योगेन चित्तस्य पदेन वाचां।
मलं शरीरस्य च वैद्यकेन॥
योऽपाकरोत्तमं प्रवरं मुनीनां।
पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि॥

चित्त की वृत्तियों को देखा जाए तो असंख्य है परन्तु योग दर्शन के महान रचनाकार श्री पतजंलि ऋषि ने अपने योग दर्शन के समाधि पाद के पाँचवे सूत्र और सांख्य दर्शन के लेखक महर्षि कपिल ने दूसरे अध्याय के तैंतिसवे सूत्र में चित्त की वृत्तियों को पांच प्रकार की दर्शाया है और हर प्रकार की वृत्ति के दो भेद बताए हैं।

‘‘वृत्तयः पंचतय्य क्लिष्टाऽक्लिष्टा’’। वृत्तियाँ अर्थात् तरंगें या धाराएँ निरोध योग्य पांच प्रकार की हैं और हर प्रकार की वृत्ति के दो भेद या रूप हैं; क्लिष्ट और अक्लिष्ट। जो वृत्तियाँ साँसारिक विषयों में आसक्त और अविद्या, राग, द्वेष आदि क्लेशों में फँसाती हैं वे क्लिष्ट वृत्तियाँ हैं। और जो क्लेश रहित अर्थात अविद्या, राग, द्वेष आदि क्लेशों को क्षय या समाप्त करने वाली हों और प्रभु उपासना और योग साधना में सहायक हो वे अक्लिष्ट वृत्तियाँ हैं। योग साधना से इन अक्लिष्ट वृत्तियों द्वारा क्लिष्ट वृत्तियों को हटायें। इन पांच प्रकार की वृत्तियों में संसार के सब विचार, ज्ञान-अज्ञान, धर्म-अधर्म समाविष्ट हो जाते हैं। यह पांच वृत्तियां योगसूत्र अनुसार इस प्रकार हैं: ‘‘प्रमाणविपर्यय विकल्पनिद्रास्मृतयः’’ प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा एवं स्मृति इन पांच प्रकार की वृत्तियों का वर्णन योग दर्शन के पहले अध्याय के सात से ग्यारह सूत्र में दिया गया है।
1- प्रथम प्रमाण वृत्ति: यह तीन प्रकार की हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण, अनुमान प्रमाण और आगम (शब्द) प्रमाण। (क) प्रत्यक्ष प्रमाण: मन, बुद्धि और इन्द्रियों के साथ बिना किसी व्यवधान के संबंध होने से जो संशय रहित ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष अनुभव से होने वाली प्रमाण वृत्ति है। जिन मनुष्यों को सांसारिक पदार्थ नित्य और सुख रूप प्रतीत होता है, भोगों में आसक्ति हो जाती है, वह प्रमाण वृत्ति क्लिष्ट है और जो संसार से नाशवान परिवर्तनशील और पदार्थों में दुःख की प्रतीती करता है, इस से सांसारिक पदार्थों से वैराग्य हो जाता है जो चित्त वृत्तियों के प्रवाह को रोकने में सहायक होती है; वह अक्लिष्ट प्रमाण वृत्ति है। इसी प्रकार दूसरी वृत्तियों में भी क्लिष्ट व अक्लिष्ट समझें।
(ख) अनुमान प्रमाण: किसी प्रत्यक्ष दर्शन के सहारे युक्तियों द्वारा अप्रत्यक्ष पदार्थ के स्वरूप का ज्ञान होता है, वह अनुमान से होने वाली प्रमाण वृत्ति है। जैसे दूर से धुयें को देख कर अग्नि होने का अनुमान ।
(ग) आगम प्रमाण वृत्ति: वेद, शास्त्र और आप्त पुरूषों के वचन को ‘आगम’ कहते हैं। जो पदार्थ मनुष्य के अन्तः करण और इन्द्रियों के प्रत्यक्ष नहीं हैं एवं जहाँ अनुमान की भी पहुंच नहीं है, उसके स्वरूप का ज्ञान वेद, शास्त्र और महापुरूषों के वचनों से होता है, वह आगम से होने वाली प्रमाण वृत्ति है।
