सिद्धांत वादियों के लिए भगवान श्री कृष्ण ने गीता में ज्ञान मार्ग को सबसे अच्छा साधन बताया है जबकि योगियों के लिए कर्म मार्ग को| सिद्धांतवादी बिना ज्ञान अर्जित किये किसी भी बात को स्वीकार नहीं कर पाते हैं| अतः उनके लिए परमात्मा प्राप्ति का साधन ज्ञान मार्ग के अतिरिक्त कोई दूसरा हो ही नहीं सकता| जबकि साधारण व्यक्ति जो कि केवल परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है, शेष उसके लिए महत्वहीन है उन योगियों के लिए श्री कृष्ण ने सबसे सुगम साधन कर्म-मार्ग को बताया है|
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं–
नेहाभिक्रमनाशोSस्ति प्रत्यवायो न विद्यते|
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्| गीता २/४० ||
अर्थात्, इस कर्मयोग में आरम्भ का अर्थात् बीज का नाश नहीं है और इसके विपरीत फलरूप दोष भी नहीं है,बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोडा सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान् भय से रक्षा कर लेता है|
आज जब भी हम किसी सम्मान समारोह आदि में जाते हैं तो सम्मानित व्यक्ति को प्रायः वक्ता कर्म-योगी की उपमा दे देते हैं| कुछ समय के लिए विचार कीजिये कि क्या उस सम्मानित व्यक्ति को कर्म-योगी कहना उचित है? गीता में भगवान श्री कृष्ण जो कर्म-योग के बारे में बताते हैं उसके अनुसार सम्मानित व्यक्ति को कर्म-योगी कहना अनुपयुक्त ही प्रतीत होता है|कर्मयोग के अनुसार जो भी मनुष्य द्वारा कर्म किये जाते हैं उन कर्मों के कर्मफल में कोई दोष भी नहीं होता है| कर्म-योग में इस योग के प्रारंभ का कभी भी नाश नहीं होता, चाहे बाद में मनुष्य कर्म-योग से भटक गया हो या विचलित हो गया हो| अगर कोई भी व्यक्ति कर्म-योग का साधन कुछ समय के लिए भी कर लेता है तो फिर उसमें जन्म-मरण का भय नहीं रहता है|
गीता में भगवान योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं —
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण:|
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्स्त्यनामयम्|| गीता २/५१ ||
अर्थात्,समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्म रूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं|
यहाँ श्री कृष्ण समत्व की बात करते हैं| सम बुद्धि किसी भी योग के लिए आवश्यक है| समता अध्यात्म की पहली आवश्यकता है| समता का अर्थ है समान भाव| सब जीवों में परमात्मा के अंश को देखना| जब व्यक्ति सभी जीवों में अपने में स्थित परम तत्व की उपस्थिति की तरह ही परमात्मा के अंश को देखता है, तो फिर वह शत्रु और मित्र में भी समान भाव रख सकता है| इसी प्रकार वह प्रत्येक घटनाक्रम को भी अन्यथा नहीं लेता है|सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, मान-अपमान, निन्दा-स्तुति आदि में स्थिर रहता है| गीता के अनुसार ऐसा व्यक्ति स्थितप्रज्ञ कहलाता है| जो मनुष्य स्थितप्रज्ञ की स्थिति प्राप्त कर लेता है, वह फिर ऐसे कर्म कर ही नहीं सकता जो कर्मफल देने वाले हों| ऐसे में उस मनुष्य को पुनर्जन्म से मुक्ति मिलने की सम्भावना रहती है| स्थितप्रज्ञ मनुष्य का इसीलिए जन्म-मरण से भय समाप्त हो जाता है|
समत्व योग पढने सुनने में आसान प्रतीत होता है परन्तु जब इसको जीवन में उतारना होता है, तब उसके एक अंश मात्र को अपनाना भी कठिन हो जाता है| जब आज इस आर्थिक युग में एक एक मुद्रा के लिए संघर्ष होता है वहाँ समत्व की कल्पना करना भी निरर्थक प्रतीत होता है|
यहाँ श्री कृष्ण सम बुद्धि की चर्चा करते हैं| आप सोच सकते हैं की कर्म-मार्ग के लिए सम-बुद्धि की क्या आवश्यकता है? आप निश्चित हो जाएँ, परमात्मा कभी भी निरर्थक बात नहीं करते हैं| प्रत्येक कर्म बुद्धि के द्वारा ही संपन्न होता है| इसलिए जैसी बुद्धि होगी, उसके अनुसार किये हुए कर्म का फल भी उसी के अनुरूप होगा| और सम-बुद्धि युक्त व्यक्ति ऐसा कर्म कर ही नहीं सकता जो उसे कर्म-बंधन क लिए विवश करे और कर्मफल पाने के लिए पुनर्जन्म में जाना पड़े|अतः कर्म-मार्ग से परमात्मा को अगर पाना है तो सबसे पहले सम-बुद्धि का अभ्यास करना होगा|
