ज्ञानसंजीवनी

पातंजलयोगदर्शन में कुल चार पाद हैं, जिसमें से साधनपाद के सूत्र २९ में योग के आठ अंग बताएँ हैं :

यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टाङ्गानि।।
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयः
– यम, नियम, आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि अष्टौ : ये आठ अङ्गानि : ( योगके ) अंग हैं।

इस आठों के लक्षण और फल दोनों का वर्णन आगे के सूत्रों में सूत्रकार के द्वारा बताया गया है।
सूत्र ३० में पहले अंग के बारे में बताते हैं कि यम क्या है :
अहिंसासत्यास्तेयब्रम्हचर्यपरिग्रहा यमाः।।३०।।
अर्थात = अहिंसा, सत्य, अस्तेय ( चोरी का अभाव ), ब्रम्हचर्य और अपरिग्रह ( संग्रह का अभाव ) – ये पाँच यम हैं।
इन सभी अंगों का सेवन एक साथ होने से ही योग सम्यक रूप से सिद्ध होता है, पृथक पृथक करने से नहीं। प्रायः नियम का सेवन करना यम की अपेक्षा आसान होने से नियम का सेवन तो किया जाता है परंतु यम का सेवन नहीं किया जाता है या साधक के द्वारा उसपर कुछ खास जोर नहीं होता है।
जबकि आध्यात्मिक साधना व मोक्ष मार्ग में यम का बड़ा ही महत्व है, सामान्य व संक्षेप में यम का अर्थ ‘संयम’ ले सकते हैं, संयम=यम

यम के विषय में मनु महाराज कहते हैं :
यमान सेवते सततं न नियमान केवलान बुधः।
यमान पतस्य कुर्वाणो नियमान केवलान भजन।।
अर्थात बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि वह केवल नियम का सेवन न करे, यम और नियम दोनों का सेवन करे। जो कोई भी यम के पालन को छोड़कर केवल नियम का सेवन करेगा वह मनुष्य पतित होगा।।

इसीलिए आत्मकल्याण की इच्छा रखनेवाले को केवल नियम नहीं बल्कि यम और नियम दोनों का सेवन करना चाहिए।

अहिंसा :
मन , वाणी और शरीर से किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार कष्ट न देना अहिंसा कहलाती है। कर्तव्य पालन हेतु केवल सुधार की दृष्टि से और सुधार हो उतना और जहाँ कर्तव्य हो केवल उतना ही किसी को शिक्षा के लिए ताड़ना देना भी हिंसा दिखती हुई अहिंसा ही है । किसी वैद्य के द्वारा धन की लालसा से नहीं बल्कि केवल रोग निवारण के लिए शल्य क्रिया ( ऑपरेशन ) करने की आवश्यकता होने पर वह करना भी हिंसा दिखते हुए भी अहिंसा ही है।

वास्तव में हिंसा का जन्म तो राग द्वेष युक्त, काम,क्रोध, लोभ से युक्त हुए कर्म से ही होता है।
अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च:।
-अहिंसा परम धर्म है परंतु धर्म (धर्म, सत्य व न्याय ) की रक्षा के लिए की गयी हिंसा भी अहिंसा ही है।

वेद व ऋषियों की वाणी शास्त्रों का अध्ययन करने पर यह समझ आता है कि हिंसा व अहिंसा की परिभाषा वास्तव में अन्याय व न्याय,धर्म व अधर्म की धुरी पर खड़ी है। कुछ कर्म जो दिखने में हिंसा है जैसे निःस्वार्थ भाव से सेना का सीमा पर युद्ध करना हिंसा दिखती है परंतु हिंसा व अत्याचार का उन्मूलन के लिए वह कर्तव्य रूप में की जाती है अतः वह अहिंसा ही है। उसी प्रकार स्वाद के लिए, स्वार्थ के लिए किसी जीव की जो हत्या है वह करना हिंसा है।

अहिंसा परमो धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः।
सत्ये कृत्वा प्रतिष्ठां तु प्रवर्तन्ते प्रवृत्तयः॥74॥
(महाभारत, वन पर्व, अध्याय 207 – मारकण्डेयसमास्यापर्व )
अर्थ – अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है और वह सत्य पर ही टिका होता है। सत्य में निष्ठा रखते हुए ही कर्तव्य कर्म संपन्न होते हैं।

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।। ( गीता १८.१७)
अर्थ : जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न (पाप से) बँधता ही है।।

error: Content is protected !!