ज्ञानसंजीवनी

गीता तात्पर्य -श्रीमद्भगवदगीता विश्व के सबसे बडे़ महाकाव्य महाभारत के “भीष्मपर्व” का एक अंश है। भगवद्गीता भगवान कृष्ण द्वारा कुरूक्षेत्र युध्द में दिया गया दिव्य उपदेश है जब अर्जुन मोहग्रस्त होकर किंकर्तव्यविमूढ़ कि स्थिति में पहुच चुके थे। इस प्रकार अर्जुन को केन्द्र में रखकर दिया गया यह भगवान् का गीता अमृत रूपी वाणी से समन्वित उपदेश है। इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता भगवान की साक्षात् दिव्य वाणी होने से इसके श्लोकों को मंत्र का दर्जा प्राप्त है।

“सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:।
पार्थोवत्स: सुधीभोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्”।।

अर्थात् यह गोपालनन्दन श्री कृष्ण के द्वारा अर्जुन को बछड़ा बनाकर उपनिषद् रूपी गायों से दुहा गया अमृतमय दूध है जिसे सुधीजन पीते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता संसार के अति महत्वपूर्ण ग्रन्थों में अपना विशेष ज्ञान रखती है। श्रीकृष्ण भगवान स्वयं इसके वक्ता हैं और उनका कहना है “गीता मे हृदयं पार्थं” अर्थात् हे अर्जुन गीता मेरा हृदय है इस प्रकार गीता को ‘सर्वशास्त्रमयी’ कहा गया है क्योंकि सभी शास्त्रों में मंथन करके अमृतमयी गीता का उदय या प्रकटीकरण हुआ है। इसका दिव्य संदेश किसी जाति – विशेष सम्प्रदाय के लिये नही है बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति के लिये है जो सर्वभौम है।

विभिन्न मत मतान्तरों को यदि ध्यान न दिया जाय तो अधिकांश विद्वान् इस मत पर सहमत हैं कि गीता में 18अध्याय है और 700 श्लोक है इसके संकलनकर्ता स्वयं वेदव्यास जी हैं वेद भगवान् के नि:श्वास हैं किन्तु गीता भगवान् की वाणी है नि:श्वास तो स्ववभाविक होते हैं, इसमें कोई अतिरिक्त श्रम नहीं करना पड़ता है। किन्तु गीता को भगवान् ने योग में स्थित होकर अपने श्री मुख से कही है अतेव गीता को वेदों की अपेक्षा भी श्रेष्ठ कहा गया है। प्रस्थानत्रयी के अन्तर्गत ब्रह्मसूत्र, गीता और उपनिषद् आते हैं । इसमें गीता का महत्व और अधिक बढ़ जाता है कि गीता में ब्रह्मसूत्र और उपनिषद् दोनों का ही तात्पर्य आ जाता है गीता एक परम रहस्यमय ग्रन्थ है इसमें सम्पूर्ण वेदों का सारसंग्रह किया गया है। स्वयं भगवान वेदव्यास ने कहा है कि –

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै:शास्त्रसंग्रहै:।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपदमाद्विनि:सृता।।(महा0 भीश्म0 43/1)

अर्थात् गीता का ही भली प्रकार से श्रवण,मनन, कीर्तन, पठन- पाठन, और धारण करना चाहिये, अन्य शास्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि वह स्वयं पद्मनाभ भगवान के साक्षात् मुख-कमल से निकली हुई है। भगवान् ने स्वयं गीता के विषय में कही है कि -मैं गीता के आश्रम में रहता हूँ, गीता मेरा श्रेष्ठ घर है। गीता के ज्ञान का सहारा लेकर ही मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ।

गीतााश्रयेSहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम।
गीताज्ञानमुपश्रित्य त्रील्लोकान्पालयाम्यहम।।(वराहपुराण)

गीता की महिमा बतलाते हुये भगवान् कहते हैं कि गीता गंगा से भी बढ़कर है शास्त्रों में गंगा स्नान का फल मुक्ति बताया गया है परन्तु गंगा में स्नान करने वाला स्वयं मुक्त तो हो सकता है किन्तु दूसरे को तारने की सामर्थ्य नही रखता है किन्तु गीता रूपी गंगा में गोता लगाने वाला स्वयं मुक्त तो होता ही है और दूसरे को तारने में भी सामर्थ्यवान् होता है एक तरफ से उद्गम देखा जाय तो गंगा भगवान् के श्री चरणों से निकली हुई है गंगा में जाकर जो स्नान करेगा गंगा उसी को मुक्त करती है किन्तु गीता धर धर में जाकर उन्हें मुक्ति का मार्ग दिखलाती है इन्ही सब कारणों से गीता को गंगा से भी बढ़कर भगवान् बतलाते हैं-

