ज्ञानसंजीवनी

भगवद्गीता का बारहवाँ अध्याय भक्तियोग के नाम से प्रसिद्ध है। यह भगवद्गीता के अठारह अध्यायों में से सर्वाधिक लोकप्रिय अध्यायों में परिगणित है। आकार की दृष्टि से भले ही यह सबसे छोटा अध्याय है, क्योंकि इसमें मात्र बीस श्लोक हैं, परन्तु इसकी लोकप्रियता अत्यन्त व्यापक है। लाखों व्यक्तियों ने इसे कण्ठस्थ कर रखा है और वे इसका नित्य पाठ भी करते हैं। इस अध्याय में परमात्मा की भक्ति, भक्ति करने के ढँग और उसके परिणाम तथा भक्तों के लक्षण बताए गए हैं। इसके समान कलेवर का एक और पन्द्रहवाँ अध्याय भी है। उसे पुरुषोत्तम योग के नाम से जाना जाता है।
भगवद्गीता श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है।यह संवाद कुरुक्षेत्र की धर्मभूमि पर हुए महाभारत युद्ध के ठीक पहले उस समय हुआ था जब कौरवों और पाण्डवों की युद्ध के लिए सन्नद्ध खड़ीं थीं। दोनों ओर के सेनापतियों और प्रमुख योद्धाओं ने शंखध्वनि करके युद्ध की घोषणा भी कर दी थी। ऐसी शंखध्वनि सर्वप्रथम भीष्मपितामह ने सिंहनाद से भी उच्चस्वर में ललकार कर की थी। वे कौरव सेना के प्रधान सेनापति थे। तब तो सम्पूर्ण रणभूमि में सन्नाटा छा गया था। पाण्डव सेना का प्रधान सेनापति द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न था।
भीष्म पितामह की उस सिंहगर्जना का उत्तर श्रीकृष्ण और अर्जुन ने अपने दिव्य शंखों को बजाकर दिया था। तत्पश्चात तो सभी पाण्डवों और उनके दल के प्रमुख वीरों ने ऐसी भयानक शंखध्वनि की कि धृतराष्ट्र पुत्रों के हृदय ही विदीर्ण हो गये।
रणभूमि में यह स्थिति देखकर वीरवर अर्जुन ने युद्ध के लिए अपना गाण्डीव धनुष उठाते हुए अपने रथ के सारथी श्रीकृष्ण से कहा कि मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करो ताकि मैं यह तो देख सकूँ कि दुर्बुद्धि दुर्योधन के पक्ष में कौन कौन योद्धा युद्ध करने यहाँ आये हैं।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन का वह रथ दोनों सेनाओं के मध्य में वहाँ खड़ा किया जहाँ भीष्म और द्रोणाचार्य युद्धोन्मुख खड़े थे साथ ही यह भी कहा कि “पार्थ इन एकत्रित हुए कुरुओं को देखो”। अर्जुन की दृष्टि जब अपने पितामह भीष्म, गुरुओं, परिजनों, सगे सम्बन्धियों और मित्रों पर पड़ी और तब यह सोचकर कि मैं इनका वध करने के लिए यह गाण्डीव धनुष उठा रहा हूँ उसका सारा शरीर काँप उठा। गाण्डीव उसके हाथ से सरकने लगा। उसे लगा कि यह युद्ध तो उस निमित्त को ही पलटकर रख देगा जिसके लिए युद्ध लड़ा जा रहा है। अर्जुन का विचार था कि जिस राज्य, भोग और सुख की प्राप्ति, जिनके लिए की जाने वाली है, वे सब तो मरने के लिए यहाँ खड़े हैं। अत: यह युद्ध निरर्थक है। ऐसा सोच कर उसने गाण्डीव धनुष को वहीं रथ पर रखकर श्रीकृष्ण से कह दिया कि “मैं युद्ध नहीं करूँगा”।
तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन की सारी शंकाओं का समाधान करने के लिए एक अत्यन्त अद्भुत और रोमाञ्चकारी व्याख्यान दिया। उस व्याख्यान के मध्य में अर्जुन कुछ प्रश्न भी करता जाता था, भगवान उनके उत्तर देते जाते थे। इस प्रकार वह व्याख्यान एक संवाद के समान बन गया। श्रीकृष्ण और अर्जुन के मध्य हुए उस संवाद को ही भगवद्गीता कहा जाता है।
श्रीकृष्ण के उत्तर जहाँ तर्कसंगत, अकाट्य होते थे वहीं वे शाश्वत सिद्धान्तों पर आधारित और वेदानुकूल भी होते थे। इसलिए इस संवाद को उपनिषद, ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र भी कहा जाता है।