बुद्धि का स्थिर होना अर्थात सम होना कैसे संभव है ,इसकोभगवान श्री कृष्ण और स्पष्ट करते हुए कहते हैं –
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते|
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते|| गीता २/६५ ||
अर्थात्, अन्तः करण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही भलीभांति स्थिर हो जाती है|
जब तक आंतरिक रूप से व्यक्ति प्रसन्न नहीं होगा तब तक वह न तो कर्मयोगी बन सकता है और न ही सम-बुद्धिवाला ही|
अंतःकरण की प्रसन्नता के बिना कोई भी मनुष्य कर्म-योगी नहीं हो सकता और बिना कर्म योग के उसकी बुद्धि परमात्मा के प्रति स्थिर नहीं हो सकती| कर्मयोगी मनुष्य कैसे हो सकता है इसको श्रीकृष्ण ने गीता में बहुत ही अच्छे तरीके से समझाया है|
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोश्नुते|
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति|| गीता ३/४ ||
अर्थात्, मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानि सांख्य निष्ठां को ही प्राप्त होता है|
गीता में भगवान स्पष्ट रूप से कहते हैं की कोई भी व्यक्ति बिना कर्म किये क्षण भर के लिए भी नहीं रह सकता है| कर्मों को त्यागने से कोई व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता|अतः कर्मो का करना आवश्यक है| कर्मों के करने से ही व्यक्ति का उत्थान और पतन होता है| समबुद्धि से किये गए कर्मों से व्यक्ति निष्कर्मता को प्राप्त होता है अर्थात उसके सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं जिससे उनका कोई भी कर्मफल नहीं होता है जिससे उसे पुनर्जन्म लेकर इस संसार में नहीं आना होता है|
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेSर्जुन|
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते|| गीता ३/७ ||
अर्थात्, हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है वही श्रेष्ठ है|
मनुष्य जब क्षण भर के लिए भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता तो यह साबित होता है कि कर्म इस भौतिक शरीर के लिए आवश्यक है| अब मनुष्य कर्म किस प्रकार करता है यह उसके विवेक पर निर्भर करता है| कर्म करने का कारण जब इन्द्रियां हो जाती है तब व्यक्ति आसक्त होकर कर्म करता है,जबकि परमात्मा अनासक्त होकर कर्म करने की बात करते हैं| आसक्ति या अनासक्ति आपकी बुद्धि का विषय है, और बुद्धि शरीर की तुलना में आत्मा के ज्यादा निकट है| जब मनुष्य इन्द्रियों के वश में होकर कर्म करता है तब वे कर्म आसक्त होकर किये जाते हैं| और जब कर्म इन्द्रियों को वश में करके किये जाते हैं वे आसक्ति रहित कर्म माने जाते हैं| इन्द्रियों को वश में करना बुद्धि का कार्य क्षेत्र है| अतः कहा जा सकता है कि आत्मा ही बुद्धि के द्वारा मन और इन्द्रियों को वश में करते हुए शरीर से आसक्ति रहित कर्तव्य कर्म करवा सकती है|
गीता में योगेश्वर कहते हैं –
यस्त्वात्मरतिरेव स्यात्मतृप्तश्च मानवः|
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते|| गीता ३/१७ ||
अर्थात्,जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करनेवाला और आत्मा में ही तृप्त तथा संतुष्ट हो, उसके लिए लिए कोई कर्तव्य नहीं है|
सब कुछ आत्मा को ही मानने वाला मनुष्य आत्मा मे ही तृप्त,संतुष्ट और मस्त रहता है, जिसके कारण उसका नियंत्रण मन और इन्द्रियों पर पूर्ण रूप से रहता है| ऐसा मनुष्य कोई भी आसक्त कर्म नहीं कर सकता| ऐसे में उसका कोई कर्तव्य भी सिद्ध नहीं होता है| कर्तव्य तो आसक्त होकर कर्म करने वालों के लिए माना गया है, जहाँ पर कर्तापन का भाव होता है|ऐसे मनुष्य का न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न ही कर्मों के न करने से| इस प्रकार संसार में जितने भी प्राणी है उनसे भी उसका कोई स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता है| क्योंकि स्वार्थ ही आसक्त होकर कर्म करने के लिए मनुष्य को प्रेरित करता है| इससे आगे परमात्मा कहते हैं —
