस पक्षी के शोक से पीड़ित होकर मैंने यह क्या कह डाला।
इस वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि-
१. महर्षि के हृदय में सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति करुणा का भाव सदा विद्यमान रहता था। इस स्थल पर वह तत्काल प्रकट हो गया। पशु पक्षियों के प्रति उनके हृदय में अपार प्रेम और करुणा भरी हुई थी।
२. करुणा से उनका हृदय द्रवीभूत हो उठा। उसके कारण दो बातें घटीं। एक तो उनके कण्ठ से मधुर श्लोक निकला दूसरे उन्हें तत्क्षण व्याध पर क्रोध आ गया और उन्होंने उसे शाप दे दिया। शाप देने के पश्चात् उन्हें पश्चाताप भी होने लगा।
३. इस घटना के पश्चात वे जब भी कुछ सोचते विचारते तो उनके सामने वह क्रौञ्च पक्षी का दृश्य और अपने शाप का स्मरण हो आता।
उनकी इस मनःस्थिति में ही एक दिन ब्रह्मा जी महर्षि से मिलने आ पहुँचे। उनके सहसा आ जाने से महर्षि वाल्मीकि चकित रह गए। उनका अर्घ्य, पान, आसन से सत्कार करके वे हाथ जोड़कर खड़े रह गये। कुछ भी बोल न सके। उस समय भी उनके मन में वह क्रौञ्च वाली घटना छायी हुई थी। ब्रह्मा जी ने उनकी ऐसी मनःस्थिति को देखकर पूछा तो वाल्मीकि ने अपने साथ घटी घटना को विस्तार से सुना दिया। उन्होंने यह भी बताया कि मेरे मुख से उस समय यह श्लोक (१/२/१५) निकला था।
पूरी घटना सुनकर ब्रह्मा जी बोले –
श्लोक एवास्त्वयं बद्धो नात्र कार्या विचारणा।
मच्छन्दादेव ते ब्रह्मन् प्रवृत्तेयं सरस्वती।।
वा.रा.१/२/३१
तुम्हारे मुख से निकला यह छन्दबद्ध श्लोक ही है। इसमें अब कुछ सोच विचार करने की आवश्यकता नहीं है। मेरी प्रेरणा से ही तुम्हारी बुद्धि इस प्रकार प्रवृत्त हुई है।
रामस्य चरितं कृत्स्नं कुरु त्वमृषिसत्तम।
धर्मात्मनो भगवतो लोके रामस्य धीमत:।।
वा.रा.१/२/३२
ऋषिवर! तुम श्रीराम का सम्पूर्ण चरित्र लिखो क्योंकि श्रीराम संसार में बुद्धिमान, शुभलक्षण और धर्मात्मा हैं।
आगे उन्होंने यह भी कहा कि जैसा तुम्हें नारद ने रामचरित्र सुनाया है वैसा ही लिखो। मेरी कृपा प्रसाद से तुम्हें राम के चरित्र की सभी घटनाएँ प्रत्यक्ष हो जाएँगीं।
तब महर्षि वाल्मीकि ने सात काण्डों, पाँच सौ सर्गों और चौबीस हजार श्लोकों का यह अद्भुत रामायण महाकाव्य रचा। जिसने संसार के लोगों को पुरुषार्थ चतुष्टय प्राप्त करने हेतु न केवल आकृष्ट किया अपितु उनका मार्गदर्शन भी किया। हिन्दू दर्शन में इन चारों पुरुषार्थों को सम्यक् रूप से अर्जित कर लेने को जीवन की सफलता माना जाता है। चारों वर्णों के सभी लोगों को सम्पूर्ण जीवन की सफलता प्राप्त करने के लिए यह महाकाव्य है। यही इस रामायण का उद्देश्य है।
इसका प्रधान रस करुण रस है और इसका सन्देश संसार का ऐहिक और पारलौकिक कल्याण है। यह सन्देश अहिंसा, सत्य, त्याग, प्रेम और करुणा जैसे गुणों के माध्यम से दिया गया है।
कुछ लोग यह निष्कर्ष निकालते हैं कि महर्षि को क्रौञ्च पक्षी की घटना के पहले काव्यकला का ज्ञान न था। वह काव्यकला तो वह परम कारुणिक दृश्य देखकरअकस्मात् उनके हृदय से फूट पड़ी थी।
हम इस निष्कर्ष को उचित नहीं मानते। हम ऊपर वर्णन कर आए हैं कि महर्षि वाल्मीकि इस घटना के पहले ही काव्यकला सहित सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान रखते थे। उनके मन में कुछ महत्वपूर्ण कार्य अथवा लिखने का विचार इस घटना के पहले से ही विद्यमान था।
आशीष कुमार पांडेय
केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय तिरुपति