ब्रह्मानंदं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं
द्वंद्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् |
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ||
आषाढ़ मास के पूर्णिमा को सनातन परंपरा में गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा (कृष्ण द्वैपायन महर्षि वेद व्यास के जन्मदिन)के उपलक्ष्य पर बड़े हीं आदर्श के साथ मनाने की रीति है, परिव्राजक साधुगण इसी दिन से एक ही स्थान पर बैठ कर कथा प्रवचन एवं मानवों के जीवन का यथार्थ बताते है,गुरुकुल के छात्र बड़े ही उत्साह से आज अपने गुरु जी की पूजा करते है , गृहस्थ जीएवं यापन करने वाले लोग अपने अपने गुरुजी का चरण वंदन करते है तथा नई दीक्षा भी लेते है,इस दिन गुरु की पूजा विधि पूर्वक करने से व्यक्ति के जीवन में नया सवेरा होता है। जबकि जीवन का मार्ग भी प्रशस्त होता है।हर साल वर्षा ऋतु में ही गुरु पूर्णिमा मनाई जाती है. माना जाता है कि मानसून के दौराना मौसम सुहाना रहता है और इस समय न ही अधिक गर्मी होती और न ही सर्दी होती है. ऐसे में यह वक्त अध्ययन और अध्यापन के लिए अनुकूल रहता है ।
उपनिषद् में मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव कहकर गुरु का महत्त्व माता-पिता के तुल्य बताया है। प्राचीन काल में आध्यात्मिक एवं लौकिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए विद्यार्थी को गुरुकुल भेजने की परम्परा थी। कालक्रम से इस परम्परा का लोप होता गया, फिर भी गुरु की महत्ता इस देश में विद्यमान है। किसी जमाने में प्रत्येक व्यक्ति को गुरु से मार्गदर्शन लेना अनिवार्य था और जो बिना गुरु के होता था, उसकी निगुरा कहकर सामाजिक भर्त्सना होती थी। आज के भाग दौड़ भरे जीवन को पूर्व कल्पना करके ही जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने भारत के चारो दिशाओं में 4 पीठों की स्थापना कर डूबते सनातन को बचाया, तथा गुरु परंपरा का नींव मजबूत किया,इस दिन ही भगवान गौतम बुद्ध ने सारनाथ में अपना पहला उपदेश दिया था। इस दिन ही भगवान शिव ने सप्तऋषियो को योग का ज्ञान दिया था और प्रथम गुरु बने थे। गुरु का हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।
“गुरु” शब्द गु और रु शब्दों से मिलकर बना है। गु का अर्थ है अन्धकार और रु का अर्थ है मिटाने वाला। इस प्रकार गुरु को अन्धकार मिटाने वाला या अंधकार से प्रकाश में ले जाने वाला कहा जाता है।