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर|
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष:|| गीता ३/१९ ||
अर्थात्, इसलिए तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को भलीभांति करता रह| क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है|
आसक्ति से कर्म करने पर व्यक्ति किसी भी तरीके से अपनी कामनाएं पूरी करना चाहता है,जिसके कारण वह बुद्धि और इन्द्रियों पर से अपना नियंत्रण खो बैठता है| इसके फलस्वरूप वह यह भी नहीं जान पाता कि कर्म शास्त्र सम्मत हो रहे हैं या शास्त्र विरुद्ध| तत्काल ही फल चाहने वाला यह समझने की कोशिश भी नहीं करता कि इस जन्म में जो कुछ भी उसे प्राप्त हो रहा है अथवा होना है, वह सब उसके पूर्व जन्मों के कर्मफल ही है| इस जन्म में किये जाने वाले कर्मों के फल तो अगले जन्म से पहले उसे मिलने असंभव है| अतः प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक है कि इस वास्तविकता को अंगीकार करे और आसक्ति रहित होकर कर्म करे| यही उसकी मुक्ति का द्वार है|
आसक्त हुए बिना जो भी कर्म किये जाते है वे अकर्म हो जाते हैं ,और अकर्म का कोई भी फल नहीं मिलता| परमात्मा की प्राप्ति का यह कर्म मार्ग सबसे आसान मार्ग कहा गया है| जब व्यक्ति क्षण मात्र के लिए भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता तो सबसे अच्छा और आसान यही है कि कर्म करते हुए ही परमात्मा की प्राप्ति का प्रयास किया जाये| भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कर्म-योग को ही सबसे सरल मार्ग बताया है|
न में पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किन्चन|
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि|| गीता ३/२२ ||
अर्थात्, हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कोई कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है,फिर भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ यानि कर्म करता हूँ|
यहाँ भगवान यह कहना चाहतें हैं संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो उन्हें स्वयं को प्राप्त नहीं हों,फिर भी वे अपना कर्म करते ही हैं| अगर वे कर्म करना बंद कर दे या कर्म करे भी नहीं तो भी उन्हें हर वस्तु प्राप्त है| इतना सब कुछ होने के उपरांत भी परमात्मा इस संसार में व्यक्त होने के बाद कर्म करते हैं| क्योंकि अगर परमात्मा कर्म करना छोड़ दे तो उनका अनुसरण करते हुए मनुष्य भी कर्म करना छोड़ सकता है| जो कि उचित नहीं है| अगर मनुष्य कर्म करना बंद करदे तो उसके सामने कोई लक्ष्य नहीं रहेगा, इस प्रकार मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा| इससे समस्त प्रजा को नष्ट करने की सम्पूर्ण जिम्मेदारी परमात्मा पर आ जायेगी| इसलिए ईश्वर का भी इस संसार में कर्म करते रहना आवश्यक है|
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत|
कुर्यद्विद्वांस्तथासक्ताश्चिकीर्षूर्लोकसंग्रहम्|| गीता ३/२५ ||
अर्थात्, हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे|
