ज्ञानसंजीवनी

ज्ञान योग परमात्मा को देखने की दूसरी विधि है| इसको कुशाग्र बुद्धि युक्त व्यक्ति अपना सकते हैं। गीता में श्री कृष्ण कहते हैं-
चतुर्विद्याभजन्ते माँ जनाः सुकृतिनोSर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ || गीता ७/१६ ||

अर्थात्, हे भारतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी (सांसारिक पदार्थों के लिए), आर्त (संकट निवारण के लिए ), जिज्ञासु (जानने की इच्छावाले)और ज्ञानी – ये चार प्रकार के भक्त जन मुझको भजते हैं|
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते|
प्रियो हि ज्ञानिनोSत्यर्थमहं स च मम प्रियः|| गीता ७/१७ ||

अर्थात्,उनमे नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है; क्योंकि ज्ञानी को मैं अत्यंत प्रिय हूँ और ज्ञानी मुझे अत्यंत प्रिय है|
यहाँ पर भगवान स्पष्ट करते हैं की परमात्मा की उपासना चार प्रकार के भक्त करते हैं| अर्थार्थी वे भक्त होते हैं जिन्हें सांसारिक पदार्थों की आवश्यकता होती है और वे परमात्मा से इनको प्राप्त करने की प्रार्थना करते हैं| दूसरे प्रकार के भक्त आर्त यानि दुखी होते है ,वे अपने पर आये संकट से मुक्ति के लिए परमात्मा की उपासना करते हैं| तीसरे प्रकार के भक्त जिज्ञासु प्रकृति के होते हैं| उनकी जिज्ञासा परमात्मा को जानने की होती है, जिसके लिए वे परमात्मा की आराधना करते हैं| ज्ञानी भक्त वे होते हैं जो जानते हैं की जाननेन जाते हैं और निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि परमात्मा के बारे में जानना कितना कठिन है यानि परमात्मा जानने में नहीं आते हैं| भगवान श्री कृष्ण स्वयं गीता में कहते हैं-
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च |
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् || गीता १३/१५ ||

अर्थात्,चराचर सब भूतों के बाहर भीतर और चार अचर रूप भी वही है और वह परमात्मा सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है अर्थात सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता| बी तथा तथा अति समीप और दूर में भी वही स्थित है| अति समीप का अर्थ यह है कि शरीर में जो आत्मा है वह परमात्मा का ही तो अंश है अतः वह मनुष्य के अति समीप है| तथा जो परमात्मा में श्रद्धा नहीं रखते ऐसे अज्ञानी व्यक्तियों के लिए परमात्मा अत्यंत दूर ही है|
परमात्मा की प्रकृति सूक्ष्म है इस कारण से उसे जानना बहुत ही मुश्किल है| इसी कारण से परमात्मा जानने में नहीं आता है| इस बारे में समस्त ज्ञान रखने वाला ही ज्ञाता कहलाता है और परमात्मा को ही सर्वेसर्वा मानने वाला ज्ञानी भक्त| इस दुर्लभ ज्ञान को प्राप्त करने में मनुष्य को कई जन्म लग जाते हैं, तभी वह परमात्मा को कुछ जानने की स्थित को उपलब्ध होता है|
जो ज्ञानी भक्त होता है वह परमात्मा को ही सब कुछ मानते हुए प्रेमभाव से भक्ति करता है| भगवान कहते हैं कि ऐसे ज्ञानी भक्त को मैं अत्यंत प्रिय हूँ और वह भक्त मुझे भी अत्यंत प्रिय है| वैसे भगवान को सभी भक्त प्रिय होते हैं परन्तु ज्ञानी भक्त को उन्होंने इन चारों में अत्यंत प्रिय बताया है| श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि उपरोक्त चारों तरह के भक्त उदार हैं परन्तु ज्ञानी तो मेरा ही साक्षात् स्वरुप है| परमात्मा ने ज्ञानी भक्त को ही अपना साक्षात् स्वरुप इसलिए बताया गया है कि ऐसा भक्त केवल परमात्मा के प्रति समर्पित होता है और परमात्मा में ही स्थित होता है| तुलसीदास जी ने मानस में लिखा है-
सोई जानई जेहू देइ जनाई |जानत तुम्हहि तुमइ होई जाई ||
परमात्मा स्वयं के बारे में जिसको जनाना चाहता है,वही उसे जन सकता है| प्रत्येक व्यक्ति के बस की बात नहीं है कि वह उस परम पिता परमात्मा को जान सके| और जो व्यक्ति उस परमात्मा को जान लेता है वह साक्षात् परमात्मा स्वरुप ही हो जाता है| यह जानने वाला और परमात्मा में स्थित भक्त ही ज्ञानी भक्त कहलाता है|
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते|
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्|| गीता ९/१५ ||