2- दूसरी विपर्यय वृत्ति – मिथ्या ज्ञान या विपरीत ज्ञान अर्थात असली स्वरूप को न समझ कर उसको दूसरी ही वस्तु समझ लेना विपर्यय वृत्ति है जैसे अन्धेरे में पत्थर को रीछ समझ लेना या रस्सी को सांप समझ लेना। यह विपर्यय ज्ञान प्रमाण नहीं है क्योंकि प्रमाण से खण्डित हो जाता है। सांख्य दर्शन के सूत्र ‘‘विपर्यय भेदाः पंच’’ के अनुसार विपर्यय अर्थात मिथ्या ज्ञान के पांच भेद अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश को भी विपर्यय वृत्ति ही दर्शाया है। योग दर्शन के अगले सूत्रों में यह ऐसे क्लेश बताए गए हैं जो कि असम्प्रज्ञात समाधि की योग्यता बिना क्षीण नहीं होते। इस कारण अविद्या आदि क्लेशों को कई एक महानुभावों ने विपर्यय वृत्ति नहीं माना है। इस बारे विचारों की भिन्नता है।
3- विकल्प वृत्ति – केवल शब्द के आधार पर बिना हुए पदार्थ की कल्पना करने वाली जो चित्त कि वृत्ति है, वह विकल्प वृत्ति है। जैसे किसी ने किसी से कहा कि एक देश में हमने आदमी के सिर पर सींग देखे थे। इस बात को सुनकर कोई मनुष्य निश्चय करले कि ठीक है, सींग वाले मनुष्य भी होते होंगे। ऐसी वृत्ति को विकल्प कहते हैं। इसी प्रकार भगवान के रूप की कल्पना करके, भगवान का ध्यान करता है। लेकिन जिस स्वरूप का वह ध्यान करता है, उसे न तो देखा है न वेद शास्त्र सम्मत है; केवल कल्पना मात्र ही है। यह विकल्पवृत्ति मनुष्य को भगवान के चिन्तन में लगाने वाली होने के कारण अक्लिष्ट है। जो भोगों में प्रवृत करने वाली हों, वे विकल्प वृत्तियां क्लिष्ट हैं।
4- निद्रा वृत्ति – जब निद्रा के समय व्यक्ति में रजोगुण का प्रभाव कम हो जाता है। और सत्त्वगुण का प्रभाव बढ़ जाता है। तब वह नींद से उठने के बाद स्फूर्ति व ताजगी का अनुभव करता है। इस प्रकार वह निद्रा सुखदायी होती है। यह निद्रा वृत्ति का अक्लिष्ट स्वरूप है। जो वृत्ति अज्ञान और अविद्या के अंधकार में फँसी हों, उस वृत्ति का नाम निद्रा है। इस वृत्ति में तमोगुण ही प्रधान है। निद्रावृत्ति का भी जागृत होने पर विशेष विचार किया जाता है कि आज मैं सुख से सोया, मेरा मन प्रसन्न है या मैं दुःख से सोया, मेरा मन आलस्य में है। यह अनुभूतियाँ जाग्रत अवस्था में होती हैं। इस से सिद्ध होता है कि निद्रा भी एक वृत्ति है; नहीं तो जागने पर उसकी स्मृति कैसे होती।
5- स्मृति वृत्ति – जिस व्यवहार या वस्तु का अनुभव या प्रत्यक्ष देख लिया है, उसी का संस्कार ज्ञान में बना रहता है उसका निमित्त पा कर याद आना ही स्मृति है। इस प्रकार पहले वर्णित प्रमाण, विपर्यय, विकल्प और निद्रा, इन चारों प्रकार की वृत्तियों द्वारा अनुभव में आए हुए विषयों के संस्कार जो चित्त में पड़े हैं, उनका पुनः किसी निमित को पाकर जाग्रत होना ही स्मृति है।

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