ज्ञानसंजीवनी

अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय:।। – भगवद्गीता ६/१

श्लोक के दूसरे पद में कहा गया है कि कार्यं कर्म करोति य:। अर्थात जो करने योग्य कर्मों को करता है। कार्य का अर्थ है करने योग्य। किसी भी कर्म को करते समय मनुष्य उसे करणीय या अकरणीय समझ कर ही करने या न करने का निर्णय करता है। जैसे मार्ग पर चलते समय सामने से भारी वाहन आता देखकर मार्ग से हट जाना कार्य है और उसी के सामने खड़े रहना अकार्य है।

कार्य और अकार्य कर्मों का निर्णय करना बहुत सरल नहीं होता है। इसी निर्णय को करते समय त्रुटि होने पर लाभ-हानि, जय-पराजय और मोक्ष अथवा बन्धन तक होता है। जो व्यक्ति कार्य और अकार्य कर्मों में से कार्य कर्म का ग्रहण कर लेता है, वह बुद्धिमान है।

जिन लोगों की बुद्धि सात्विक गुण से सम्पन्न होती है वे कार्य और अकार्य में सटीक पहचान कर कार्य में सफल होते हैं। वे कार्य में प्रवृत्त हो जाते हैं और अकार्य से निवृत्त। गीता में भगवान इस बात को इस प्रकार कहते हैं। देखिए-

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धि: सा पार्थ सात्त्विकी।।
भगवद्गीता १८/३०

सात्त्विकी बुद्धि यह समझ लेती है क्या कार्य है और क्या अकार्य। कहाँ भय है और कहाँ अभय। किस कर्म में बन्धन है और किसमें मोक्ष। तदनुसार वह अपनी प्रवृत्ति या निवृत्ति निर्धारित कर जीवात्मा को चलने हेतु प्रेरित करती है।

प्रवृत्ति और निवृत्ति को समझने के लिए कुछ अंशों में रुचि और अरुचि भी समझा जा सकता है। परन्तु जो बुद्धि राजसी स्वभाव वाली है वह ऐसा नहीं समझ पाती। देखिए –

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी।।
भगवद्गीता १८/३१

जिस बुद्धि के द्वारा धर्म- अधर्म, कार्य-अकार्य को ठीक ठीक नहीं जाना जाता वह बुद्धि राजसी है। ऐसी बुद्धि इन द्वन्द्वों को यथावत् नहीं जान पाती। इसलिए वह धर्म और कार्य में निवृत्ति भी करने लगती है तथा अधर्म और अकार्य में प्रवृत्ति करने लगती है।

इसलिए हमें श्लोक ६/१ को पढ़ते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि बुद्धि का निर्मल और सात्त्विक होना आवश्यक है।

आगे भगवान कहते हैं कि जो कर्मफल के प्रति अनाश्रित होकर केवल कार्य कर्म को करता है वह संन्यासी है। इतना ही नहीं, वही योगी भी है। वास्तव में तो भगवान संन्यास और योग को एक सा ही मानते हैं। वे इन दोनों के अनुष्ठान करने वाले महात्मा जनों का गन्तव्य स्थल एक ही बताते हैं।

भगवान कृष्ण का यह अनूठा और तर्कसंगत विवेचन भी देख लीजिए।

संन्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।
भगवद्गीता ५/२

वैसे तो संन्यास और कर्मयोग दोनों ही नि:श्रेयस (परम कल्याण) करने वाले हैं। तो भी कर्मसंन्यास की तुलना में कर्मयोग की विशेषता तो अलग ही है।

आगे वे कहते हैं कि संन्यास और योग को पृथक् मानने वाले तो बालबुद्धि के (नासमझ) लोग हैं।

सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:।
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।
भगवद्गीता ५/४

