हमारे ब्रहमांड में ब्रह्मा जी आदि जीव हैं जो (गर्भोदक्षायी ) विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न हुए | सैंकड़ो दिव्य वर्षों की तपस्या के बाद उनके हृदय में भगवान प्रकट हुए तथा वे शेष नाग की शैय्या पर लेटे हुए भगवान को देख पाये | भगवान ने सर्वप्रथम ब्रह्मा जी को श्रीमदभागवतम का सार ४ श्लोक में (चतु:श्लोकी) प्रदान किया |
भगवान कहते है: हे ब्रह्मा, वह मैं ही हूँ जो सृष्टि के पूर्व विद्यमान था, जब मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं था तब इस सृष्टि की कारण स्वरूपा भौतिक प्रकृति भी नहीं थी जिसे तुम अब देख रहे हो वह भी मैं ही हूँ और प्रलय के बाद भी जो शेष रहेगा वह भी मैं ही हूँ (श्रीमद भागवत २.९.३३) | हे ब्रह्मा ! जो भी सारयुक्त प्रतीत होता है, यदि वह मुझसे सम्बंधित नहीं है तो उसमें कोई वास्तविकता नहीं है | इसे मेरी माया जानो, इसे ऐसा प्रतिबिम्ब मानो जो अंधकार में प्रकट होता है (श्रीमद भागवत २.९.३४) | हे ब्रह्मा ! तुम यह जान लो की ब्रह्माण्ड के सारे तत्व विश्व में प्रवेश करते हुए भी प्रवेश नहीं करते है | उसी प्रकार मैं उत्पन्न की गयी प्रत्येक वस्तु में स्थित रहते हुए भी साथ ही साथ प्रत्येक वस्तु से पृथक रहता हूँ (श्रीमद भागवत २.९.३५) | हे ब्रह्मा ! जो व्यक्ति परम सत्य रूप श्री भगवान की खोज में लगा हो उसे चाहिये की वह समस्त परिस्थतियों में सर्वत्र और सर्वदा प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों ही प्रकार से इसकी खोज करे (श्रीमद भागवत २.९.३६) |
हृदय में ज्ञान उदय होने के बाद ब्रह्मा जी कहते है (ब्रह्म संहिता ५.१):
ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्द: विग्रह:,
अनादिरादि गोविन्द: सर्व कारण कारणम: |
भगवान तो कृष्ण है, जो सच्चिदानन्द (शास्वत,ज्ञान तथा आनन्द के) स्वरुप है | उनका कोई आदि नहीं है , क्योकि वे प्रत्येक वस्तु के आदि है | वे समस्त कारणों के कारण है |
ब्रह्मा जी कहते है: जो वेणु बजाने में दक्ष है, खिले कमल की पंखुड़ियों जैसे जिनके नेत्र है, जिनका मस्तिक मोर पंख से आभूषित है, जिनके अंग नीले बादलों जैसे सुन्दर है, जिनकी विशेष शोभा करोड़ों काम देवों को भी लुभाती है, उन आदिपुरुष गोविन्द का मैं भजन करता हूँ (ब्रह्म संहिता ५.३0) | वे आगे कहते है: मै उन आदि भगवान गोविंद की पूजा करता हूँ, जो अपने विविध पूर्ण अंशो से विविध रूपों तथा भगवान राम आदि अवतारों के रूप में प्रकट होते है किन्तु जो भगवान कृष्ण के अपने मूल रूप में स्वयं प्रकट होते है (ब्रह्म संहिता ५.३९) | ब्रह्मा जी ने ब्रह्म संहिता में प्रत्येक श्लोक के अंत में लिखा है : आदिपुरुष गोविन्द का मैं भजन करता हूँ |ब्रह्माजी अपने लोक में भगवान गोविंद की पूजा अठारह अक्षरों वाले मन्त्र से करते हे जो इस प्रकार है: क्लिम कृष्णाय गोविन्दाय गोपिजन्वल्लाभय स्वाहा |
