ज्ञानसंजीवनी

हमारे सनातन वैदिक धर्म में प्रार्थना का बड़ा महत्व है। परमात्मा की उपासना, आराधना करने के पश्चात् हम लोग प्रार्थना अवश्य करते हैं। करनी भी चाहिए।
इन प्रार्थनाओं में लगभग सभी लोककल्याण की भावनाओं से भरी हुईं हैं। उनमें सम्पूर्ण जगत के कल्याण की कामना की गई है। ये सभी प्रार्थनाएँ सामूहिक रूप से की जाती हैं। इसलिए इनकी संरचना ही बहुवचन में की गई है।

सामूहिक प्रार्थना में एक विशिष्ट समय पर (ब्रह्म मुहूर्त) एक विशिष्ट स्वर में विशिष्ट शब्दों के विशिष्ट संयोजन से युक्त ध्वनि अतिशय प्रभावकारी होती है। विज्ञान के अध्येता और विद्यार्थी यह तथ्य भलीभाँति जानते हैं कि समवेत ध्वनि कितनी प्रभावकारी होती है।

इस लेख में हम कुछ प्रार्थनाओं का उल्लेख करके यह तथ्य पाठकों, मित्रों के समक्ष रखना चाहते हैं।

स्वस्तिवाचन
ॐ भद्रं कर्णेभि: श्रृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षिभिर्यजत्रा:।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाँसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायु:।।
इस मन्त्र में प्रयुक्त धातुओं के रूप बहुवचन में प्रयुक्त हैं। इसलिए यह बहुत लोगों द्वारा कही अथवा गायी जाती है। इसका सामान्य भावार्थ इस प्रकार है।
हम लोग अपने कानों से अच्छा सुनें और आँखों से अच्छा देखें। हम अपने दृढ़ और शक्तिशाली अंगों से परमात्मा की स्तुति करते हुए अपनी जो भी आयु है, उसे परमात्मा के कार्य में प्रयुक्त करें।
इस मन्त्र में जिन दो इन्द्रियों से अच्छा ग्रहण करने की बात कही गई है वे ग्रहणशील इन्द्रियाँ आँख और कान हैं। इनके पास यह विकल्प नहीं है कि वे क्या ग्रहण करें क्या नहीं। वे तो वही सुनेगीं और देखेंगीं जो संसार में उपस्थित होगा। तब अच्छा देखने का क्या अर्थ है?

वेद का यह मन्त्र गान्धी जी के आँख कान और मुँह बन्द करने का उपदेश करने वाले तीन बन्दरों जैसा मन्त्र नहीं है। मुँह से अच्छा अथवा बुरा बोलने का विकल्प हमारे पास है। क्योंकि यह कर्मेन्द्रिय है। वह कर्म को स्वेच्छानुसार करने के लिए स्वतन्त्र है। वह अच्छा भी बोल सकती है और बुरा भी।

बोलना ग्रहणशीलता नहीं, क्रियाशीलता है। हम देवसन्तान (देवा:) हैं तो अच्छा ही बोलेंगे। इसलिए इस वेदमन्त्र में मुँह से अच्छा बोलने की चर्चा ही नहीं।
आँख और कान से अच्छा देखने और सुनने का तात्पर्य यह है कि हमारे सामने बुरा शब्द अथवा बुरा दृश्य हम होने ही नहीं देंगे। यदि कोई ऐसे शब्द अथवा दृश्य उत्पन्न करने का दुस्साहस करेगा तो हमारे दृढ़ अंग उसी को रोकने के लिए हैं। हम अपनी सम्पूर्ण आयु इसी भले कार्य में व्यय कर देंगे।

और दूसरीं वैदिक प्रार्थनाओं को भी देखिए। वे सभी बहुवचन में कहीं गईं हैं।

ॐ संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् l देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।
इस मन्त्र में परमात्मा हम सबको सामूहिक रूप से उपदेश करते हैं कि तुम सब एक साथ चलो। एक साथ बोलो। तुम्हारे मन एक हो l प्राचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा। इसी कारण वे सदैव वन्दनीय हैं।

स्वस्तिवाचन
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा:।
स्वस्ति नस्तार्क्षयो अरिष्टनेमि: स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।
सब ओर फैले हुए सुयश वाले इन्द्र हम सबके लिए (न:) कल्याणकारी हों। सम्पूर्ण विश्व का ज्ञान रखने वाले पूषा हम सबके लिए कल्याणकारी हों। सब प्रकार के अरिष्टों को नष्ट करने वाले महान् तार्क्ष्य हम सबके लिए कल्याणकारी हों। सबसे महान् और बुद्धि के स्वामी परमात्मा हम सबके लिए कल्याणकारी हों।

गायत्री मन्त्र
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
उस प्राणस्वरूप, दु:ख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, वर्ण करने योग्य, शुद्ध देव स्वरूप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह ईश्वर हमारी (न:) बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करे।

महामृत्युंजय मंत्र
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।
हम सब त्र्यम्बक की उपासना करते हैं जो सुगन्धिकारक है (श्रेष्ठ गति को धारण करता है) और पुष्टि कारक है। वह उर्वारुक के समान हमको मृत्यु के बन्धन से मुक्त कर बचा ले। (यह अर्थ अति संक्षेप में है।)

शान्ति पाठ
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति: वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि॥
यतो यत: समीहसे ततो नोऽभयं कुरु।
शन्न: कुरु प्रजाभ्योऽभयं न: पशुभ्य:।।
द्युलोक में शांति हो, अंतरिक्ष में शांति हो, पृथ्वी पर शांति हों, जल में शांति हो, औषध में शांति हो, वनस्पतियों में शांति हो, विश्व में शांति हो, सभी देवतागणों में शांति हो, ब्रह्म में शांति हो, सब में शांति हो, चारों और शांति हो, शांति हो, शांति हो, शांति हो।

हे परमेश्वर! आप जिस-जिस देश से जगत् के रचना और पालन के अर्थ चेष्टा करते हैं, उस-उस देश से हमको भय से रहित करिए, अर्थात् किसी देश (स्थान) से हमको किञ्चित् भी भय न हो, वैसे ही सब दिशाओं में जो आपकी प्रजा और पशु हैं, उनसे भी हमको भयरहित करें तथा हमसे उनको सुख हो, और उनको भी हम से भय न हो तथा आपकी प्रजा में जो मनुष्य और पशुआदि हैं, उन सबसे जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पदार्थ हैं, उनको आपके अनुग्रह से हमलोग शीघ्र प्राप्त हों, जिससे मनुष्य जन्म के धर्मादि जो फल हैं, वे सुख से सिद्ध हों।।

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