आप जानते हैं, कि किस तरह विश्वामित्र जी राम और लक्ष्मण को दशरथ जी से मांग कर ले आये और तड़का, मारीच और सुबाहु का भगवान ने वध कर दिया। अब धनुष यज्ञ की ओर राम लक्ष्मण और विश्वामित्र जी चले जा रहे है। मार्ग में एक सुनसान आश्रम आया है। भगवान राम की नजर उस पर पड़ी है। भगवान राम जी पूछते हैं गुरुदेव ये किस प्रकार का आश्रम हैं। यहाँ पर लगता हैं पहले कोई रहता था पर अब ना कोई प्राणी हैं ना कोई जीव हैं। एकदम वीरान हैं ये आश्रम। और तो और यहाँ पर कोई कोई पशु-पक्षी,जीव-जंतु भी नही दिखाई देता हैं।
आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥
तब विश्वामित्र जी कहते हैं राम! तुम तो अंतर्यामी हो सब जानते हो। जहाँ पर किसी की नजर आज तक नही पड़ी वहां पर तुम्हारी कैसे पड़ गई?
भगवान राम मन में मुस्कुरा कर कहते हैं गुरुदेव, जहाँ पर कोई नही पहुंच सकता मैं तो वहां भी कृपा करता हूँ। मैं सब पर दया करता हुँ।
फिर विश्वामित्र जी ने पूरी कथा राम जी को बताई हैं। गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।यह कथा अलग-अलग ग्रंथो में अलग-अलग तरह से है। लेकिन सबका मूल एक ही है। की भगवान के चरणों की रज(धूल) से इंसान तो क्या पत्थर में भी जान आ जाती है। और भगवान सब पर अपनी कृपा करते है। इसलिए सभी भक्तों से विनम्र निवेदन हैं आप केवल परमात्मा की कृपा को पाने के लिए इस कथा को पढ़िए। भगवान श्री राम के चरणों में प्रीति हो इसलिए इस कथा को पढ़िए। ब्रह्मा जी ने अपनी मानस पुत्री अहिल्या की रचना थी। इनको ये वर था की ये हमेशा 16 साल की रहेंगी। जिस कारण इन्द्रादि देवता के मन में अहिल्या को पाने की कामना मन में जाग गई। तब ब्रह्मा ने एक स्पर्धा रखी जिसमे गौतम ऋषि जीते और उनका विवाह अहिल्या से हुआ। अहिल्या बहुत सुन्दर थी जिस पर इंद्र आशक्त था। जब इंद्र को यह पता चला कि उसकी अहिल्या गौतम ऋषि के पास है तो वह चन्द्रमा के साथ गौतम ऋषि के आश्रम में आया। वहां पर इंद्र मुर्गा बना और आधी रात को ही बांग दे दी। चन्द्रमा को द्वारपाल बनाया कि अगर गौतम लौटे तो वह इन्द्र को सूचित कर सके। और इंद्र ने गौतम का छद्मवेश धारण कर के अहिल्या के साथ छल किया।अहिल्या उन्हें ऋषि गौतम ही समझ रही थी, और अपना सर्वस्व दे दिया। उधर गौतम ऋषि ने जब मुर्गे कि आवाज़ सुनी तो सोचा की ब्रह्म मुहूर्त का समय हो गया हो और गंगा नदी पर पहुंचे स्नान करने पहुंचे। और उन्होंने अपना कमंडल भरने के लिए उसे नदी में डाला, तो माता गंगा बोलीं, “अरे भाई! तुम इस समय यहाँ क्या कर रहे हो?” “माता गंगा! में यहाँ प्रतिदिन सुबह को स्नान के लिए आया करता हूँ। लेकिन आप ऐसा प्रश्न क्यों पूछ रही हो?” “गौतम! अभी तो अर्धरात्रि ही है। अपने घर वापस जाओ क्योंकि राजा इंद्र तुम्हारी पत्नी के साथ छल कर रहा है।”
अब गौतम ऋषि जल्दी-जल्दी अपने घर कि ओर लौटे। जब ऋषिराज गौतम अपने आश्रम के समीप पहुंचे तो उन्होंने छत पर चन्द्रमा को बैठे देखा। उन्हें देखते ही चन्द्रमा भागने लगा, देवर्षि ने अपना मृगछाला(गीले वस्त्र) उसपर फेंक कर मारा कहते हैं। उसी मृगछाले का निशान, आज तक चाँद पर है। गीले वस्त्र चन्द्रमा पर फेंकने के कारण चन्द्रमा आज भी गदला है। इंद्र की पापभरी योजना में चंद्रमा ने भी सहयोग किया था इसलिए गौतम ऋषि ने चंद्रमा को श्राप दिया कि चंद्र ने ब्रह्मा द्वारा निर्धारित नियमों का पालन नहीं किया और देवराज इंद्र को बुरे कर्म में सहयोग किया है इसलिए चंद्र को राहू ग्रसेगा। तभी से चंद्रमा को भी ग्रहण लगने लगा। इस प्रकार चन्द्रमा में दाग लग गया। उनकी क्रोधित वाणी, इन्द्र के कानों पर भी पड़ी, वो भी निकल कर भागे..