।। प्रातः कर दर्शनम्।।
प्राचीन वैदिक संस्कृति में वर्णित तथा आधुनिक विज्ञान के द्वारा मानित प्रभार कर दर्शन का व्यक्ति के जीवन में बड़ा महत्व है। इसलिए आँखों के खुलते ही दोनों हाथोंकी हथेलियों को देखते हुवे निम्नलिखित श्लोक का श्रद्धापूर्वक पाठ करें।
कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती।
करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते कर दर्शनम्।।
।। भूमि वंदना ।।
समुद्र-वसने देवि, पर्वत-स्तन-मंडिते।
विष्णु-पत्नि नमस्तुभ्यं, पाद-स्पर्शं क्षमस्व मे॥
अर्थात- इस मंत्र का अर्थ है, समुद्र रुपी वस्त्र धारण करने वाली पर्वत रुपी स्तनों से मंडित भगवान विष्णु की पत्नी हे माता पृथ्वी! मुझे पाद स्पर्श के लिए क्षमा करें।
हरेक प्राणी को सुबह उठते ही भूमि वंदना करना चाहिए। क्योंकि हमारे शास्त्रों में यह बताया गया है कि प्राणी की तीन माताएं होती हैं। प्रथम माता जिसने अपनी कोख में जन्म दिया, दूसरी गो माता और तीसरी धरती माता जिसकी गोद में हम पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं, खेलते हैं,जोतते है,खोदते हैं, मल-मूत्र विसर्जन करते हैं। फिर भी धरती माता हमें तरह तहर के अन्न,शाक सब्जियां आदि देती हैं जिससे हमरा सर्वांगीण पोषण होता है। माता शब्द इतना स्नेहिल और ममतापूर्ण है कि यह शब्द दिमाग व मुंह में आते ही हमारा सिर श्रद्धा से स्वयं झुक जाता है। हम सुबह उठते ही अपना पैर इस धरती माता की गोद में रखते हैं। इसलिए प्राणी को सुबह उठकर धरती माता का वंदना जरूर करना चाहिए।-जैसे कि वेदों ने किया है।
ये ते पन्थानो बहवो जनायना रथस्य वर्तमानस्य यातवे।
यैः सञ्चरन्त्युभये भद्र पापास्तं पन्थानं जयमान मित्र मतस्करम यच्छिवं तेन नो मृड।।
।। उष:पान (जल पान) ।।
क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंचतत्व यह अधम शरीरा।।
।।अथर्ववेद आपः सूक्त।।
हिरण्यवर्णाःशुचयःपावका यासु जातःसविता यास्वग्निः।
या अग्निगर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः सं स्योना भवन्तु।।
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अव पश्यञ्जनानाम् ।
या अग्निगर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः सं स्योना भवन्तु।।
यासां देवा दिवि कृण्वन्ति भक्षं या अन्तरिक्षे बहुधा भवन्ति ।
या अग्निगर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः सं स्योना भवन्तु।।
शिवेन मा चक्षुषा पश्यतापः शिवया तन्वोपस्पृशत त्वचंमें ।
घृतश्चुतः शुचयो याः पावकस्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ।।
राजा वरुण औऱ सोम जिस जल में निवास करते हैं। जिसमें विद्यामान सभी देव§गण अन्न से आनन्दित होते हैं, विश्व व्यवस्थापक अग्निदेव जिसमें निवास करते हैं, वे दिव्य जलदेव हमारी रक्षा करें। इस प्रकार प्रार्थना के उपरांत ताम्रपत्र में रखा हुआ जल प्रात: काल सूर्योदय के पूर्व मल-मूत्र के त्याग करने से पहले पौन लीटर से सवा लीटर तक पीना चाहिए। इससे हमारे शरीर में पाचनतंत्र द्वारा अंतर्क्रिया के पश्चात एकत्रित हुवे विषैले पदार्थ बाहर निकल जाते है। इसे उष:पान भी कहा जाता है। इससे त्रिदोष(कफ,वात, पित्त) का नाश होता है तथा व्यक्ति बलशाली एवं दीर्घायु हो जाता है। कबज वाले व्यक्ति को ऊष्म जल पीने से कब्जियत का नाश हो जाता है, दस्त साफ होता है और पेट के विकार दूर होते हैं। बल, बुद्धि और पुरुषार्थ बढ़ता है। जब आप सोकर उठते हैं तब आपका दिमाग शांत अवस्था में रहता हैं, उस समय घूँट-घूँट कर जल पीने से अप्रत्याशित लाभ मिलता है , प्राण वायु का संचार तरोताजा रहता है तथा सकारात्मक ऊर्जा सक्रिय होता है। आज के अलसीपन संसार में लोगों को सबकुछ हाथ में हीं चाहिए होता है। लोग हर निजी कार्य में भी दूसरों पर ही निर्भर रहते है इतनाकी कि अपना चद्दर भी समेटने के लिए नौकर अथवा अन्य सदस्यों के सहारे बैठे रहते हैं। आलास इतना कि सुबह नींद खुल भी जाये तो बिस्तर तबतक नहीं छोड़ते जबतक उनके अधखुले नींद में हीं Bed Tea नहीं मिल जाता.यह लक्षण इतना खराब है कि लोग उठते ही बिस्तर पर कई बिमारियों को आमंत्रित कर देते हैं। ज्ञान संजीवनी इस लक्षण पर बहुत ही योग्य सुझाव देता है कि सर्वप्रथम् आपको प्रातः काल Bed Tea को त्यागकर ताम्र पात्र में रात भर का रखा हुआ जलपान अवश्य करना चाहिए औरों को भी प्रेरित करना चाहिए , आयुर्वेद में प्रातःकालीन निरन्न जलपान को व्यवस्थापन कहा गया है। व्यस्थापन अर्थात् जो वार्धक्य को रोके, जो युवावस्था को स्थिर रखकर शरीर को निरोग रखता हुआ आयु को अकाल नष्ट होने से बचाये। परन्तु यह प्रातःकालीन निरन्न जलपान की मात्रा उतनी ही होनी चाहिए जितनी एक व्यक्ति विशेष के लिए आवश्यक हो, जिससे कि शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता कि वृद्धि हो तथा आरोग्यता विकास हो।
अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदः।
भोजने चामृतं वारि भोजनान्ते विषप्रदः।।
अत्यम्बुपानान्न विपच्यतेSन्नं निरम्बुपानाच्च स एव दोषः।
तस्मान्नरो वह्निविवर्धनाय मुहुर्मुहुर्वारि पिबेदभूरि।।