गंगा गीता च सावित्री सीता सत्या पतिव्रता।
ब्रह्मावलिबर्रविद्या त्रिसंध्यया मुक्तिगोहिनी।।

डा॰ आशीष पांडेय

गीता का महत्व बतलाते हुये कहा गया है कि गीता अर्धमात्रा, चिदानन्दस्वरूपिणी, भवरोगनाषिनी, भ्रान्ति का नाश करने वाली त्रिवेदमयी, परमानन्दस्वरूपिणी तत्वार्थ ज्ञान देने वाली है जो मनुष्य प्रतिदिन स्थिर चित्त से इन नामों का जप करता है , उसे इस लोक में नित्य ज्ञान की सिध्दि तथा जीवन का अन्त होने पर परमपद की प्राप्ति होती है सम्पूर्ण गीता का पाठ करनें में असमर्थ होने पर अध्यारंश का पाठ करना चाहिये उसे गोदान का पुण्य फल मिलता है इसमें सन्देह नही है तृतीयांश का पाठ करने से गंगा स्नान का फल मिलता है जो व्यक्ति गीता के दो अध्यायों का पाठ करता है वह इन्द्रलोक जाता है और वहाँ एक कल्प तक निवास करता है अन्तिम में गीतार्थ का पाठ या श्रवण करने से महापापी भी मुक्तिभागी हो जाता है। आगे गीता की महिमा बतलाते हुए कहा गया है कि-

गीता पुस्तक संयुक्त: प्राणास्त्याक्त्वा प्रयाति य: ।
बैकुण्ठ सम्वाप्नोति विष्णुना सह मोदते ।।

अर्थात जो व्यक्ति गीता की पुस्तक लिए हुए, प्राणत्याग कर देता है वह बैकुण्ठ धाम जाकर विष्णु के साथ आनन्द भोग करता है। इस प्रकार गीतासार ईश्वर साक्षात्कार का दर्शन् है। जिसे भी ईश्वर दर्शन की इच्छा होगी, उसे गीता से बढ़कर कोई ग्रन्थ नहीं मिलेगा-

‘‘गीताभाष्यं पुन: कृत्वा लभते मुक्ति मुत्तमाम’’ ।।(वाराहपुराण)

गीताशास्त्र की एक अप्रतिम विशेषता है कि यह किसी वाद को लेकर नहीं चली है अर्थात् द्वैत, अद्वैत, विशिष्टताद्वैत, विशुद्धाद्वैत, अचिन्त्य भेदाभेद आदि किसी भी वाद को या किसी के सिद्धान्त को लेकर नहीं चली है। गीता का मुख्य उद्धेश्य है कि व्यक्ति किसी भी वाद मत सिद्धान्त को मानने वाला क्यों न हो उसका प्रत्येक परिस्थिति में कल्याण हो जाय। वह किसी भी परिस्थिति परमात्म प्राप्ति से वंचित न रह जाय। क्योंकि मनुष्य योनि ही एक ऐसी योनि है जिसमें जन्म केवल अपने कल्याण के लिए ही हुआ है। गीता की अद्वैतवादी टीकाओं भगवद्गीता को वस्तुत: गीतोपनिषद् के रूप में ही स्वीकार किया है और श्रुति प्रस्थान का स्थान दे दिया गया है। अधिकांश आचार्य मानते है कि गीता में जहां-जहां श्रीभगवानुवाच् है वह श्रुति है, स्मृति प्रस्थान तो वह है ही। पुन: इन दोनों प्रस्थानों से बढ़कर उसी ब्रह्मसूत्र का भी प्रकार्य कर दिया है।

अधिकांश अद्वैतवादी सन्यासी का गीता का ही अध्ययन करते है, जो गृहस्थ अद्वैतवेदान्ती है, वे भी भागवत्पुराण, रामायण, राम चरित मानस, दुर्गासप्तशती आदि ग्रन्थों की अपेक्षा गीता का ही स्वाध्याय करते है। इसलिए कहा जाता है कि गीता ने अद्वैतवेदान्त के प्रचार-प्रसार में जितना योगदान दिया है उतना किसी अन्य ग्रन्थ ने नहीं दिया है। इस प्रकार गीता का माहात्म्य प्रतिपादित करते है। स्वयं भगवान कृष्ण ने कहा है-

