ज्योतिष के अंतर्गत जातक की जन्म कुंडली में कई प्रकार के योग होते हैं, जिनका उस पर प्रभाव पड़ता है ऐसा ही एक योग है प्रवज्या यानी संन्यास योग कुंडली में दशम भाव से प्रवज्या योग का विचार किया जाता है इस योग में जन्मे मनुष्य सांसारिक मोह-माया से विमुख होकर वैरागी हो जाते हैं और संन्यास धारण कर लेते हैं ऐसे लोगों को संसार निरर्थक प्रतीत होने लगता है और गृहस्थ जीवन में उन्हें मन नहीं लगता है इस योग का बहुत ग्रंथों में वर्णन किया गया है ऐसा ही एक योग है प्रावज्य योग जो अगर कुंडली में हो तो जातकों में वैरागी बनने के लक्षण प्रबल हो जाते हैं।


चार या चार से अधिक ग्रहों का एकत्रित होना उनमें किसी का बली होना वह बली ग्रह अस्त न हो वह बली ग्रह, ग्रह-युद्ध में हारा न हो हारे हुए बली ग्रह पर अन्य ग्रह की दृष्टि न पडती हो तथा उन ग्रहों में से कोई दशमाधिपति होना चाहिए अब विचार करने योग्य है कि किस ग्रह से कौन सा प्रवज्या योग होगा:- सूर्य के प्रवज्याकारक होने से जातक वानप्रस्थ, अग्निसेवी, पर्वत या नदी तीर वासी, सूर्य, गणेश या शक्ति का उपासक और ब्रह्मचारी होता है कभी कभी ऐसा जातक साधारण जीवन व्यतीत करते हुए परमात्मा के चिंतन में लीन रहता है।
चंद्रमा बली होकर प्रवज्या योग बनाता है तब ऐसा जातक गुरु, संन्यासी, नग्न कपालधारी संन्यासी या शैवमतावलंबी होता है।
मंगल के प्रवज्याकारक होने से शाक्य (बौद्ध मतावलंबी) गेरुआ वस्त्रधारी, जितेन्द्रिय, भिक्षा वृत्ति वाला सन्यासी होता है।
बुध बली होकर प्रवज्या योग बनाए तो जातक कपटी, कपालिक तांत्रिक व संन्यासी होता है।

बृहस्पति के बली होने से प्रवज्या योग बनता है तो जातक भिक्षुक, तपस्वी, नीतिशास्त्र, वेदों-उपनिषदों का ज्ञाता, यज्ञादि कर्म करने वाला संन्यासी होता है।
शुक्र-के प्रवज्या योग कारक होने से जातक देश-विदेश में भ्रमण करने वाला वैष्णव धर्म परायण, कथा वाचक, व्रत नियम धारण करने वाला संन्यासी होता है।
शनि के प्रवज्या कारक होने से जातक फकीर, दिगंबर आदि मत को मानने वाले, कठोर तपस्वी, मनस्वी व संन्यासी होते है।


गीता में कृष्ण ने भी सन्यास के बारे में कहा है:-
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन॥

हे पाण्डुपुत्र! जिसे संन्यास कहते हैं उसे ही तू योग (परब्रह्म से मिलन कराने वाला) समझ, क्योंकि इन्द्रिय-सुख (शरीर के सुख) की इच्छा का त्याग किये बिना कभी भी कोई मनुष्य योग (परमात्मा) को प्राप्त नहीं हो सकता है।
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥

मन को वश में करने की इच्छा वाले मनुष्य को योग की प्राप्ति के लिये कर्म करना कारण होता है और योग को प्राप्त होते-होते सभी सांसारिक इच्छाओं का अभाव हो जाना ही कारण होता है।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्‍कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते॥

ऐसा मनुष्य सभी सांसारिक इच्छाओं का त्याग कर के न तो शारीरिक सुख के लिये कार्य करता है और न ही फ़ल की इच्छा से कार्य में प्रवृत होता है उस समय वह मनुष्य योग मे स्थित कहलाता है।
उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥

मनुष्य को चाहिये कि वह अपने मन के द्वारा अपना जन्म-मृत्यु रूपी बन्धन से उद्धार करने का प्रयत्न करे और अपने को निम्न-योनि में न गिरने दे क्योंकि यह मन ही जीवात्मा का मित्र है और यही जीवात्मा का शत्रु भी है।
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्‌॥

जो मनुष्य मन को वश में कर लेता है उसका वह मन ही परम-मित्र बन जाता है लेकिन जो मनुष्य मन को वश में नहीं कर पाता है उसके लिए वह मन ही परम-शत्रु के समान होता है।
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥

जिसने मन को वश में कर लिया है उसको परम-शान्ति स्वरूप परमात्मा पूर्ण-रूप से प्राप्त हो जाता है उस मनुष्य के लिये सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और मान-अपमान एक समान होते है।
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः॥

ऎसा मनुष्य स्थिर चित्त वाला और इन्द्रियों को वश में कर के परमात्मा के ज्ञान द्वारा परमात्मा को प्राप्त कर के पूर्ण सन्तुष्ट रहता है ऎसे परमात्मा को प्राप्त हुए मनुष्य के लिये मिट्टी, पत्थर और सोना एक समान होते है।सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥

ऐसा मनुष्य स्वभाव से सभी का हित चाहने वाला, मित्रों और शत्रुओं में, तटस्थों और मध्यस्थों में, शुभ-चिन्तकों और ईर्ष्यालुओं में, पुण्यात्माओं और पापात्माओं में भी एक समान भाव रखने वाला होता है।
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥

ऐसा मनुष्य निरन्तर मन सहित शरीर से किसी भी वस्तु के प्रति आकर्षित हुए बिना तथा किसी भी वस्तु का संग्रह किये बिना परमात्मा के ध्यान में एक ही भाव से स्थित रहने वाला होता है।

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