ज्ञानसंजीवनी

जो भी मनुष्य ऊँचे कर्म या सर्वोत्तम कर्म करते हैं वे कहीं न कहीं आध्यात्मिकता से जुड़े हुए होते हैं, उनमें कहीं न कहीं आध्यात्मिक अंश,सात्विक अंश अवश्य सामान्य मनुष्य की तुलना में अधिक प्रकट हुए होते हैं। आंतरिक नैतिकता का बल जितना अधिक होगा उतना ही अधिक समस्याओं से, पाप से, प्रतिकूलता से लड़ने की क्षमता आपमें विकसित होगी।।
कामना की आग इतनी बड़ी है कि मन के हिसाब से कुछ न हो पाने के कारण आत्महत्या तक कर लिया जा रहा है।
व्यक्ति की कामना की पूर्ति न होने से , कामना की पूर्ति में बाधा आ जाने से, महत्वकांक्षा अधूरी रह जाने से मनुष्य को यह लग रहा है कि उसकी इच्छा पूरी नहीं हुई तो बस उसका अब जीना ही व्यर्थ है, अर्थात जीवन का जो उद्देश्य है वह ही इच्छा की पूर्ति बना दी गयी है। मात्र इच्छा की पूर्ति जीवन का ध्येय होने के कारण ही आत्महत्याएं भी बढ़ रही हैं।।
इस कामना की अग्नि में घी डालने का काम अध्यात्म व धर्म विहीन शिक्षा पद्धति और केवल भौतिकता तक सीमित शिक्षा (वास्तव में भौतिकता भी ठीक से नहीं) मुख्य भूमिका निभा रही है, इसमें कोई संशय नहीं है।।

गीता में अर्जुन के यह पूछने पर कि मनुष्य जो पाप में लगता है उसका कारण क्या है, भगवान ने कामना को ही मुख्य कहा।।
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।। (गीता ३.३६)

अर्थ : अर्जुन बोले – हे वार्ष्णेय ! फिर यह मनुष्य न चाहता हुआ भी जबर्दस्ती लगाये हुएकी तरह किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है?

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।। गीता (३.३७)

अर्थ: रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम, यह क्रोध जो है वह बहुत खानेवाला अर्थात् भोगोंसे कभी न अधानेवाला और महापापी है; इसे संसारमें (तू) शत्रु जान।।

धुमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।। ( गीता ३.३८)

अर्थ: जैसे अग्नि धुएँ से, दर्पण धूल से और गर्भ ज़ेर से ढ़का रहता हैं, वैसे ही ज्ञान उस काम से ढका रहता है।।

ज्ञान काम से ढका रहने के कारण सत्य-असत्य और सही गलत की समझ मनुष्य में नहीं हो पाती है, और उस ज्ञान की स्पष्टता तभी होती है जब मनुष्य अपना उद्देश्य कामना की पूर्ति न माने, इच्छापूर्ति मात्र से ऊपर उठे, अर्थात कामना से निष्काम होने की तरफ चलने का प्रयत्न करे।।

किसी विद्वान का कथन है कि प्रतिकूलता मनुष्य का सबसे बड़ा शिक्षक है, प्रतिकूलता मनुष्य की छिपी हुई क्षमता को जगाने के लिए आती है, उसे उसकी कमी से अवगत कराने आती है, पूर्वकृत पाप कर्मों का फल भुगताकर शुद्ध करने आती है, मनुष्य को उसके भविष्य के लिए और अधिक मजबूती प्रदान करने के लिए आती है, प्रतिकूलता को ईश्वर का सुंदर विधान समझना चाहिए, इससे अंतरात्मा की शुद्धि ही होती है।।

आज मनुष्य की बुद्धि में भौतिक सुख के अधिक से अधिक साधन इकट्ठा करने पर जोर दिया जा रहा है, कामना पूर्ति को ही जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य बनाया जा रहा है। मकान मजबूती से तभी टिकता है जब उसका आधार, उसकी नींव मजबूत हो, भौतिकता का तो खुद ही कोई आधार नहीं है पता नहीं कब नष्ट हो जाये, इसीलिए स्वयं और बच्चों में निष्काम भावनाओं के संस्कार डालकर जीवन की नींव को मजबूत करें, इससे लोक और परलोक दोनों बनेंगे।।

निष्कामता से प्रेरित मनुष्य को ही वास्तविक शांति मिल सकती है और मनुष्य पापमय कर्म से ऊपर उठकर सभी के लिए सर्वोत्तम और जगत हित के कार्य कर सकता है।।

भौतिक विज्ञान चाहे जितना उन्नति कर ले,चाहे जितना सुख सुविधा के साधन ढूंढ ले पर मन की शांति,संतुष्टि और समस्याओं का समाधान सिर्फ और सिर्फ अध्यात्मिक विज्ञान ( निष्कामता ) से ही सम्भव है।।

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