‘‘जो कोई मेरे इस गीता रूप आज्ञा का पालन करेगा वह नि:संदेह मुक्त हो जायेगा।’’ (गीता 3/31)

यही नहीं भगवान यह भी कहते है कि जो इसका अध्ययन भी करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञान यज्ञ से पूजित होऊँगा। (गीता 18/70)

जब गीता का अध्ययन मात्र का माहात्म्य है तब जो मनुष्य इसके अनुसार अपना जीवन व्यतीत करता है और इसके आदर्श को जीवन में उतार कर चलता है, तब उसकी बात ही क्या? ऐसे भक्तों के लिए भगवान् कहते है वह मुझे सबसे प्रिय होते है और ऐसे भक्तों के अधीन मैं स्वयं हो जाता हॅूं।

इस प्रकार गीता भगवान का प्रधान रहस्यमय आदेश है। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता के उपदेश का कितना ही अंश श्लोकों में, पद्यों में कहा था और कुछ गद्यों में, पद्यों का अंश ज्यों का त्यों वेद व्यास जी ने रख दिया किन्तु गद्यात्मक भाग को स्वयं श्लोकबद्ध कर लिया और इस सात सौ श्लोक और अठ्ठारह अध्याय वाली ग्रन्थ गीता को महाभारत के अन्दर मिला लिया, जो आज हमें इस अपने विशद् और मनोरम् कलेवर में प्राप्त होती है। इस प्रकार गीता शास्त्र ब्रह्म विद्या है। उसमें ब्रह्म विद्या के साध्य और साधन दोनों का वर्णन प्राप्त होता है जबकि और अन्य ग्रन्थों में या तो साध्य का या साधन का वर्णन होता है। इस दृष्टि से गीता सर्वशास्त्रमयी, सर्वधर्ममयी है। विश्व में गीता जैसा कोई ग्रन्थ नहीं है जिसमें सर्वधर्म का सार संग्रह हो, जिसमें ईश्वर और ईश्वर प्राप्ति दोनों के विधान किये गये है। इस दृष्टि से गीता के व्यवहारिक दर्शन् को भली भांति रेखांकित किया जा सकता है। इसमें कर्तव्य पालन पर बल दिया गया है, वर्णाश्रम व्यवस्था को ईश्वर प्राप्ति का केन्द्र बिन्दु माना गया है, जिससे परार्थवाद या परोपकार की प्रासंगिकता सिद्ध होती है। इस प्रकार गीतासार ईश्वर साक्षात्कार का दर्शन् है।