अर्थात्,दूसरे ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण-निराकार का ज्ञानयज्ञ के द्वारा अभिन्न भाव से मेरी उपासना करते हैं और अन्य बहुत प्रकार से स्थित मुझ विराट्स्वरूप परमेश्वर की पृथक-भाव से उपासना करते हैं|यहाँ पर भगवान श्री कृष्ण ज्ञानमार्ग के विषय में बता रहे हैं|
ज्ञान योग के बारे में चर्चा करते हुए तीन प्रश्न मन में उठते हैं-ज्ञान क्या है ? ज्ञेय क्या है ?और ज्ञाता कौन है?
पहला प्रश्न है कि ज्ञान क्या है ?ज्ञान के सम्बन्ध में गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्|
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोSन्यथा|| गीता १३/११ ||

अर्थात्,अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थ रूप में परमात्मा को देखना -यह सब ही ज्ञान है और जो इससे विपरीत है वह अज्ञान है|
यहाँ ज्ञान केवल उसे ही बताया गया है जिसमें व्यक्ति को तत्वज्ञान हो जाता है| तत्व ज्ञान का अर्थ होता है कि जो भी यहाँ पर हो रहा है उसका मूल कारण क्या है ?जब तक आप वास्तविकता से दूर रहेंगे तब तक केवल मात्र शब्दों में ही भटकते रहेंगे| विज्ञानं के बारे में यही कहा जाता है कि जो बात विज्ञानं साबित कर दे वही मान्य होती है| लेकिन जब आप विज्ञानं से मूल तक पहुँचने का प्रश्न करते हैं तब अंत में आकर विज्ञानं भी मौन हो जाता है और हाथ ऊपर करके परम सत्ता को स्वीकार करता है| विज्ञानं ने चाहे कितनी ही प्रगति कर ली हो परन्तु मुख्य कारण जानने में वह भी विफल है| ब्रह्माण्ड के निर्माण को जानने के अभी तक कितने ही प्रयोग हो चुके है-कहते है कि खोज लिया गया है| परन्तु वास्तव में मुख्य कर्ता कौन है, वह अभी भी खोज नहीं पाया है| ब्रह्माण्ड के निर्माण का कारण है तो कोई कर्ता भी होगा| जीव विज्ञानं में भ्रूण निर्माण से लेकर मृत्यु पर्यंत सब जानकारी विज्ञानं हासिल कर चूका है परन्तु इस पूर्ण चक्र का कर्ता कौन है,विज्ञानं यहाँ पर भी मौन है| यह मौन ही परमात्मा के अस्तित्व की स्वीकृति है|
जितनी भी व्याधियाँ है उन सब की कोई न कोई दवा खोज ली गयी है |परन्तु एक भी दवा ऐसी नहीं है जो किसी बीमारी में शतप्रतिशत कार्य करती हो| ऐसा क्यों?विज्ञानं यहाँ पर भी मौन है| जब एक दवा किसी एक बीमारी में पूरा आराम देती है, तो फिर उस दवा के देने के बाद भी कुछ व्यक्ति उस बीमारी से क्यों मर जाते है? विज्ञानं यहाँ पर भी निरुत्तर है| अंतरिक्ष के इतने सफल अभियानों के बाद भी कल्पना चावला की मौत एक असफल अभियान में क्यों हो गयी थी ?कारण जरूर बताती है विज्ञानं, परन्तु फिर भी इशारा परम सत्ता की और ही होता है| इसीलिए परमात्मा को अज्ञेय कहा गया है। जिसे जानना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है| कहा जा सकता है कि जहाँ ज्ञान समाप्त होता है, आध्यात्मिकता की शुरुआत वहीँ से होती है| सभी ज्ञान परमात्मा में आकर समाप्त हो जाते हैं|
अतः कहा जा सकता है कि परम पिता परमात्मा ही सब कुछ है यह मानना ही ज्ञान है। इससे अलग अगर कुछ माना जाता है, तो वह अज्ञान है|
दूसर प्रश्न है कि ज्ञेय क्या है ?अर्थात् जानने योग्य क्या है? गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –
ज्ञेयं यत्ततप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते |
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते || गीता १३/१२ ||

