विद्वानों ने उपनिषद शब्द की व्युत्पत्ति उप+नि+षद् के रूप में मानी है। इसका अर्थ है कि जो ज्ञान व्यवधान रहित होकर निकट आये, जो ज्ञान विशिष्ट तथा संपूर्ण हो तथा जो ज्ञान सच्चा हो वह निश्चित ही उपनिषद कहलाता है। अर्थात् वह ज्ञान जो गुरु के समीप बैठकर प्राप्त किया गया हो। उपनिषदों की भाषा संस्कृत है तथा ये गद्य – पद्य दोनों में हैं। इनकों वेदांत भी कहा गया है, क्योंकि ये वेदों के अंतिम भाग हैं। उपनिषदों में आत्मा तथा अनात्मा के तत्वों का निरुपण किया गया है, जो वेद के मौलिक रहस्यों का प्रतिपादन करता है। इनमें ज्ञान से संबंधित समस्याओं पर विचार किया गया है। उपनिषद भारत के अनेक दार्शनिक, जिन्हें ऋषि कहा जाता है, के अनेक वर्षों के गंभीर चिंतन – मनन का परिणाम हैं।
केनोपनिषद में क्या है?
सामवेदीय जैमिनीय शाखा के ‘तलवकार ब्राह्मण’ के नौवें अध्याय में इस उपनिषद का उल्लेख किया गया है। इस उपनिषद् में मन,इन्द्रियों और प्राणों के गतिदाता तथा संसार को नियमित रूप से गति देने वाले का विस्तृत वर्णन है। यह एक महत्त्वपूर्ण उपनिषद है। इसमें ‘केन’ (अर्थात्- किसके द्वारा) का विवेचन होने से इसे ‘केनोपनिषद्’ कहा गया है। इसके चार खण्ड हैं। प्रथम और द्वितीय खण्ड में गुरु-शिष्य की संवाद-परम्परा द्वारा उस (केन) प्रेरक सत्ता की विशेषताओं, उसकी गूढ़ अनुभूतियों आदि पर प्रकाश डाला गया है। तीसरे और चौथे खण्ड में देवताओं में अभिमान तथा उसके मान-मर्दन के लिए ‘यज्ञ-रूप’ में ब्राह्मी-चेतना के प्रकट होने का उपाख्यान है। अन्त में उमा देवी द्वारा प्रकट होकर देवों के लिए ‘ब्रह्मतत्त्व’ का उल्लेख किया गया है तथा ब्रह्म की उपासना का ढंग समझाया गया है। मनुष्य को ‘श्रेय’ मार्ग की ओर प्रेरित करना, इस उपनिषद का लक्ष्य हैं।
प्रथम खण्ड
वह कौन है?
इस खण्ड में ‘ब्रह्म-चेतना’ के प्रति शिष्य अपने गुरु के सम्मुख अपनी जिज्ञासा प्रकट करता है। वह अपने मुख से प्रश्न करता है कि वह कौन है, जो हमें परमात्मा के विविध रहस्यों को जानने के लिए प्रेरित करता है? ज्ञान-विज्ञान तथा हमारी आत्मा का संचालन करने वाला वह कौन है? वह कौन है, जो हमारी वाणी में, कानों में और नेत्रों में निवास करता है और हमें बोलने, सुनने तथा देखने की शक्ति प्रदान करता है?
शिष्य के प्रश्नो का उत्तर देते हुए गुरु बताता है कि-
जो साधक मन, प्राण, वाणी, आंख, कान आदि में चेतना-शक्ति भरने वाले ‘ब्रह्म’ को जान लेता है, वह जीवन्मुक्त होकर अमर हो जाता है तथा आवागमन के चक्र से छूट जाता है।
वह महान चेतनतत्त्व (ब्रह्म) वाक् का भी वाक् है, प्राण-शक्ति का भी प्राण है, वह हमारे जीवन का आधार है, वह चक्षु का भी चक्षु है, वह सर्वशक्तिमान है और श्रवण-शक्ति का भी मूल आधार है। हमारा मन उसी की महत्ता से मनन कर पाता है। उसे ही ‘ब्रह्म’ समझना चाहिए। उसे आंखों से और कानों से न तो देखा जा सकता है, न सुना जा सकता है।
केनेषितं पतति प्रेषितं मन: केन प्राण: प्रथम: प्रैति युक्त:।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षु:श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति॥ १ ॥
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राण:।
चक्षुषश्चक्षुरतिमुच्य धीरा: प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥ २ ॥
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मन:।
न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात् ॥ ३ ॥
यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥ ४ ॥
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ५ ॥
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यति।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥६॥
यच्छ्रोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम्।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ७ ॥
यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राण: प्रणीयते।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ८ ॥
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