सांख्य और योग अलग अलग हैं यह बात बच्चे कहते हैं पण्डित नहीं। तात्पर्य यह है कि सांख्य और योग को अलग अलग समझने वाले अज्ञानी है। विद्वान लोग ऐसा नहीं समझते। इन दोनों में से किसी भी एक में ठीक प्रकार से स्थित हुआ मनुष्य दोनों ही के फल को पा जाता है। तात्पर्य हुआ कि उनके करने की प्रक्रिया भले ही अलग हो परन्तु अन्त में दोनों का फल एक समान ही है।

और देखिए –

यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं साख्यं च योगी च य: पश्यति स पश्यति।।
भगवद्गीता ५/५

सांख्य के द्वारा जिस स्थान को मनुष्य पा जाता है उसी स्थान को योग से भी पा जाता है। इसलिए जो सांख्य और योग को एक समझता है वही समझता है अन्य सब नासमझ ही हैं।

श्लोक के अन्तिम पद में भगवान एक निषेधात्मक बात कह देते हैं। वह इसलिए कि तत्कालीन समाज में जो मान्यता चल रही थी उसका निषेध भी वे करना चाहते हैं। क्या मान्यता चल रही थी ? अग्नि को स्पर्श न करने वाला संन्यासी है। सम्पूर्ण कर्मों को त्याग कर अक्रिय होने वाला योगी है। ये मान्यताएँ चल रहीं थीं। पद है –

न निरग्नि: न च अक्रिय:।

मानों वे कह रहे हैं कि अर्जुन! जो तुम और अन्य लोग यह समझते हैं कि निरग्नि रहने से संन्यासी और अक्रिय रहने से योगी हो जाते हैं, तो ऐसा नहीं है।

केवल अग्नि का परित्याग करने मात्र से कोई संन्यासी नहीं हो जाता। उसे भी कार्य कर्म करने पड़ेंगे। इसी प्रकार केवल अक्रिय रहने से कोई यह समझ लें कि वह योगी है, तो यह बात भी नहीं है। उसे भी कार्य कर्म करने ही पड़ेंगे।

पाठक तो जानते ही होंगे कि संन्यासी कभी अग्नि का सेवन नहीं करता। वह अपने लिए भोजन नहीं पकाता। वह ठंड से बचने के लिए आग जलाकर उसमें देह नहीं तपाता। (ये धूनी रमाकर बैठने वाले चिलमधारी, संन्यासी नहीं कहलाते।) इसलिए संन्यासी को निरग्नि कहा जाता है। परन्तु यह तो उसका प्रतीकात्मक लक्षण है। उसके अन्य लक्षण तो गीता, उपनिषदों और मनुस्मृति में वर्णित हैं। यहाँ निरग्नि का तात्पर्य भी समझना आवश्यक है।

अग्नि ही समस्त जगत को रूपाकार करता है। यह जगत को क्रियाशील रखने का प्रधान हेतु है। चराचर जगत में जो भी क्रियाशीलता देखी जाती है वह सब अग्नि के कारण है। हमारे शरीर को भी सचेष्ट और क्रियाशील बनाए रखने में यह अग्नि ही कारण है। संसार में हम अग्नि के कारण ही विविध चेष्टाएँ कर पाते हैं।
उन चेष्टाओं के फलस्वरूप प्राप्त विविध फलों का उपभोग अपने हित के लिए न करना, अग्नि का त्याग करना कहलाता है। ऐसा होना ही निरग्नि होना है। तात्पर्य यह है कि संन्यासी अपने समस्त कर्मों और चेष्टाओं को यज्ञार्थ (लोक कल्याणार्थ) उपयोग करता है। स्वयं के लिए नहीं। संन्यासी द्वारा अन्य सभी सांसारिक पदार्थों का त्याग, कोई त्याग नहीं है। इन्द्रियों के विषयों का त्याग भी उतना महत्वपूर्ण नहीं।