यहाँ भगवान स्पष्ट करते हैं कि अज्ञानीजन ही किसी इन्द्रिय भोग के प्रति आसक्त होकर कर्म करते हैं, परन्तु विद्वानजन आसक्ति रहित होकर वैसे ही कर्म कर सकते हैं| आसक्त हुए बिना कर्म करने से कर्मफल का प्रभाव नहीं रहता है| आसक्ति रहित मनुष्य भी लोक-संग्रह करना चाहते हुए भी कर्म कर सकता है, इसके उपरांत भी उसे कर्मफल भोगने के लिए पुनर्जन्म में नहीं जाना पड़ता है| उसके सारे कर्म यहीं पर ही अकर्म हो जाते हैं और वह निष्कर्मता को प्राप्त हो जाता है| विद्वान पुरुष का यह दायित्व बनता है कि वह शास्त्र सम्मत कर्म करे और अज्ञानीजन को भी करने हेतु प्रेरित करे| अज्ञानीजन की बुद्धि भ्रमित नहीं करे| ज्ञानी व्यक्ति यह जानता है कि संसार में सभी कर्म प्रकृति के गुणों के अनुसार ही होते है परन्तु अज्ञानीजन “मैं ही कर्ता हूँ” ऐसा मानता है| परन्तु इस गुण विभाग को तत्व से जानने वाला ज्ञानयोगी जानता है कि सब गुण गुणों में ही बरत रहे हैं अर्थात् गुण ही कार्यरत है |ऐसा ज्ञानयोगी फिर आसक्त कैसे हो सकता है? जो व्यक्ति प्रकृति के गुणों से मोहित होता है वह फिर गुणों और कर्मों के प्रति आसक्त भाव रखता है| यहाँ भगवान भी यही कहना चाहते हैं की अपना चित्त मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगाकर सम्पूर्ण कर्मों को मुझी को अर्पण कर| तभी मनुष्य आशारहित और ममता रहित रहकर कर्म कर सकता है| इस प्रकार कर्म करने वाला मनुष्य सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाता है अर्थात उसके लिए किसीभी प्रकार का कर्म-बंधन नहीं रह जाता है| कर्म- बंधन नहीं है तो फिर कर्म-फल भी कैसे हो सकते हैं? और जब कर्मफल नहीं होंगे तो पुनर्जन्म भी नहीं होगा|
यहाँ एक बात स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आती है की कर्म-मार्ग में त्याग या तो कर्मों का परमात्मा के प्रति होता है अथवा फिर कर्म करते हुए कर्मफल का त्याग करना होता है| बिना त्याग के कर्मफल पाने के लिए पुनर्जन्म में जाना आवश्यक हो जाता है| कर्ताभाव समाप्त होते ही कर्म भी समाप्त हो जाते हैं| ऐसे में कर्मफल तो स्वतः ही नहीं बनते| अतः सबसे पहले बुद्धि के द्वारा मन को नियंत्रित करते हुए इन्द्रियों पर नियंत्रण पाना अति आवश्यक है|इन्द्रियां ही कामनाएँ और इच्छाएं पैदा करती है जिसके कारण मनुष्य काम के वश में होकर अर्थात् आसक्त होकर कर्म करता है|
गीता में योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं-
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मनमात्मना|
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्|| गीता ३/४३ ||
अर्थात्, इस प्रकार बुद्धि से पर यानि सूक्ष्म बलवान और अत्यंत श्रेष्ठ आत्मा को जानकर, बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल|
इसलिए सर्वप्रथम इस प्रमुख शत्रु काम पर विजय पाना आवश्यक है|काम पर नियंत्रण होते ही सभी कर्म छूट जाते हैं और फिर जो भी कर्म किये जाते हैं, वे सभी परमात्मा को ही अर्पित होते हैं| यही कर्ताभाव का उन्मूलन कर देता है और साथ ही कर्मों का त्याग भी| यही पुनर्जन्म से मुक्ति है और परमात्मा की प्राप्त|
कर्म मार्ग ही ऐसा मार्ग है जो अपनाने में सबसे सरल है |जब भगवान स्वयं कहते हैं कि कोई भी मनुष्य क्षण भर के लिए भी कर्म किये बगैर नहीं रह सकता, तो प्रत्येक के लिए कर्म करना एक आवश्यकता हो जाती है| कोई भी व्यक्ति चाहे कर्म न करने की कितनी ही सोच ले कुछ न कुछ तो कर्म उससे होंगे ही| इस संसार में कर्म करने से कोई बच भी नहीं सकता| योगेश्वर कृष्ण तो यहाँ तक कहते हैं कि इस संसार में वे स्वयं भी कर्म करते हैं जबकि संसार की अप्राप्य वस्तु भी उनके लिए प्राप्य है| क्योंकि अगर वे स्वयं अगर कर्म न करे तो उनका अनुसरण करते हुए कोई भी मनुष्य कर्म नहीं करेगा| कर्म न करने से एक प्रकार से मनुष्य का जीवन भी नष्ट होने की अवस्था तक पहुँच सकता है, जिसकी समस्त जिम्मेवारी स्वयं भगवान की हो जायेगी| इससे बचने के लिए भगवान को भी कर्म करना पड़ता है|
परमात्मा की प्राप्ति या पुनर्जन्म से मुक्ति हेतु त्याग की महत्वता सबसे अधिक है| मार्ग आप चाहे कोई भी चुने, प्रत्येक मार्ग से परमात्मा को पाने के लिए त्याग करना ही पड़ता है| कर्म-मार्ग में त्याग के मुख्य रूप से तीन विकल्प हैं,जो अन्य दो मार्गों से ज्यादा और त्याग करने में आसान भी हैं| इसी लिए गीता को प्रमुखतया कर्म-योग के लिए जाना जाता है| ये तीन त्याग निम्न हैं-
