गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता।।
यह प्रसिद्ध श्लोक गीता की प्रशंसा में किसी कवि ने लिखा है। गीता की विषयवस्तु इतनी लोकप्रिय है कि जो एक बार इसको पढ़ता या सुनता है वह बिना आकर्षित हुए नहीं रहता। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि इसका शब्दविन्यास, और तर्काधिष्ठित प्रस्तुतिकरण अनुपम है।
भारत में तो यह स्थिति बन गयी है कि जो भी व्यक्ति, कवि या लेखक गीता के वर्ण्य विषय को लिखता है उसे ही लोग गीता कहने लगते हैं। जैसे कपिलगीता, अष्टावक्रगीता, नारदगीता, लक्ष्मणगीता, रामगीता इत्यादि।
विश्वसाहित्य में ऐसा कोई ग्रन्थ न होगा जो किसी अन्य ग्रन्थ का छोटा सा भाग होते हुए भी मूलग्रन्थ अधिक प्रतिष्ठा, लोकप्रियता और आदर मिला हो। गीता अपने मूल ग्रन्थ महाभारत से कहीं अधिक समादृत, मान्य और लोकप्रिय है। ज्ञातव्य है कि गीता, महाभारत के भीष्म पर्व में २५ वें अध्याय से ४२ वें अध्याय तक की कथा है।
इसके अनगिनत भाष्य हैं। सभी आचार्यों ने गीता से अपने मत को पुष्ट किया है। गीता की रचना के पश्चात् ऐसा कोई विद्वान भारत में नहीं हुआ जिसने गीता न पढ़ी हो और वह विद्वान मान लिया गया हो। अपने देश में तो यह परिपाटी ही चल पड़ी है कि जो प्रस्थानत्रयी का अर्थ समझ कर उसका एक आशय प्रस्तुत कर दे वही आचार्य माना जाने योग्य है। उपनिषद, गीता और ब्रह्मसूत्र तीनों को मिलाकर प्रस्थानत्रयी कहा जाता है।
भारत के राजे महाराजे, सन्यासी, गृहस्थ, और जनसामान्य सभी गीता से प्रेरणा प्राप्त करते रहे हैं। राजनेता, शिक्षाविद, क्रान्तिकारी, समाजसुधारक, कवि, लेखक सब गीता से अनुप्राणित रहे हैं। इसका कारण यह है कि गीता में जीवन की सभी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया गया है। वह समाधान भी सहज, सरल और लोकप्रिय है। गीता की भाषा जितनी सरल और बोधगम्य है उसकी विषयवस्तु उतनी ही अगम्य और दुरूह है। इसका प्रस्तुतिकरण इतना आकर्षक है कि सामान्य अध्येता और बड़े से बड़े विद्वान सभी सहज ही आकृष्ट हो जाते हैं। इन दोनों वर्गों को लोक और वेद कहा जाता है।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम:।
गीता की एक विशेषता यह भी है कि अठारह अध्यायों और सात सौ श्लोकों में विस्तृत यह छोटा सा ग्रन्थ जीवन जीने की कला को सम्पूर्णता से प्रस्तुत कर देता है। इतने छोटे कलेवर में होने के कारण देश विदेश के लाखों लोगों ने इसे कण्ठस्थ कर रखा है। इस का मनन करने पर नवीन विचारों का एक प्रवाह सा चल पड़ता है। सभी अध्येता यही समझते हैं कि उनकी व्यक्तिगत समस्या का समाधान इसमें है। यह ग्रन्थ उनको आकृष्ट तो करता ही है, जो स्वयं किसी समस्या से पीड़ित हैं साथ ही उनका भी मार्गदर्शन करता है जो अपने लिए नहीं अपितु समाज के लिए कुछ करने की अभिलाषा रखते हैं।
कर्म के स्वरूप, प्रकृति, उद्देश्य, विधि और परिणाम की व्याख्या का ऐसा अद्भुत विवेचन गीता में है जो अन्य किसी ग्रन्थ में नहीं है। कर्म और कर्मफल की अनुपम विवेचना गीता की विशेषता ही है। धर्म, अधर्म, ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, मुक्ति इत्यादि का सूक्ष्म विवेचन गीता में उपलब्ध है।