श्री कृष्ण सर्व आकर्षक तथा समस्त आनंद के श्रोत हैं, वे षड-एश्वेर्य पूर्ण अर्थात (असीमित) ज्ञान, धन, बल, यश, सोन्दर्य तथा त्याग से युक्त हैं l श्री कृष्ण परम ईश्वर,परम पुरुष,परम नियंता, समस्त कारणों के कारण है यही परम सत्य है | श्री कृष्ण समस्त यज्ञों तथा तपस्याओ के परम भोक्ता, समस्त लोको तथा देवताओ के परमेश्वर है (भ. गी. ५.२९) | श्री कृष्ण की शक्ति से ही सारे लोक अपनी कक्षाओ में स्थित रहते है (भ. गी. १५.१३) | ब्रह्मादि सहित सभी देवगण उनके नियंत्रण में कार्य कर रहे है जिस प्रकार नाक में रस्सी पड़ा बैल अपने स्वामी द्वारा नियंत्रित किया जाता है (श्रीमद भागवत ४.११.२७) | जिस प्रकार अग्नि का प्रकाश अग्नि के एक स्थान पर रहते हुए चारो और फैलता है उसी प्रकार भगवान की शक्तियां इस सारे ब्रह्मांड में फैली हुई है (विष्णु पुराण १.२२.५३) |
श्री कृष्ण ही भगवान है, जिनके तीन पुरुष अवतार है | सर्व प्रथम कारणोदक्षायी विष्णु (महाविष्णु) जिनके उदर में समस्त ब्रह्माण्ड हैं तथा प्रत्येक श्वास चक्र के साथ ब्रह्माण्ड प्रकट तथा विनिष्ट होते रहते है | दूसरा अवतार है; गर्भोदक्षायी विष्णु जो प्रत्येक ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट करके उसमें जीवन प्रदान करते हैं तथा जिनके नाभि-कमल से ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए | तीसरे अवतार है क्षीरोदक्षायी विष्णु जो परमात्मा रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में तथा सृष्टि के प्रत्येक अणु में उपस्थित हो कर सृष्टिका पालन करते है |
जिनके श्वास लेने से ही अनन्त ब्रह्मांड प्रवेश करते है तथा पुनः बाहर निकल आते है, वे महाविष्णु कृष्ण के अंशरूप है | अतः मै गोविंद या कृष्ण की पूजा करता हूँ जो समस्त कारणों के कारण है (ब्रह्म संहिता ५.४८) | श्री कृष्ण विष्णु के रूप में उसी प्रकार विस्तार करते है जिस प्रकार एक जलता दीपक दूसरे को जलाता है यधपि दोनों दीपक की शक्ति में कोई अंतर नहीं होता तथापि श्री कृष्ण आदि दीपक के समान है (ब्रह्म संहिता ५.४६)* | कृष्ण स्वांश नारायण से भी श्रेष्ठ है क्योंकि उनमे ४ विशेष दिव्य गुण है: उनकी अद्भुत लीलाये, माधुर्य-प्रेम के कार्यकलापो में सदा अपने प्रिय भक्तो से घिरा रहना (यथा गोपियाँ), उनका अद्भुत सोन्दर्य तथा उनकी बाँसुरी की अद्भुत ध्वनि (चै. च. मध्यलीला २३.८२-८४) |
श्रीमदभागवतम में सारे अवतारों के वर्णन के बाद सूतजी कहते है: उपर्युक्त परमेश्वर के ये सारे अवतार या तो भगवान के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश (कलाएँ) हैं, लेकिन श्रीकृष्ण स्वयं पूर्ण पुरोषत्तम भगवान (कृष्णस्तु भगवान् स्वयं) हैं | वे प्रत्येक युग में इन्द्र के शत्रुओं (असुओं) द्वारा उपद्रव किये जाने पर अपने विभिन्न स्वरूपों के माध्यम से जगत की रक्षा करने के लिए प्रकट होते हैं (श्रीमद भागवत १.३.२८) |
