एक बार एक नवयुवक एक ब्रह्मज्ञानी महात्मा के पास गया और बोला – “ मुनिवर ! मुझे आत्मज्ञान का रहस्य बता दीजिये, जिससे मैं आत्मा के स्वरूप को जानकर कृतार्थ हो सकूं ।” महात्मा चुपचाप बैठे रहे ।
युवक ने सोचा, थोड़ी देर में जवाब देंगे । अतः वह वही बैठा रहा । जब बहुत देर होने पर भी महात्मा कुछ नहीं बोले तो युवक फिर से उनके पास गया और बोला – “ महाराज ! मैं बड़ी आशा लेकर आपके पास आत्मज्ञान का रहस्य जानने आया हूँ, कृपया मुझे निराश न करें ।”
तब महात्मा मुस्कुराये और बोले – “ इतनी देर से मैं तुझे आत्मज्ञान का ही तो रहस्य समझा रहा था । तू समझा कि नहीं ?”
युवक बोला – “ नहीं महाराज ! आपने तो कुछ भी तो नहीं बताया !”
तब महात्मा बोले – “ अच्छा ठीक है, एक बताओ ! क्या तुम अपने ह्रदय की धड़कन सुन सकते हो ?”
युवक बोला – “ हाँ महाराज ! लेकिन उसके लिए तो मौन होना पड़ेगा ।”
महात्मा हँसे और बोले – “ बस ! यही तो है आत्मज्ञान का रहस्य । जिस तरह अपने ह्रदय की धड़कन को सुनने के लिए मौन होने की जरूरत है । उसकी तरह अपनी आत्मा की आवाज को सुनने के लिए भी सारी इन्द्रियों को मौन करने की जरूरत है । जिस दिन तुमने अपनी सभी इन्द्रियों को मौन करना सीख लिया । समझों तुमने आत्मज्ञान का रहस्य जान लिया ।”
जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है। सभी मनुष्य मन सहित छ: इन्द्रियों के शब्द आदि विषयों में उनसे प्राप्त होने वाले सुख रुप फल पाने के सम्बन्ध में मोह से संशय में पड़ जाते हैं। परंतु जो उनके दोषों का अनुसंधान करने वाला वीतराग पुरुष है, वह उनका निग्रह करने के पश्चात ही ध्यानजनित आनन्द का अनुभव करता है।
वास्तव मैं मौन होने का तात्विक अर्थ ही है – इंद्रियों को वश कर लेना ।