गीता किसी मत सम्प्रदाय का ग्रन्थ नहीं है। यह तो मानवमात्र के लिए हितकारी है। इसका अध्ययन सभी को करना चाहिए। बाल्यावस्था से ही इसका अध्ययन किया जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि इसमें कर्म करने का ढँग बताया गया है। जीवन कर्म करने का न केवल अवसर है अपितु विवशता भी है। तो क्यों न जीवन के प्रारम्भ काल में ही इसे समझ लिया जाये।
गीता के सम्बन्ध में दो बड़ी भ्रान्तियाँ मन में बैठी हुईं हैं।
१) गीता पढ़ने से लोग संन्यासी हो जाते हैं इसलिए इसके अध्ययन से बच्चों को दूर ही रखा जाना चाहिए। यह कोरी मूढ़मान्यता है। जब गीता का मुख्य श्रोता अर्जुन ही उसे सुनकर संन्यासी नहीं हुआ तो दूसरे पाठक अथवा अध्येता कैसे संन्यासी हो जाएँगे। अर्जुन ने तो गीता का सम्पूर्ण प्रवचन सुनने के पश्चात यही कहा था कि –
नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव।।
हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है। मुझे मेरी स्मृति पुनः प्राप्त हो चुकी है। मैं अब सन्देहरहित हो चुका हूँ। अब मैं आपके वचनों का पालन करूँगा।
श्रीकृष्ण का वचन यह था कि तुम क्षत्रिय हो और यह समागत धर्ममय युद्ध तुम्हारे सामने है। तुम्हें इसमें अपने कर्तव्य का पालन से मना नहीं करना चाहिए। ज्ञातव्य है कि अर्जुन उस युद्ध की अनुपयोगिता और निरर्थकता बता कर युद्ध करने से मना कर रहा था। गीता का उपदेश सुनकर ही वह अपने स्वकर्म को निष्ठा और प्रसन्नतापूर्वक करने में संलग्न हो गया था।
हमारे कहने का आशय यह है कि न तो श्रीकृष्ण ने संन्यास लेने का उपदेश दिया था और न अर्जुन ने संन्यास लिया था, जिसका भय हिन्दू लोग मानते रहते हैं।
२) दूसरी भ्रान्ति यह है कि गीता पढ़ने का उचित समय वृद्धावस्था है। बाल्यावस्था और यौवनावस्था में गीता पढ़ना अनुपयुक्त है। ऐसे लोग यह मानते हैं कि गीता भगवद्भक्ति सिखाती है और यह भक्ति वृद्धावस्था में ही की जाना चाहिए।
यह न केवल भ्रान्ति है बल्कि अज्ञानता भी है। सच कहा जाए तो यह भ्रान्ति अज्ञानता के कारण ही है।
जीवन में कर्म करना आवश्यक है और यह जीवन की विवशता भी है। तब कर्म को सम्यक् रूप से करने की विधि को कर्म करने के पूर्व ही क्यों न सीख लिया जाए। जीवन में बाल्यावस्था सीखने के और यौवनावस्था सीखे हुए का अनुप्रयोग करने के लिए है। वृद्धावस्था में जब सारी इन्द्रियाँ शिथिल पड़ जाएँगी तब क्या कोई कुछ सीखेगा और क्या उस सीखे हुए ज्ञान का प्रयोग कर सकेगा।
पर्वतारोहण तो युवावस्था में ही सीखना और करना उचित है। इसके लिए वृद्धावस्था की प्रतीक्षा करना हास्यास्पद ही है।
गीता में ही कहा है-
शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीर विमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स सुखी नर:।।
जो मनुष्य शरीर छूटने के पहले ही काम और क्रोध से उत्पन्न वेग को सहन करने में सक्षम हो जाता है वही युक्त (तर्कसंगत जीवन जीने वाला) है और वही सुखी भी है।
समाज को तो यह महाग्रन्थ विरासत में ही मिला है। उन्हें तो इसका उपयोग करना ही चाहिए। अन्य वर्गों को भी इसे अपनी विरासत समझना चाहिए क्योंकि इसके लिए किसी कोई रोक-टोक नहीं है।