त्याग उस वस्तु या पदार्थ का हो सकता है जिसका स्वामित्व हमारे पास हो। हमारे जन्म के समय कोई पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति या विषय हमारा नहीं था। यह तो हम जन्म के पश्चात जीवन में पाते या ग्रहण करते हैं और मरने के पूर्व अवश होकर छोड़ना पड़ते है। इससे सिद्ध होता है कि ये सभी पदार्थ हमारे नहीं हैं। जब हमारे हैं ही नहीं तो इनका त्याग कैसे हो सकता है? लोग व्यर्थ ही बोलते हैं कि मैंने अमुक वस्तु या व्यसन का त्याग कर दिया। कोई घर-बार, पत्नी बच्चों का त्याग कर स्वयं को त्यागी घोषित करते हैं तो कोई पद, प्रतिष्ठा और ऐश्वर्य का त्याग करके त्यागी बने फिरते हैं। कुछ लोग कर्मों का ही त्याग कर देते हैं।

भगवान तो कहते हैं कि यह सब व्यर्थ की बातें हैं। देखिए –

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषत:।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।।
भगवद्गीता १८/१२

कोई भी देहधारी कर्मों को सम्पूर्णता से तो त्याग ही नहीं सकता। इसलिए जो कर्मफल का त्यागी है, वही त्यागी कहा जाता है।

यह कर्म ही है जो हम करते हैं। कर्म करना हमारे अधिकार में है और यह हमारी विवशता भी है। इस कर्म के फल को भोगने के हम ही अधिकारी हैं। हमारे सिवाय कोई नहीं। कर्मफल के उपभोगकर्त्ता हम हैं। मैं त्याड भी इसी का हो सकता है।

संसार में आरम्भ केवल कर्म का ही होता है। अन्य किसी भी वस्तु, पदार्थ या विकार का आरंभ होता ही नहीं। जिसे हम आरम्भ समझते हैं वह तो वास्तव किसी अन्य स्थिति का अन्त होता है।

जैसे जब दिन होता है तो हम सूर्योदय होने पर दिन का आरम्भ कहते हैं परन्तु दिन के पहले रात थी और उस रात के पहले दिन था। तब आज दिन का आरम्भ कैसे कहा जा सकता है। यह कर्म तो न जाने कब से चला आ रहा है। संसार बना तो वह भी इसका आरंभ नहीं क्योंकि इसके पहले प्रलय था और उस प्रलय के पहले संसार था। अतः इन सबका आरम्भ किसी स्थिति में सिद्ध नहीं होता।

कर्म की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। इसका सुनिश्चित आरंभ होता है। किसी भी कर्म के पहले कुछ नहीं था। इसीलिए कर्म का एक नाम आरम्भ भी है।

इस समस्त विवेचन से हम यह कहना चाहते हैं कि संन्यासी को कार्य कर्म करना आवश्यक है। यदि वह अपने कर्मफल को लोक हिताय छोड़ दे तो वह निरग्नि है।

इसी प्रकार योगीको भी केवल अक्रिय रहने से योगी नहीं कहा जा सकता। उसे भी कार्य कर्म करने ही पड़ेंगे। वह अपने कर्मफल का त्याग का त्याग, इस निस्पृह भाव से करे कि वह अपने को कर्त्ता ही न समझे। तो वह कर्म को करते हुए भी अक्रिय हो सकता है। कर्म का सम्पूर्णता से त्याग तो कोई भी नहीं कर सकता, योगी भी नहीं।

संन्यासी के कर्मफलत्याग और योगी के कर्मफलत्याग में एक बड़ा अन्तर है। जहाँ संन्यासी के लिए यह आवश्यक है कि वह यज्ञार्थ कर्म करे। कर्मफल को अपने हित के लिए न रखे। वहीं योगी के लिए कर्मफल यज्ञार्थ छोड़ने की नहीं केवल कर्त्तापन छोड़ने की बात है। कर्मफल जिस किसी को भी मिले। योगी तो केवल अपने को अकर्त्ता समझता रहे। इस प्रकार योगी, गृहस्थ भी हो सकता है और संन्यासी भी।

यही कारण है भगवान संन्यास और योग को एक ही समझने का सुझाव देते हैं। जो ऐसा समझता है वही सही समझता है। वही पण्डित है।

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