१. निष्काम कर्म- इस प्रकार के कर्म में कामनाओं और इच्छाओं का त्याग होता है| जो भी कर्म किये जाते है वे आसक्ति रहित होते हैं| अनासक्त हुए कर्म करने में व्यक्ति किसी भी कर्मफल की आकांक्षा नहीं रखता है| इस कारण से वह कर्मों के साथ बंधता नहीं है| कर्म बंधन न होने से उसके कर्मफल से मनुष्य प्रभावित नहीं होता है| निष्काम कर्म में कामनाओं का त्याग होता है |
२.परमात्मा के निमित्त कर्म-इस प्रकार के सब कर्म परमात्मा के लिए किये जाते हैं| समस्त कर्म परमात्मा को अर्पित कर दिए जाने से व्यक्ति में “मैं ही करता हूँ “का भाव नहीं रहता है| इसमे भी कर्म-बंधन नहीं होता है जिससे कर्मफल के प्रति आसक्ति का पूर्ण अभाव होता है| परमत्मा के निमित्त किये हुए कर्म में कर्तापन का त्याग होता है|
३.कर्मफल का त्याग -यहाँ मनुष्य कर्म तो सकाम करता है परन्तु कर्मफल परमात्मा को अर्पित कर देता है| जो भी कर्मफल प्राप्त होता है उससे वह प्रभावित नहीं होता है, चाहे फल उसके सकाम कर्म के विपरीत ही क्यों न हो| निष्काम कर्म में कामनाओं का त्याग होता है परन्तु इसमे सकाम कर्म करते हुए कर्मफल का त्याग होता है|
इस प्रकार हम देखते हैं कि ईश्वर प्राप्ति के लिए त्याग का ही महत्त्व है| परमात्मा ने हमें कई विकल्प दिए है-त्याग करने के| फिर भी हम असफल ही साबित होते हैं| इसका सबसे बड़ा कारण है कि हम स्वयं को ही कर्ता मानते हैं| जबकि प्रत्येक मनुष्य भली भांति यह जानता है कि जैसा ईश्वर ने भाग्य में पूर्वजन्मों के कर्मों के आधार पर कर्मफल निश्चित किये हैं उनसे ना तो कुछ ज्यादा मिलना है और न ही कुछ कम| यह जानने और मानने का अंतर हीव्यक्ति को त्याग करने से रोक देता है| यह मनुष्य के साथ सबसे बड़ी विडम्बना है कि वह साक्षी की भूमिका निभाने में असफल रहता है| जबकि परमात्मा रचित इस भौतिक संसार में मनुष्य की भूमिका मात्र साक्षी की ही होनी चाहिए| साक्षी की भूमिका का निर्वाह करते हुए परमात्मा की प्राप्ति की राह आसान हो जाती है| गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने सत्य ही कहा है –
पहले तो प्रारब्ध रचा, पाछे रचा शरीर|
तुलसी चिंता छोड़ दे,भजले श्री रघुवीर||
जब तक मनुष्य कर्ता बना रहेगा तब तक वह इस जन्म-मरण के चक्रव्यूह से कभी भी बाहर नहीं निकल सकेगा| अतः जितनी भी शारीरिक और मानसिक कामनाएं और इच्छाए है उन्हें त्याग दे,परमात्मा को सब पता है कि आप को क्या मिलना है ?उसी अनुसार वह सब व्यवस्था करता है ,आपको इस सम्बन्ध में बिलकुल भी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है|
अजगर करे न चाकरी,पंछी करे न काम|
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम||
इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप अपने कर्म से विमुख होकर उन्हें करना ही छोड़ दें|इससे तो सबसे भयावह स्थिति पैदा हो जायेगी| आपका इस जन्म का तो सब कुछ पूर्व निश्चित है| अतः इस जन्म में किये गए कर्म आपको इस जन्म में फल नहीं देंगे, ये कर्म तो भावी जन्म को और उसमें मिलने वाले कर्मफल को निश्चित करेंगे| वर्तमान जन्म के कर्म तो आपका भविष्य निश्चित करेंगे-पुनर्जन्म अथवा इससे मुक्ति|
कर्म मार्ग में निष्काम कर्म,परमात्मा के निमित्त कर्म और कर्मफल का त्याग ये तीन विकल्प हैं| विचारणीय विषय यही है कि उपरोक्त तीनो विकल्पों में से कौन सा विकल्प सबसे सुगम है| मनुष्य की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह प्रत्येक कार्य में सरलता और सुगमता देखता है कर्तापन एक ऐसा भाव है जो कितना भी ज्ञानी और विवेकशील व्यक्ति हो छूटना मुश्किल है, साधारण व्यक्ति की तो बात ही छोड़ दें| निष्काम कर्म सबसे कठिन विकल्प माना जाता है,क्योंकि बिना किसी कामना के कर्म करना आज के इस भौतिक युग में असंभव ही है| यह विकल्प तो कोई सिद्ध पुरुष ही अपना सकता है, अन्य के लिए यह सरल और सुगम विकल्प बिलकुल भी नहीं है| गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