अर्थात्,जो जानने योग्य है (ज्ञेय) तथा जिसको जानकर परमानन्द को प्राप्त होता है उसको भली भांति कहूँगा| वह अनादि परम ब्रह्म हैजिसे न तो सत् और न ही असत् कहा जा सकता है|
संसार असीमित और अनगिनत साहित्य से भरा पडा है| परन्तु कोई भी साहित्य, कोई भी पुस्तक आपको क्या जानना चाहिए; यह बताने में असमर्थ है| भगवान कहते हैं कि जानने योग्य वही है,जिसको जानने के बाद आपको परमानंद की अनुभूति हो| और वह एक मात्र परम ब्रह्म यानि परम पिता परमात्मा ही है| जिसका न तो कोई आदि है और न अं | जो न तो सत् है और न ही असत्| जानने योग्य केवल एक मात्र यही परम ब्रह्म है| वह सब ओर हाथ, पैर, मुख, सिर, कान और नेत्र वाला है| सब इन्द्रियों को जानते हुए भी सब इन्द्रियों से रहित है| वह आसक्ति रहित है फिर भी सबका भरण-पोषण करने वाला है| निर्गुण होते हुए भी गुणों को भोगने वाला है| विभाग रहित होने के बावजूद वह सभी भूतों में व्याप्त होने के कारण विभक्त भी प्रतीत होता है| वह ब्रह्मा के रूप में सबको उत्पन्न करने वाला, विष्णु रूप में सब भूतों का भरण-पोषण करने वाला तथा रूद्र रूप में संहार करने वाला है| वह परम ब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति है और माया से अत्यंत ही परे है| वही जानने योग्य है और तत्वज्ञान से प्राप्त किया जा सकता है| वह वास्तव में सबके ह्रदय में विशेष रूप से स्थित है| कबीर इस बात को बड़े ही साधारण तरीके से समझते हैं-
ज्यूँ तिल मांहीं तेल है, ज्यूँ चकमक में आग|
तेरा सांई तुझी में है, जाग सके तो जाग||

अतः कहा जा सकता है कि ज्ञेय केवल मात्र परम ब्रह्म है, जिसे जानने के बाद किसी और को जानने की आवश्यकता नहीं रह जाती है| ज्ञान भी इसी को जानने को कहते है|
तीसरा प्रश्न है कि ज्ञाता कौन है ?ज्ञेय और ज्ञान को जानने के बाद स्पष्ट है कि ज्ञाता किसे कहते हैं?ज्ञाता वही होता है या कहलाता है जिसे ज्ञेय का ज्ञान हो जाये| परन्तु यह सबसे बड़ी भूल है कि पुस्तकीय ज्ञान से ओतप्रोत व्यक्ति ज्ञाता हो जाता है| यह व्यक्ति वास्तविकता में ज्ञान से कोसों दूर है|
ज्ञेय का ज्ञान जिसे हो जाये वही ज्ञाता है| केवल पुस्तकीय ज्ञान से ही कोई ज्ञाता नहीं हो जाता है| इसीलिए भारतीय-दर्शन में गुरु और सत्संग का विशेष महत्त्व है| स्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में ज्ञान के सम्बन्ध में साफतौर से लिखा है कि–
बिनु सत्संग विवेक न होई| रामकृपा बिनु सुलभ न सोई||
होई विवेक मोह भ्रम भागा |
तब रघुनाथ चरण अनुरागा ||