और ऋषिराज गौतम से टकराए, ऋषि ने उन्हें तुरंत नपुंसक हो जाने और सहस्रों भागों वाला हो जा श्राप दे दिया। इस श्राप का तुरंत प्रभाव हुआ और इंद्र के पुरे शरीर पर भग ही भग हो गए, जब इंद्र वापस स्वर्ग पहुंचा तो अप्सराये देवगन भी उसका उपहास उड़ने लगे। तब इंद्र ने स्वर्ग छोड़ दिया और किसी अँधेरी और सुनसान गुफा में रहने लगा, वंही उसने भगवान शिव की तपस्या की और तब जाकर ऋषि ने हजार साल बाद अपने कोप को थोड़ा कम किया और भग को आँखों में बदला। तब से इंद्र को हजार आँखों वाला कहते है। ये भी कहा जाता है की अहिल्या ने इंद्र को कुष्ठ रोग होने का श्राप दिया था।इधर अहिल्या की अस्त-व्यस्त अवस्था देख कर देवर्षि सब कुछ समझ ही चुके थे। अहिल्या को भी पाषाण हो जाने का श्राप दे दिया। परन्तु उन्हें इस बात का भी अनुमान था, कि अहल्या उतनी दोषी नहीं थी, लेकिन क्रोध में श्राप तो दे चुके थे। इसलिए इस श्राप से मुक्ति का भी उपाय बता गए थे। दशरथ पुत्र राम के चरण रज जब भी उस पाषण पर पड़ेंगे वो मुक्त हो जायेगी। विश्वामित्र जी कहते हैं हे राम! इन्होने आपका बहुत इंतजार किया हैं। आप इनको अपने चरण कमल की रज(धूल) से पवित्र करो। चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥
फिर भगवान ने अपने चरणों का स्पर्श अहिल्या जी को दिया हैं। और जैसे ही स्पर्श हुआ हैं वहां पर तपोमूर्ति अहिल्या जी प्रकट हो गई हैं।
परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
अहिल्या जी दोनों हाथ जोड़कर राम जी के सामने खड़ी हैं। बस भगवान को एकटक निहार रही हैं। मुख से कुछ बोल नही पा रही है। वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनंद के आँसुओं) की धारा बहने लगी॥
अब अहिल्या जी भगवान की स्तुति प्रारम्भ करती हैं- हे ज्ञान से जानने योग्य श्री रघुनाथजी! आपकी जय हो। मैं एक अपिवत्र स्त्री हूँ लेकिन आप जगत को पवित्र करने वाले हो और भक्तों को सुख देने वाले हो। हे कमलनयन! मैं आपकी शरण आई हूँ, (मेरी) रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए।
मुनि(मेरे पति) ने मुझे शाप दिया तो अच्छा ही किया क्योंकि आज आपके दर्शन मुझे मिले हैं और आपको इन नेत्रों से जी भर के देखा। जिस रूप को भगवान शंकर देखकर आनंद प्राप्त करते हैं। मैं बुद्धि की बड़ी भोली हूँ, मेरी एक विनती है। हे नाथ ! मैं और कोई वर नहीं माँगती, केवल यही चाहती हूँ कि मेरा मन रूपी भौंरा आपके चरण-कमल की रज के प्रेमरूपी रस का सदा पान करता रहे॥
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥
जिन चरणों से गंगा निकली हैं, भगवान शिव जिन चरणों को अपने शीश पर धारण करते हैं। जिन चरणकमलों को ब्रह्माजी पूजते हैं, कृपालु हरि (आप) ने उन्हीं को मेरे सिर पर रखा। हे हरि! आपकी अनंत कृपा हैं। इस प्रकार अहिल्या जी ने सुंदर स्तुति गाई हैं और भगवान के धाम को प्राप्त किया हैं।
तुलसीदास जी महाराज कहते हैं की भगवान तो बिना कारण ही दया करने वाले हैं। अरे मन! तू कपट-जंजाल छोड़कर उन्हीं का भजन कर।
अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल॥