अनन्याश्चिन्तयन्तो माँ ये जनाः पर्युपासते|
तेषां नित्याभिययुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्|| गीता ९/२२ ||
अर्थात्,जो अनन्यप्रेमी भक्त मुझ परमेश्वर का निरंतर चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते हैं अर्थात निष्कर्मता को प्राप्त होकर कर्म करते हैं उस पुरुष का योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ|
योगक्षेम का अर्थ होता है अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त किये हुए की रक्षा| यहाँ परमात्मा स्पष्ट करते है कि जो व्यक्ति निष्काम कर्म करता है, उसकी समस्त जिम्मेवारी मेरी होती है| उसको जो भी प्राप्त नहीं हुआ है वह सब मैं प्रदान करता हूँ और जो उसको प्राप्त हो जाता है उस प्राप्ति की मैं स्वयं रक्षा करता हूँ| आश्चर्य की बात है कि इससे अधिक स्पष्ट निष्काम कर्म के सम्बन्ध में परमात्मा नहीं कह सकते,फिर भी इस संसार में सांसारिक लोगों को उनकी बात पर तनिक भी विश्वास नहीं है| तभी तो अपने जीवनकाल में सब कार्य वह स्वयं ही कर सकता है, यही मानता है| इस कारण से परमात्मा प्राप्ति की तरफ उसकी यात्रा संभव नहीं हो पाती है| इसीलिए निष्काम कर्म के विकल्प का चयन करना आम व्यक्ति के लिए असंभव है|
दूसरा विकल्प है कि मनुष्य जो भी कर्म करे वह सब परमात्मा के निमित्त करे अर्थात् परमात्मा के लिए करे| इससे कर्ताभाव समाप्त हो जाता है| जैसे बच्चों का लालन पालन करना, वृद्ध माता-पिता की सेवा करना, समाज सेवा करना, असहाय व्यक्तियों की सहायता करना,प्राणी मात्र के प्रति दया भाव रखते हुए उनकी सहायता करना आदि| आधुनिक युग एक आपा-धापी का युग है| इस युग में किसी के पास भी इतना समय नहीं है कि वह स्वयं के अतिरिक्त किसी और के बारे में भी सोचे| इस कारण से यह विकल्प भी आजकल लगभग अस्वीकार्य हो गया है| आजकल कुछ व्यक्ति समाज और असहायों की सेवा के लिए समय समय पर कर्म करते हुए प्रतीत होते हैं उनमे भी भीतर कहीं कर्ताभाव छुपा होता है|
तीसरा और अंतिम विकल्प है कर्मफल का त्याग| तीनों विकल्पों में यह सबसे सरल और सुगम विकल्प है| यहाँ कर्म तो मन में कामना रखकर ही किये जाते है, फलस्वरूप जो भी परिणाम मिलता है उसका त्याग कर दिया जाता है|
यहाँ कर्मफल के त्याग से मतलब जो भी फल मिलता है उसको सहर्ष स्वीकारना है| कर्म का परिणाम चाहे आपकी कामना के अनुरूप हो या विरुद्ध| उससे आप बिलकुल भी प्रभावित नहीं होते हों| वास्तविक कर्मफल त्याग यही है|
तीनो विकल्प में से किसी भी एक को चुनने की सुविधा होने के बाद भी व्यक्ति इनमे से किसी को भी आत्मसात नहीं करना चाहता| ऐसी परिस्थिति में अन्य क्या विकल्प हो सकता है ?मनुष्य न तो सकाम कर्म करना ही छोडना चाहता है और न ही कर्मफल का त्याग करना चाहता तथा न ही कोई कर्म परमात्मा के निमित्त या परमात्मा को अर्पित करते हुए नहीं करना चाहता| ऐसे में कर्म – बंधन अवश्यम्भावी है| और एक बार अगर कर्म-बंधन हो गया तो चित्त में सभी कर्म अंकित होकर ही रहेंगे| जिनके कर्मफल प्राप्त करने के लिए मनुष्य को पुनर्जन्म में जाना ही होगा| ऐसे कर्म कभी भी नष्ट नहीं होते| इनको नष्ट करने के जो भी उपाय है,वे सभी कठिन और ज्यादा समय लेने वाले है| महापुरुषों ने सकाम कर्मों को समाप्त करने के तीन तरीके बताये हैं १.कर्मफल भोग कर-इसके लिए मनुष्य जीवन में किये गए सभी कर्मों के कर्मफल भोगने पड़ते हैं चाहे कितने भी जन्म लग जाये| सभी कर्मों के कर्मफल भोगने के पश्चात ही ये कर्म समाप्त होते हैं|
२.प्रायश्चित कर- इस विधि में किये गए कर्मों को समाप्त करने के लिए प्रायश्चित करना होता है, जो कि बड़ी ही कठिन प्रक्रिया है, और इसमे समय भी बहुत अधिक लगता है|
३.ज्ञान के द्वारा – जब व्यक्ति को तत्व ज्ञान प्राप्त हो जाता है तब उसके सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं और उनका कर्मफल नहीं मिलता है| गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि ज्ञान की अग्नि में आकर सारे कर्म भस्म हो जाते हैं|