गीता का दार्शनिक तत्वविवेचन की दृष्टि से महत्व


गीता की ज्ञान मीमांसा में ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता ये तीनों विषय महत्वपूर्ण है क्योंकि यही तीनों कर्म प्रवृत्ति हेतु है और इन तीनों के अभाव में कर्म सम्पन्न नहीं हो सकता है। जब मनुष्य को जीवन मुक्ति की अवस्था प्राप्ति होती है, तब यह त्रिपुटी एक हो जाती है तब मनुष्य में कर्म प्रवृत्ति का उदय नहीं होता है। इस प्रकार गीता का महत्व तत्त्व मीमांसीय दृष्टि से हो या ज्ञान मीमांसीय दृष्टि से या आचार मीमांसा की दृष्टि से देखा जाय तो तीनों ही दृष्टि से गीता का वर्ण्य विषय महत्वपूर्ण हो जाता है। गीता के महत्व के अन्तर्गत निम्नलिखित दार्शनिक तत्व सिद्धान्त मुख्य है उन मुख्य बिन्दुओं पर हम प्रकाश डालेगें- जो इस ईकाई की विषयवस्तु होगी। 1- त्रिविधयोग- एवं 2 निष्कामकर्मयोग। 3- स्थितप्रज्ञ 4-आत्मा 5-ब्रह्म या परमेश्वर 6-जीव 7- वर्ण, धर्म या स्वधर्म 8- दैवासुर-सम्पद 9- मोक्ष.
वास्तविक अर्थ में श्रीमद्भगवदगीता को ‘योगशास्त्र‘ की संज्ञा दी गई है इसके प्रत्येक अध्याय की पुष्पिका में ‘‘ब्रह्म विद्यायां योगशास्त्रे’’ ऐसा कहा गया है। अत: गीता का ‘योग’ सम्बन्धी विचार बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। ‘योग’ शब्द वस्तुत: सम्बन्धवाचक है अर्थात् आत्मा का परमात्मा के साथ समन्वित सम्बन्ध को जो द्योतित करता है वह ‘योग’ है। ‘योग’ शब्द के अर्थ को तीन रूपों में देख सकते है-
‘युजिर् योगे’ धातु से बना ‘योग’ शब्द जिसका अर्थ है समरूप परमात्मा के साथ नित्य सम्बन्ध जैसे-’समत्वंयोगउच्यते’ (2/48) आदि। यही अर्थ गीता में मुख्यत: से आया है।
‘‘युज् समाधौ’’ धातु से योग शब्द निष्पन्न है जिसका अर्थ है- समाधि में स्थित चित्त की स्थिरिता ।
‘युज् संयमने’- धातु से बना ‘योग’ शब्द जिसका अर्थ है संयमन, सामर्थ्य और प्रभाव जैसे-’पश्य मे योगमैष्वरम् (9/5) आदि। गीता में जहां भी योग शब्द आया है उसमें तीनों अर्थों में से एक अर्थ की मुख्यता और शेष दो अर्थों की गौणता है। जैसे ‘युजिरयोगे’ वाले ‘योगशब्द’ में समता (सम्बन्ध) की मुख्यता है परमात्मा आने पर स्थिरता और सामर्थ्य भी स्वत: आ जाती है।
पातंजल्ययोग दर्शन् में चित्त वृत्तियों के निरोध को ‘योग’ नाम से कहा गया है- ‘‘योगश्चित्तवृत्ति निरोध:’’ (1/12) और उस योग का परिणाम बताया है- ‘द्रष्टा की स्वरूप में स्थित हो जाना- ‘तदा दृष्टु: स्वरूपेSवस्थानम्’ (1/3) इस प्रकार पातंजल्ययोग दर्शन में जो ‘योग’ का परिणाम बतलाया गया है उसी को गीता में ‘योग’ के नाम से अभिहित किया गया है। ‘‘योगशब्दस्य गीतायामर्थस्तु त्रिविधो मत:। सामर्थये चैव सम्बन्धे समाधौ हरिणा स्वयम्।।’’ आत्मा का परमात्मा के साथ नित्य सम्बन्ध स्थापित करने के लिये तीन योग मार्ग बतलाये गये है- जिन्हें 1- कर्मयोग, 2- ज्ञान योग और 3- भक्तियोग से जाना जाता है। इन्हीं तीन योगों की त्रिपुटी गीता है। यद्यपि ‘योग’ की प्राप्ति के लिये भगवान् ने मुख्य रूप दो निष्ठाएं बतायी गयी हैं- कर्मयोग और सांख्य योग। जैसा कि गीता में वर्णित है-

लोकेSस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।। (3/3)

अर्थात् असत् से सम्बन्ध विच्छेद करना ही कर्मयोग है और सत् के साथ योग होना सांख्य योग है परन्तु ये दोनों निष्ठाएं साधकों की अपनी है- भक्तियोग साधक की अपनी निष्ठा नहीं है अपितु यह भगवद् निष्ठा है।

जो भक्त भगवान के लिए स्वयं को समर्पित कर दे उसे ‘भक्ति योग’ कहते है। इन तीनों योगों को सिद्ध करने के लिये या मनुष्य को अपना उद्धार करने के लिए ईश्वर से तीन शक्तियों प्राप्त है- 1- कर्म करने की शक्ति (कर्म),2- जानने की शक्ति (ज्ञान),3- मानने की शिक्ता (विश्वास) करने की शक्ति नि:स्वार्थ भाव से संसार की सेवा करने के लिए है जो ‘कर्म योग’ है। जानने की शक्ति से तात्पर्य है अपने स्वरूप को वास्तविक रूप में जानना और मानने की शक्ति से तात्पर्य है अपने को भगवान् के लिए समर्पित कर देना भक्ति योग है। ये तीनों ही मार्ग परमात्मा प्राप्ति के स्वतंत्र साधन है और अन्य साधन इन तीनों के ही अन्तर्गत आ जाते है। इन तीनों का पृथक-पृथक वर्णन तो अन्य शास्त्रों में भी प्राप्त होता है किन्तु तीनों के समन्वय का गौरव गीता को ही प्राप्त है। इन तीनों योगों से कर्मों (पापों) का नाश सम्भव है।

~डा॰  आशीष पाण्डेय

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