उसी महान् और विस्मयकारी संवाद, भगवद्गीता के बारहवें अध्याय का प्रारम्भ अर्जुन के प्रश्न से होता है। वह प्रश्न इस प्रकार है।
एवं सतत युक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमा:।।
जो इस प्रकार के सततयुक्त भक्त आपकी उपासना करते हैं और जो अक्षर अव्यक्त की उपासना करते हैं उन सबमें कौन योग के उत्तम जानकार हैं।
इतना तो स्पष्ट ही है कि जब अध्याय का प्रारम्भ ही प्रश्न से हो रहा है तो इस प्रश्न का मूल इस अध्याय में नहीं है। अर्जुन ने यह प्रश्न भगवान के व्याख्यान की कुछ बातों को सुनकर ही जिज्ञासावश ही किया होगा।

इस अध्याय के पूर्व ग्यारहवें अध्याय में भगवान ने अपनी योगशक्ति से अर्जुन को दिव्य विराट रूप दिखाया था।

उस विराट रूप को देखने से अर्जुन के मन में अकथनीय और अकल्पनीय परिवर्तन हुआ। उसे परमात्मा का वास्तविक स्वरूप का आभास हुआ था। उस अद्भुत विराट रूप को देखकर ही अर्जुन ने कहा –

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्यय: शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे।।
गीता ११/१८

तुम श्रेष्ठ अक्षर हो। तुम जानने योग्य हो। तुम इस विश्व के श्रेष्ठ आश्रय हो। तुम अव्यय हो। तुम शाश्वत धर्म के रक्षक हो। मेरे विचार से तुम सनातन पुरुष हो।
इसी ग्यारहवें अध्याय में एक अन्य स्थान पर अर्जुन ने यह भी कहा-
त्वमादिदेव:पुरुष: पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप।।
गीता ११/३८
हे प्रभो! तुम आदि देव और पुराण पुरुष हो। तुम इस विश्व के श्रेष्ठ आधार हो। तुम सब कुछ जानते हो और तुम जानने योग्य हो। तुम परम धाम हो। हे अनन्तरूप! तुमसे ही यह सारा संसार व्याप्त है।

इस विराट रूप को दिखाने का आग्रह भगवान से अर्जुन ने ही किया था। इसलिए यह पूरा अध्याय विराट रूप दिखाने और देखने में चला गया। भगवान के चल रहे व्याख्यान प्रवाह में यह एक प्रकार का व्यवधान ही था।

यह भी देखने की बात है कि अर्जुन ने विराट रूप देखने के लिए भगवान से प्रार्थना ही क्यों की थी। इसमें कारण यह था कि भगवान नवमें अध्याय में श्लोक ९/१६ से ९/१९ तक संक्षेप में परमात्मा की विभूतियों का वर्णन कर रहे थे। इसके पूर्व वे सातवें अध्याय के श्लोक ७/८ से ७/११ में भी ऐसा वर्णन कर चुके थे।

दसवें अध्याय के प्रारम्भ में ही वे ‘भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वच:’ कहकर उन्हीं विभूतियों का विस्तार से वर्णन करने लगे। उन विभूतियों का वह वर्णन इतना सजीव था कि अर्जुन उनको अपनी आँखों है देखने का आग्रह करने लगा। इस प्रकार दसवाँ अध्याय विभूतियों के वर्णन में और ग्यारहवाँ अध्याय विराट रूप दिखाने में चला गया। अतः ये दोनों ही अध्याय भगवान के नवमें अध्याय में चल रहे प्रवचन में व्यवधान स्वरूप थे।

इसका प्रमाण इस बात में है कि जो बात भगवान नवमें अध्याय के अन्त (९/३४) में कह रहे थे लगभग वही बात वे ग्यारहवें अध्याय के अन्तिम श्लोक (११/५५) में कह रहे हैं।
देखिए –

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्तवैवमात्मानं मत्परायण:। ९/३४
अर्जुन! तू मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा यजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर। इस प्रकार आत्मा को मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।

अब ग्यारहवें अध्याय का अन्तिम श्लोक भी देख लीजिए।
मत्कर्मकृन्मतपरमो मद्भक्त: सङ्गवर्जित:।
निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्डव।। ११/५५
हे अर्जुन! जो पुरुष केवल मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्तिरहित है और सम्पूर्ण भूतप्राणियों में वैरभाव से रहित है। वह अनन्यभक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है
इससे यह प्रकट होता है कि भगवान ग्यारहवें अध्याय का उपसंहार उस बात से कर रहे हैं जो वे नवमें अध्याय के अन्त में कर रहे थे।
स्पष्ट है कि भगवान नवमें अध्याय में छूटे हुए सूत्र को ही पकड़ रहे हैं। अतएव बारहवाँ अध्याय नवमें अध्याय से सीधा सम्बद्ध है।

इन्हीं दोनों श्लोकों में अर्जुन के प्रश्न १२/१ के बीज सन्निहित हैं।

लगभग सभी भाष्यकार अर्जुन के इस प्रश्न में यह देखते हैं कि अर्जुन पूछ रहा है कि आप सगुण साकार की उपासना करने वाले भक्त जन युक्ततम हैं अथवा निर्गुण निराकार की उपासना करने वाले हैं।

हमारा विनम्र निवेदन है कि इस श्लोक में सगुण साकार अथवा निर्गुण निराकार की कोई बात ही नहीं है। इसके सिवाय यह भी महत्त्वपूर्ण है कि अर्जुन दो प्रकार को उपासकों की तुलना करके प्रश्न पूछ ही नहीं रहा है। वह तो बहुवचन में कह रहा है कि ‘तेषां के योगवित्तमा:’। यदि दो पदार्थो की तुलना होती तो वहाँ तेषां के योगवित्तरा: अथवा इसी के समान अर्थ वाला कोई अन्य पद होता!

