जीवित्पुत्रिका (जिउतिया) व्रत का मुहूर्त
नहाय खाय- बुधवार 9 सितम्बर 2020 को

व्रत – बृहस्पतिवार, 10 सितम्बर, 2020 को

अष्टमी तिथि प्रारम्भ – सितम्बर 10,
2020 को 02:05 ए एम बजे

अष्टमी तिथि समाप्त – सितम्बर 11,

2020 को 03:34 ए एम बजे

जिउतिया व्रत (संक्षेप में)
वंश वृद्धि व संतान की लंबी आयु के लिए महिलाएं आश्विन कृष्ण पक्ष अष्टमी १० सितंबर को जिउतिया (जीमूतवाहन) का व्रत रखेंगी। इस व्रत में व्रती निर्जला और निराहार रहती हैं।सभी सनातन धर्मावलंबियों में इस व्रत का खास महत्व है।इस व्रत से एक दिन पहले सप्तमी ९ सितंबर को महिलाएं नहाय-खाए करेंगी। गंगा सहित अन्य पवित्र नदियों में स्नान करने के बाद मड़ुआ की रोटी, नोनी का साग, कंदा, झिमनी आदि का सेवन करेंगी। व्रती स्नान-भोजन के बाद पितरों की पूजा भी करेंगी। सूर्योदय से पहले सरगही-ओठगन करके इस कठिन व्रत का संकल्प लिया जाएगा। व्रत का पारण ११ सितंबर की दोपहर में होगा।
इस व्रत को जितिया या जीउतिया या जीवित्पुत्रिका व्रत के नाम से भी जानते हैं।

कैसे करें जिउतिया व्रत।
यह व्रत वैसे तो आश्विन मास की अष्टमी को रखा जाता है लेकिन इसका उत्सव तीन दिनों का होता है। सप्तमी का दिन नहाई खाय के रूप में मनाया जाता है तो अष्टमी को निर्जला उपवास रखना होता है। व्रत का पारण नवमी के दिन किया जाता है। वहीं अष्टमी को शाम प्रदोषकाल में संतानशुदा स्त्रियां माता जीवित्पुत्रिका और जीमूतवाहन की पूजा करती हैं और व्रत कथा सुनती या पढ़ती है। इसके साथ ही अपनी श्रद्धा व सामर्थ्य के अनुसार दान-दक्षिणा भी दी जाती है। इस व्रत में सूर्योदय से पहले खाया पिया जाता है। सूर्योदय के बाद पानी भी नहीं पिया जाता है। इसके साथ ही सूर्योदय को अर्घ्य देने के बाद कुछ खाया या पिया जाता है।

जिउतिया व्रत का महत्व
इस व्रत का खासा महत्व है, इस व्रत से निःसंतान व्यक्ति को भी संतान सुख प्राप्त होता है, ये पर्व मुख्य रूप से यूपी, बिहार और झारखंड में मनाया जाता है। आज सूर्यास्त के बाद से व्रत रखने वाले लोग कुछ नहीं खाएंगे और कल बिना पानी का व्रत शुरू होगा।

जिउतिया व्रत में खाद्य सामिग्री का बड़ा महत्व है
आज भोजन में बिना नमक या लहसुन आदि के सतपुतिया (तरोई) की सब्जी, मंडुआ के आटे के रोटी, नोनी का साग, कंदा की सब्जी और खीरा खाने की पंरपरा है तो वहीं व्रत के आखिरी दिन भात, मड़ुआ की रोटी और नोनी का साग बनाकर खाने की परंपरा है।

कहा जाता है कि जो इस व्रत की कथा को सुनता है वह जीवन में कभी संतान वियोग या संतान का कष्ट नहीं भोगता।
महाभारत का प्रसंग
इस व्रत की कथा महाभारत काल से जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध के बाद अश्वथामा अपने पिता की मृत्यु की वजह से क्रोध में था। वह अपने पिता की मृत्यु का पांडवों से बदला लेना चाहता था। एक दिन उसने पांडवों के शिविर में घुस कर सोते हुए पांडवों के बच्चों को मार डाला। उसे लगा था कि ये पांडव हैं। लेकिन वो सब द्रौपदी के पांच बेटे थे। इस अपराध की वजह से अर्जुन ने उसे गिरफ्तार कर लिया और उसकी मणि छीन ली। इससे आहत अश्वथामा ने उत्तरा के गर्भ में पल रही संतान को मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया। लेकिन उत्तरा की संतान का जन्म लेना जरूरी था। जिस वजह से श्रीकृष्ण ने अपने सभी पुण्य का फल उत्तरा की गर्भ में मरी संतान को दे दिया और वह जीवित हो गया। गर्भ में मरकर जीवित होने के वजह से उसका नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा और यही आगे चलकर राज परीक्षित बने। तब से ही इस व्रत को रखा जाता है।

💐।। नमो नारायणाय ।।💐
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जीमूतवाहन की कथा
गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था। जीमूतवाहन बड़े उदार और परोपकारी थे। जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय जीमूतवाहन को राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु जीमूतवाहन मन राज-पाट में नहीं लगता था वे राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए। वहीं पर उनका मलयवती नामक राजकन्या से विवाह हो गया। एक दिन जीमूतवाहन वन में भ्रमण करते हुए काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी।
जीमूतवाहन के पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया ” मैं नागवंश की स्त्री हूं और मुझे एक ही पुत्र है. पक्षिराज गरुड के समक्ष नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है,आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है। ”
जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा ” डरो मत, मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज उसके बजाय मैं स्वयं अपने आपको उसके लाल कपडे में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा। ”
इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपडा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए। नियत समय पर गरुड बड़े वेग से आए और वे लाल कपडे में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड के शिखर पर जाकर बैठ गए। अपने चंगुल में गिरफ्तार प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से आह निकलता न देखकर गरुडजी बड़े आश्चर्य में पड गए। उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा। जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया। गरुड जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। प्रसन्न होकर गरुड जी ने उनको जीवनदान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया। इस प्रकार जीमूतवाहन के अदम्य साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई और तबसे पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई।

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