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप|
सर्वं कर्माखिलं पर्थ ज्ञाने परिसमाप्यते|| गीता ४/३३ ||
अर्थात्,हे परंतप अर्जुन ! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यंत श्रेष्ठ है तथा संसार के समस्त कर्म ज्ञान में आकर समाप्त हो जाते हैं|
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन|
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा|| गीता ४/३७ ||
अर्थात्,हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि इंधनों को भस्ममय कर देती है,वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है|
अतः स्पष्ट है कि संसार में जितने भी कर्म है सभी ज्ञान में आकर समाप्त हो जाते हैं| ज्ञान हो जाने पर सभी कर्म तत्काल ही समाप्त हो जाते है|सकाम कर्मों को नष्ट करने का सबसे आसान उपाय यही है अर्थात् ज्ञान प्राप्त होते ही कर्मों और कर्मफल से मुक्ति मिल जाती है|
कर्म-मार्ग के अनुसार तीन विकल्प है-निष्काम कर्म परमात्मा के निमित्त कर्म और कर्मफल का त्याग। इनको किस प्रकार अपने जीवन में आत्मसात किया जाये कि पुनर्जन्म से मुक्ति पाते हुए परमात्मा को प्राप्त कर सके| इसके लिए भगवान श्री कृष्ण ने एकदम साधारण रूप से गीता में स्पष्ट किया है|
गीता में योगेश्वर कहते हैं-
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः |
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति|| गीता १३/२९ ||
अर्थात्,जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ है|
हम सभी जानते हैं की इस संसार में जितनी भी घटनाएँ होती हैं ,वे सब प्राकृतिक. ही होती है| उसमे मानव चाहते हुए भी कोई बदलाव. नहीं कर सकता| फिर भी मनुष्य के शरीर में जो कुछ भी घटित होता है, उसे वह बदलकर अपनी ईच्छानुसार करना चाहता है| परमात्मा ने जब इस ब्रह्माण्ड की रचना की थी, तब समान रूप से एक सिद्धांत के अनुसार की थी| यह प्रमुख सिद्धांत है कि जो कुछ भी इस संसार में दिखाई देता है, सब आपस में एक दूसरे से सम्बंधित(Related) है और जो कुछ भी एक अणु में है वह विराट में भी है| सब में समानता है, भिन्नता कहीं भी नहीं है| यहाँ जो कुछ भी घटित होता है, चाहे वह इस संसार. में हो रहा हो अथवा इस भौतिक शरीर. में, सब प्रकृति के द्वारा ही होता है|
प्रकृति के कारण ही समस्त परिवर्तन होते हैं, परमात्मा तो अपरिवर्तनीय है| जो भी परिवर्तन का कारण है, वही सब कुछ करता और करवाता है| इस प्रकार प्रकृति, करने वाली. हुई और परमात्मा अकर्ता चूँकि आत्मा, परमात्मा का ही एक अंश है इस कारण से आत्मा भी अकर्ता मानना होगा| यही इस संसार की वास्तविकता है| परन्तु सांसारिक व्यक्ति प्रकृति को कर्ता न मानकर आत्मा यानि स्वयं को कर्ता मान लेता है, यही उसकी सबसे बड़ी भूल है| शरीर एक प्रकृति है और आप स्वयं एक आत्मा| जब आप अपने आप को शरीर मानने लग जाते हैं तब आप अपने आप को ही सब कुछ करने वाला समझने लग जाते हैं| यहीं से मन में ममता और कामनाओं का प्रादुर्भाव शुरू हो जाता है| ममता और कामनाओं के कारण शरीर के प्रति मोह पैदा हो जाता है| इसी तरह कामनाओं और इच्छाओं को पूरी करने के लिए कर्ता बनकर सकाम कर्म करने लग जाते हैं| सकाम कर्म आपका कभी भी पीछा नहीं छोड़ते हैं और आप जन्म-मृत्यु के भंवर में फंस जाते हैं|
जो पुरुष प्रकृति और आत्मा को सम्पूर्ण रूप से जान लेता है ,उसे इस बात का ज्ञान रहता कि जो भी कर्म वह कर रहा है वे सब प्रकृति द्वारा ही किये जा रहे हैं| उन कर्मों पर उसका किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं है और न ही वह इन सब पर कभी भी नियंत्रण कर सकेगा| तभी वह अपने आप को कर्ताभाव से मुक्त कर पायेगा| कर्ता भाव से मुक्त होते ही कर्म-मार्ग के अनुसार तीनों ही विकल्प एक साथ संपन्न हो जाते हैं फिर मनुष्य बिना आसक्ति के कर्म करता है यानि निष्कर्मता को प्राप्त हो जाता है| जो भी कर्म करता है वह परमात्मा के निमित्त ही करता है और कर्म-बंधन नहीं रहता है| कर्मबंधन के समाप्त होते ही कर्मफल का त्याग भी स्वतः ही हो जाता है|