इसका अर्थ यह है कि केवल पुस्तकीय ज्ञान ही ज्ञान नहीं है| इस ज्ञान को विवेक में परिवर्तित करने के लिए सत्संग यानि अच्छे लोगों के साथ विषय विशेष की परिचर्चा आवश्यक है| इन सत्पुरुषों का साथ भी बिना ईश्वरीय कृपा के मिलना असंभव है| एक बार जब व्यक्ति में विवेक जागृत हो जाता है तब उसका परमात्मा के प्रति प्रेम पैदा हो जाता है। इस प्रकार वह ज्ञान मार्ग पर चलते हुए परमात्मा का सानिध्य पा सकता है|
जब ज्ञेय मात्र एक परमात्मा ही है, और सब ज्ञान परमात्मा में आकर समाप्त हो जाते हैं तब ज्ञाता का अस्तित्व कैसे बना रह सकता है? जब ज्ञान का त्याग करके व्यक्ति ज्ञानशून्य हो जाता है तब ज्ञाता होने का अहंकार स्वतः ही समाप्त हो जाता है| जब ज्ञान का त्याग कर दिया जाता है तब वास्तव में शरणागति की स्थिति आ जाती है| शरणागति का अर्थ है कि फिर व्यक्ति के लिए सभी कर्म और उनका कर्ताभाव समाप्त हो जाता है| जब कर्म और कर्ताभाव समाप्त हो जाते हैं तो कोई भी कर्म, कर्मफल देने हेतु शेष नहीं रहता है| अतः फिर पुनर्जन्म की कोई सम्भावना ही नहीं बन सकती| यही मुक्ति है और यही परम तत्व की प्राप्ति|
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि ज्ञान मार्ग ही ऐसा मार्ग है जिसमे शरणागति की स्थिति आसानी से प्राप्त की जा सकती है| ज्ञान प्राप्त करते ही व्यक्ति की समझ में आ जाता है कि इस ज्ञान का अब कोई महत्त्व नहीं है| ज्ञान के त्याग के साथ ही शरणागति का प्रादुर्भाव हो जाता है|
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं–
लोकेSस्मिन्द्विविधा निष्ठां पुरा प्रोक्ता मयानघ|
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्|| गीता ३/३ ||

अर्थात्,हे निष्पाप अर्जुन!इस लोक में दो प्रकार की निष्ठां मेरे द्वारा पहले कही गयी है| उनमे से सान्ख्ययोगियों की निष्ठां तो ज्ञान योग से और योगियों की निष्ठां कर्मयोग से होती है|
यहाँ भगवान ने स्पष्ट किया कि जो भी सांख्ययोगी यानि सिद्धांतवादी हैं वे मेरे प्रति निष्ठां ज्ञानयोग से प्राप्त कर सकते हैं| ज्ञानमार्ग ही ऐसे व्यक्तियों के लिए परमात्मा को प्राप्त करने का उपयुक्त मार्ग है| जबकि योगियों की निष्ठां कर्म योग से बताई गयी है| योगी से तात्पर्य है -जो व्यक्ति केवल परमात्मा को ही प्राप्त करना चाहता है, उसे ज्ञान और ध्यान से कोई मतलब नहीं होता है |ऐसे योगियों के लिए परमात्मा प्राप्ति का उपयुक्त मार्ग कर्म योग ही है|
ज्ञान मार्ग में सिद्धांतवादी तात्विक ज्ञान प्राप्त करते हैं| तात्विक ज्ञान ही वास्तविकता में परमात्म तत्व का ज्ञान है| इस तात्विक ज्ञान के प्राप्त होते ही बाकि सभी ज्ञान लुप्त हो जाते हैं| गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणै: सह|
सर्वथा वर्तमानोSपि न स भूयोSभिजायते|| गीता १३/२३ ||

अर्थात्, इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है,वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता|
यहाँ भगवान श्री कृष्ण एक बार फिर से स्पष्ट करते हैं कि जो व्यक्ति तात्विक ज्ञान प्राप्त कर लेता है वह पुरुष और प्रकृति के गुणों को पूर्ण रूप से जान जाता है| ऐसी स्थिति में वह अपने कर्तव्य को जानते और समझते हुए जो भी कर्म करता है वे कर्म किसी भी प्रकार का कर्मफल देने वाले नहीं होते हैं| और बिना कर्मफल के कोई भी कर्म व्यक्ति को पुनर्जन्म की तरफ नहीं ले जाते हैं| ऐसा व्यक्ति कर्तव्य कर्म करता हुआ फिर नहीं जन्मता है| पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति|

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