हमने अपनी विवेचना में इस ऊहापोह पर विस्तार से चर्चा की है। हमने यह भी बताने का यत्न किया है कि तुलना करने हेतु वे पदार्थ दो नहीं, तीन हैं। तीन पदार्थ होने पर ही योगवित्तम (योगवित् योगवित्तर योगवित्तम) पद के प्रयोग की सार्थकता है।

भगवान अपने उत्तर में यह भी कहते हैं कि अक्षर और अव्यक्त की उपासना करने वाले अधिक क्लेश पाते हैं। देहवत् लोग अव्यक्ता गति को बहुत कठिनाई से प्राप्त कर पाते हैं। इन दोनों तथ्यों की हमने विस्तार से विवेचना करके यह बताने का यत्न किया है कि अधिक क्लेश पाने का क्या आशय है और वह अव्यक्ता गति क्या है।

भगवान आगे यह कहते हैं कि जो लोग अपने सभी कर्मों को मुझमें न्यस्त कर मेरे परायण होकर अनन्य भाव से मेरी उपासना करते हैं। मैं इस भवसागर से उनका उद्धार करने में विलम्ब नहीं करता।

इसके लिए वे एक सरल मार्ग बताते हैं। वह मार्ग है मन को परमात्मा में रख देना और बुद्धि का परमात्मा में निवेश कर देना। वे कहते हैं कि ऐसा करने से मनुष्य परमात्मा में निवास करने लगता है। इसमें सन्देह नहीं है। वे अर्जुन से भी कहते हैं कि तुम ऐसा ही करो।

जब हम किसी भी ध्येय की प्राप्ति हेतु तत्पर होते हैं तो यह आवश्यक नहीं कि सफल हो ही जायें। ऐसा भी हो सकता है कि निराश होकर हम ही प्रयत्न करना छोड़ दें। इसलिए भगवान अर्जुन को आश्वस्त करते हुए कहते हैं कि यदि तुम मन और बुद्धि को परमात्मा को अर्पित नहीं कर सकते हो तो कोई बात नहीं, अभ्यास करो। अभ्यास से भी अन्तत: तुम परमात्मा को पा सकोगे। परन्तु यह अभ्यास करना मन बुद्धि को परमात्मा को अर्पित करने का विकल्प नहीं है। यह उसकी सफलता के लिए किया जाने वाला एक यत्न है।

भगवान अर्जुन के प्रति इतनी सहानुभूति और करुणा प्रकट करते हैं कि कहते हैं यदि तुम अभ्यास भी न कर सको तो अपने कर्मों को मेरे परायण होकर करने लगो। इससे भी सिद्धि को पा जाओगे। आगे वे कहते हैं कि मेरे परायण होकर कर्म भी न कर सको तो सभी कर्मों के फल का त्याग कर दो। यह सर्वकर्मफल त्याग गीता का अद्भुत और आकर्षक विचार है।

हमने अपनी विवेचना में इस सम्पूर्ण प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन करके भगवान के आशय को प्रकट करने का प्रयास किया है।

इसके पश्चात् भगवान उन गुणों का उल्लेख करते हैं जिनको धारण करने वाले भक्त उनको विशेष प्रिय होते हैं। इस अध्याय में ये गुण संख्या में पेंतीस बताये गये हैं। हमने इन सभी गुणों की भी व्याख्या अपनी इस विवेचना में की है।

यह हमने अपनी योग्यतानुसार गीता के बारहवें अध्याय भक्तियोग की विवेचना करने का यत्न किया है। गीता भगवान की वाणी है। भगवान के वचनों को यथावत् समझना और उसकी विवेचना करना अति दुष्कर कार्य है। हम अपनी क्षमता और शक्ति की तुच्छता से भलीभाँति परिचित हैं। यह बात हम इस विवेचना को करने से पहले ही ठीक से समझते थे। किन्तु इसके साथ ही हम परमात्मा की अहैतुकी कृपा से भी परिचित हैं। परमात्मा की कृपा और उनका अवलम्बन लेकर अनेक तुच्छ व्यक्ति महत् कार्य करते देखे गये हैं। उनकी ही परम प्रेरणा से हम इस कार्य में प्रवृत्त हुए हैं।

मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिम्।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दं माधवम्।।
परमात्मा की इसी शक्ति का आश्रय लेकर हमने इस विवेचना को लिखकर विद्वज्जनों के समक्ष प्रस्तुत किया है। इसमें सहस्रों दोष होंगे तो भी सुधी और कृपालु पाठक इसका अवलोकन करने की कृपा अवश्य करेंगे। ऐसा हमें विश्वास है।

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