जब जब धर्म की हानि होती है और पापकर्मों की वृद्धि होती है तब तब परम नियंता भगवान श्री हरि स्वेच्छा से स्वयं प्रकट होते है (श्रीमद भागवत ९.२४.५६) | गीता (४.७) में भी भगवान श्रीकृष्ण कहते है “हे भारत ! जब जब और जहाँ जहाँ धर्म का ह्रास होता है और अधर्म की प्रधानता होती है तब तब मै स्वयं अवतार लेता हूँ ” |
शिवजी: जो व्यक्ति प्रकृति तथा जीवात्मा में से प्रत्येक के अधीष्ठाता भगवान कृष्ण के शरणागत हैं, वे वास्तव में मुझे अत्यधिक प्रिय हैं (श्रीमद भागवत ४.२४.२८) | जो व्यक्ति अपने वर्णाश्रम धर्म को १०० वर्षो तक समुचित रीति से निभाता हे वह ब्रह्मा के पद को प्राप्त कर सकता हे | उस से अधिक योग्य होने पर वह मेरे पास पहुँच सकता हे | किन्तु भगवान का शुद्ध भक्त सीधा वैकुण्ठ में जाता हे , जबकि में तथा अन्य देवता इस संसार के संहार के बाद ही इन लोक को प्राप्त कर पाते हैं (श्रीमद भागवत ४.२४.२९) | हे भगवान, मेरा मन तथा मेरी चेतना आपके पूजनीय चरण-कमलो पर स्थिर रहती है जो समस्त वरों तथा इच्छाओं की पूर्ति के स्त्रोत होने के कारण समस्त मुक्त महामुनियो द्वारा पूजित हैं (श्रीमद भागवत ४.७.२९) |
नारद: मैं उन निर्मल कीर्ति वाले भगवान कृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो अपने सर्व-आकर्षक साकार अंशों को इसलिए प्रकट करते है जिससे सारे जीव मुक्ति प्राप्त कर सके (श्रीमद भागवत १0.८७.४६)|
ब्रह्मा: हे प्रभु! यह सारा द्रश्य जगत आपसे उत्पन्न होता है, आप पर टिका रहता है और आपमें लीन हो जाता है | आप ही प्रत्येक वस्तु के आदि,मध्य तथा अंत है | जिस तरह पृथ्वी मिटटी के पात्र का कारण है ; उस पात्र को आधार प्रदान करती है और जब पात्र टूट जाता है तो अंतत: उसे अपने में मिला लेती है (श्रीमद भागवत ८.६.१0) | मै, शिवजी तथा सारे देवताओं के साथ साथ दक्ष जैसे प्रजापति भी चिंगारियां मात्र है जो मूल अग्नि स्वरुप आपके द्वारा प्रकाशित है (श्रीमद भागवत ८.६.१४) |
मैं उन सर्वमंगलमय भगवान कृष्ण को सादर नमस्कार करता हूँ जिनके यशोगान, स्मरण, दर्शन, वंदन, श्रवण तथा पूजन से पाप करने वाले के सारे पाप फल तुरंत नष्ट हो जाते है (श्रीमद भागवत २.४.१५) |
वेदों में ज्ञान का परम लक्ष्य भगवान श्री कृष्ण (वासुदेव) है | यज्ञ करने का उद्देश्य उन्हें ही प्रसन्न करना है | योग उन्ही के साक्षात्कार के लिए है | सारे सकाम कर्म अंततः उन्ही के द्वारा पुरस्कृत होते है | सारी तपस्याये उन्ही को जानने के लिए की जाती है | उनकी प्रेमपूर्ण सेवा करना ही धर्म है और वे ही जीवन के परम लक्ष्य है (श्रीमद भागवत १.२.२८-२९) |