मनुष्य मोह और ममता के कारण ही सकाम कर्म करता है| मोह और ममता एक आसक्ति पैदा करते हैं, यह आसक्ति व्यक्ति की स्वयं की पैदा की हुई है| लेकिन इस आसक्ति के कारण मनुष्य मोह पाश में इस प्रकार बन्ध जाता है कि उसे भी यह बंधन अच्छा लगने लगता है| यही कारण है कि मनुष्य लाख चाहने के बाद भी इस बंधन से मुक्त नहीं हो सकता लेकिन मनुष्य इस बंधन के लिए अपने आप को जिम्मेवार नहीं मानते हुए जिसके साथ बंधा हुआ है उसको जिम्मेवार मानता है| इसी कारण से इस बंधन को तोड़ पाने में वह असफल रहता है| जिस दिन वह यह वास्तविकता स्वीकार. कर लेगा कि ये समस्त बंधन उसके स्वयं के पैदा किये हुए हैं उस दिन वह इस मोह-बंधन और आसक्ति से मुक्ति पा लेगा|
एक गुरु अपने शिष्यों के साथ किसी दूसरे स्थान पर जाने के लिए यात्रा पर थे| रास्ते में उन्हें एक व्यक्ति मिला जो एक गाय को लेकर जा रहा था| गाय से बंधी रस्सी का दूसरा सिरा उस व्यक्ति के हाथ में था| गुरूजी ने अपने शिष्यों से पूछा कि इन दोनों में से कौन बंधा है? स्वाभाविक रूप से शिष्यों ने कहा-गुरूजी इसमे कौन सी नयी बात है| इनमे तो गाय ही बंधी है| तभी गुरूजी ने उस व्यक्ति के हाथ से रस्सी छुडाकर गाय को मुक्त कर दिया| गाय तुरन्त ही वहाँ से भाग छूटी| तभी वह व्यक्ति गुरूजी को भला-बुरा कहता हुआ गाय के पीछे उसे पकड़ने के लिए दौड़ा| गुरूजी ने शिष्यों को समझाया कि गाय उस व्यक्ति के साथ नहीं बंधी थी, बल्कि वह व्यक्ति गाय के साथ बंधा है| अगर गाय बंधी होती तो रस्सी खोलने के उपरांत भी कहीं नहीं जाती| गाय के साथ मनुष्य बंधा है, तभी तो वह उसे पकड़ने के लिए दौड रहा है| यही हालत आम आदमी की हैं| वे स्वयं किसी के साथ बंधे हैं और मानते है कि दूसरा उसके साथ बंधा है| जिस दिन वह स्वयं के बंधने को स्वीकार कर लेगा उसी दिन उसे यह बंधन खोलना भी आ जायेगा| फिर वह इस बंधन को तोड़कर स्वतन्त्र हो जायेगा|स्वतन्त्र होते ही उसकी सभी आसक्तियां समाप्त हो जायेगी और सभी कर्म, अकर्म हो जायेंगे| यही पुनर्जन्म से मुक्ति और परमात्मा कि प्राप्ति का सरल व सुगम मार्ग है|
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मण: फलम्|
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य ण तु सन्न्यासिनां क्वचित्|| गीता १८/१२ ||
अर्थात्,कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा,बुरा और मिला हुआ-ऐसे तीन प्रकार के फल मरने के पश्चात् अवश्य होते हैं, किन्तु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता| अतः सभी कर्म करते हुए कर्मफल का त्याग करदेना ही परमात्मा प्राप्ति का सर्वोत्तम विकल्प है|
परमात्मा प्राप्ति के लिए भगवान श्री कृष्ण ने प्रमुख रूप से तीन मार्ग बतलाये हैं| ध्यान मार्ग, ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग| गीता सबसे अधिक जोर कर्म मार्ग पर देती है, क्योंकि शेष दो मार्गों में भी कर्म आवश्यक है| सकाम कर्म करते हुए भी इन कर्मों को नष्ट करने के उपाय करके भी पुनर्जन्म से मुक्ति पाई जा सकती है| परन्तु केवल परमात्मा के प्रति प्रेम रख कर भी परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है,इसे प्रेम -पथ भी कह सकते हैं| जब परमात्मा के प्रति प्रेम पैदा हो जाता है, तब समस्त सकाम कर्मों से मनुष्य अपने आप को अलग कर लेता है| यही कर्म-सन्यास है| यह मार्ग देखने में बड़ा ही सरल लगता है क्योंकि इसमे कर्म करने की कोई भी आवश्यकता नहीं होती है| परन्तु वास्तविकता यह है कि कर्म न करने से ज्यादा आसान है कर्म करते रहना| प्रेम-मार्ग में कर्म होते ही नहीं है, केवल परमात्मा के प्रति असीम प्रेम ही होता है|