जब दो विरोधी पक्ष किसी बिन्दु पर विवाद करने लगें तो धर्मनिष्ठ (ईमानदार) लोगों से समाज द्वारा यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने मत व्यक्त करते समय निष्पक्ष रहें।
यह निष्पक्षता क्या हो सकती है ? क्या इसका यह अर्थ है कि किसी के पक्ष में बात न की जाए ? नहीं, यह तो विवादित विषय में न्याय ही न हुआ। यदि इन धर्मनिष्ठ लोगों को विवादित विषय पर कुछ कहना ही नहीं है तो वे वहाँ पर गये ही क्यों। उन्होंने अपना नाम धर्मनिष्ठ (ईमानदार) लोगों की सूची में क्यों लिखवा रखा है। वे धर्मनिष्ठ भी बने रहना चाहते हैं और धर्म की बात करने में संकोच या भय खाते हैं।
ऐसे धर्मनिष्ठ लोग दो प्रकार के होते हैं। पहले तो वे जो दोनों पक्षों की निन्दा अथवा प्रशंसा, या दण्डित अथवा पुरस्कृत कर देते हैं। ऐसा करने से वे अपने आपको निष्पक्ष और न्यायी घोषित करते रहते हैं। इसमें उन्हें यह अन्याय नहीं दिखाई देता कि दोनों में से पीड़ित पक्ष पहले से ही त्रस्त है और तिस पर भी इन धर्मनिष्ठ लोगों ने उसी पर निन्दा अथवा दण्ड आरोपित कर दिया है। दूसरी ओर उन्हें इसकी भी चिन्ता नहीं रहती कि जो पीड़क पक्ष है वह तो पहले से ही पीड़ित पर अन्याय कर रहा है और ऊपर से ये धर्मनिष्ठ लोग उसे प्रशंसित और पुरस्कृत करके उसकी अन्याय करने की मनोवृत्ति और शक्ति को बल प्रदान कर रहे हैं।
इस प्रकार के लोगों में अग्रगण्य गान्धी जी और गान्धीवादी हैं। अंग्रेजी राज में जब कभी हिन्दू मुस्लिम विवाद या संघर्ष होता था तो गान्धी जी यह नहीं देखते थे कि यह विवाद किसने और किस बिन्दु पर किया था। (उन दिनों विवाद का प्रारम्भ प्राय: मुस्लिम ही करते थे।) वे या तो हिन्दुओं को लताड़ लगा देते थे या दोनों को ही साथ साथ एक एक लताड़ लगा देते थे।
यह कार्य आज भी सभी नेता, बुद्धिजीवी और पत्रकार करते हैं। जब मुस्लिम किसी क्षेत्र विशेष से हिन्दुओं की शोभायात्रा नहीं निकलने देते हैं और निकालने पर आक्रमण कर बैठते हैं तो ये लोग बोलते हैं कि हम दोनों प्रकार की साम्प्रदायिकता के विरुद्ध हैं चाहे वह हिन्दुओं की ओर से हो या मुस्लिमों की ओर से हो।
ऐसे प्रकरणों में हिन्दु तो कोई साम्प्रदायिकता नहीं कर रहे हैं। तब उन्हें साम्प्रदायिकता में लपेटना कहाँ तक उचित है ? वे स्पष्ट और खुलकर यह कहने का साहस नहीं करते कि यह मुस्लिम साम्प्रदायिकता है और हम इसके विरुद्ध हैं।
दूसरे धर्मनिष्ठ वे लोग हैं जो कह देते हैं कि इस बिन्दु पर विचार करना बड़ा कठिन है। यह असाधारण विषय है अत: दोनों पक्ष यथास्थिति और शान्ति बनाए रखें। इन लोगों के लिए न्याय प्रमुख नहीं है। शान्ति प्रमुख रहती है। ऐसे लोग में प्राय: नेता, सरकारी अधिकारी और न्यायाधीश होते हैं। ये मूल विवाद को टालें रखने को ही उपलब्धि मानते हैं। चाहे वह विवाद अन्दर ही अन्दर सुलगता रहकर एक दिन जवालामुखी जैसा भले ही फट पड़े।
इसका प्रसिद्ध उदाहरण महाभारत के द्रोपदी चीर हरण प्रसंग में द्रोपदी द्वारा अपने ऊपर हो रहे अन्याय को अधर्म मानकर कौरव राज्य सभा द्वारा अविलम्ब हस्तक्षेप करने की मांग करने पर दिया गया भीष्म पितामह का वक्तव्य है। वह वक्तव्य इस प्रकार है –
उक्तवानस्मि कल्याणि धर्मस्य परमा गति:।
लोके न शक्यते ज्ञातुमपि विज्ञैर्महात्मभि:।। महाभारत/सभा. ६९/१४
हे कल्याणि! मैं तुमको पहले ही कह चुका हूँ कि धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है। इस लोक में ज्ञानियों, महात्मा जनों द्वारा भी उसे ठीक ठीक नहीं जाना जा सकता।
यहाँ यह बात विचारणीय है कि यदि विद्वज्जन ही धर्म के सम्बन्ध में सही और न्यायसंगत व्यवस्था न देंगे तो समाज कैसे चलेगा ?
धर्म की सूक्ष्मता के कारण मैं इसकी विवेचना नहीं कर सकता। ऐसा कहना विद्वानों को शोभा नहीं देता।
हमारे देश का न्यायालय रामजन्मभूमि प्रकरण में भीष्म पितामह जैसी स्पष्टता से कहने का साहस तो नहीं कर पाता किन्तु किसी न किसी कारण से उस प्रकरण की सुनवाई ही टालता रहता है। जब प्रकरण सुनेंगे ही नहीं तब न्याय करने की बात ही नहीं आएगी।
कब तक टाला जा सकता है ? अनन्तकाल तक तो नहीं न ? जो अत्यन्त ज्वलन्त और ज्वलनशील प्रकरण है उस पर यह अनुत्तरदायी टालमटोल घोर आपत्तिजनक है।
इन दो प्रकार के धर्मनिष्ठ लोगों के अलावा एक प्रकार के महानुभाव और होते हैं। वे तो निर्लज्जतापूर्वक अधर्म को ही धर्म अथवा अन्याय को ही न्याय घोषित कर देते हैं। वे लोग बिना कोई जाँच पड़ताल किए ही बलवान की जय के नारे लगाकर अपना निर्णय सुना देते हैं।
ऐसा ही उदाहरण महाभारत के उपर्युक्त प्रकरण में महात्मा भीष्म पितामह के उस वक्तव्य का है जिसमें वे द्रोपदी से कहते हैं कि जो बलवान कहता है वही धर्म होता है। देखिए –
बलवांश्च यथा धर्मं लोके पश्यति पूरुष:।
स धर्मो धर्मवेलायां भवत्यभिहत: पर:।।
महाभारत/सभा. ६९/१५
बलवान लोग लोक में जिसे धर्म समझते हैं उसी को धर्मपालन करनेवाले धर्म समझ लेते हैं। धर्मपालन के अवसर पर वही धर्म माना जाता है। परोक्ष रूप से वे कह रहे हैं कि इस समय दुर्योधन बलवान है इसलिए उसका कहना ही धर्मयुक्त है। उनका स्पष्ट आशय है कि धर्म वहीं जो बलवान निर्धारित करता है।
धर्म को बल से निर्धारित और निर्णीत करने वाले पूर्व में भी इतिहास में हो चुके हैं। उनमें रावण, बालि, कंस, दुर्योधन, महापद्मनन्द इत्यादि के नाम लिए जा सकते हैं।