ज्ञानसंजीवनी

आत्मचिंतन से तात्पर्य है स्वयं की समीक्षा करना अर्थात स्वयं का परीक्षण करना, स्वयं का अध्ययन करना, स्वयं के गुण दोषों का विवेचन स्वयं से स्वयं में करना।
व्यक्तित्व विकास बाहरी चीजों पर जिससे दूसरे अधिक प्रभावित हों उसपर अधिक ध्यान देता है, जबकि आत्मचिंतन आंतरिक और बाह्य दोनों के सुधार के लिए प्रयत्नशील रहने पर ध्यान देने के लिए प्रेरित करता है और उसमें भी मुख्यता आंतरिक सुधार की हो, आत्मशोधन के बिना कोई भी जीव कभी परिष्कृत जीवन प्राप्त नहीं कर सकता है और परिष्कृत जीवन के बिना, जीवन परिपुष्ट जीवन नहीं है।

प्रतिदिन आत्मचिंतन परम आवश्यक है, बिना आत्मचिंतन के मनुष्य जीवन के किसी भी पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता है और न ही आध्यात्मिक साधना के पथ पर, इसीलिए शास्त्र रूपी दर्पण के सामने स्वयं का अवलोकन परम आवश्यक है।

स्वयं के कहे जानेवाले मन, बुद्धि, इंद्रियों का अवलोकन करना और उन्हें नियंत्रित करने के लिए बिना उकताए हुए आवश्यक उपाय करना आत्मचिंतन और आत्मशोधन है।

गुरु, सनातन सत्शास्त्र, संत महात्मा मार्गदर्शक हैं पर अंततोगत्वा स्व प्रयत्न की प्रधानता होने से आत्मचिंतन परम आवश्यक है, लोक में भी यह देखने में आता है कि एक ही गुरु के दो शिष्यों में कोई अधिक विद्वान तो कोई कम विद्वान होता है, यह अपने ही पूर्वकृत कर्मों और स्व अभ्यास का परिणाम है।

भगवान श्री कृष्ण गीता में स्वयं को ही अपने उद्धार और पतन का कारण मानते हुए अर्जुन से कहते हैं :
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन॥
(गीता ६.५)

अर्थ : अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है (और) आप ही अपना शत्रु है।

जिन्हें ऊँचाई पर जाना है, उन्हें सदा ही आत्मचिंतन करते रहना चाहिए । विद्यार्थी हो, नेता हो या अन्य कोई भी वर्ग का व्यक्ति हो या फिर कोई भी आध्यात्मिक साधना करनी हो, सभी के लिए आत्मचिंतन परम आवश्यक है।

योगदर्शन में भी स्वाध्याय ( स्वयं का अध्ययन ) योग के प्रमुख नियमों में है:
शौचसंतोषतप: स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि नियमा:
योगदर्शन 2/32 
भावार्थ : शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान ये पांच नियम है।

आत्मचिंतन के द्वारा जब मनुष्य को स्वयं के गुण दोष समझ आने लगते हैं सम्यक रूप से तब अहंकार भी शनैः शनैः घटने लगता है और स्वयं के गुण दोषों को समझकर गुणों की वृद्धि के लिए प्रयत्नशील होना ही आत्मचिंतन का लक्षण है । दैवीय गुणों की उत्तरोत्तर वृद्धि (गीता अध्याय १६, श्लोक१ से ५ तक ), संयम व सदाचार की उत्तरोत्तर वृद्धि के लिए लगातार प्रयत्नशील रहने के लिए आत्मचिंतन या आत्मशोधन मुख्य भूमिका निभाता है।

।। श्री परमात्मने नम: ।।

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