ज्ञानसंजीवनी

गीता का श्लोक ७/७ एवं अद्वैत मत का समर्थन नहीं करता है। यह श्लोक इस प्रकार है।
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥

भावार्थ
हे धनंजय! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मुझमें गुँथा हुआ है
यह भगवद्गीता के सातवें अध्याय का सातवाँ श्लोक है। इसका जो भावार्थ दिया गया है वह गीत प्रेस गोरखपुर की पुस्तक से लिया गया है।
इस भावार्थ में दो महत्वपूर्ण तथ्य कहे गये हैं।
१. मुझसे भिन्न कोई परम कारण इस (जगत का) नहीं है।
२. श्लोक में दिये गये सूत्र और मणियों के उदाहरण में मणियों को सूत्र से बनी हुई बताया गया है।

ये दोनों ही तथ्य श्लोक से असम्बद्ध हैं।
सबसे पहले इस श्लोक का अन्वय देख लेते हैं।
धनञ्जय मत्त: परतरम् किञ्चित् अन्यत् न अस्ति इदम् सर्वम् सूत्रे मणिगणा: इव मयि प्रोतम्।

इस अन्वय का अवलोकन करने पर श्लोक का सीधा अर्थ बनता है- हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठतर (परतर) अन्य कुछ भी नहीं है। मुझमें यह सब कुछ (जगत) ऐसे पिरोया हुआ है जैसे धागे में मणियाँ।

गीता प्रेस के इस अर्थ में सारी खींचतान परतरं पद के अर्थ में की गयी है। इस पद के अर्थ में परमात्मा को जगत का आदि कारण बताते हुए कहा दिया गया है कि मेरे सिवाय अन्य कोई कारण इस जगत का नहीं है। यह ठीक है कि परमात्मा ही जगत का आदि कारण है परन्तु यहाँ श्लोक में तो इस तथ्य का कोई उल्लेख नहीं है। यहाँ तो कहा है कि मुझसे परतर अन्य कुछ नहीं है। पर शब्द का अर्थ श्रेष्ठ है। परतरं पद में जो तर प्रत्यय लगा है वह तुलना (comparative degree for comparison) करने के लिए है। यदि पर शब्द का अर्थ भिन्न या अन्य दूसरा करें तो तर प्रत्यय की आवश्यकता ही नहीं है। भिन्न शब्द, भिन्नता बताने के लिए पर्याप्त है इसलिए किसी दूसरे शब्द या प्रत्यय की अपेक्षा नहीं रखता।

श्रेष्ठ शब्द में तर प्रत्यय लगाने से वह तुलनात्मक रूप से अधिक श्रेष्ठ होने का भाव प्रकट करता है। इसलिए पर का अर्थ श्रेष्ठ ही किया जाना चाहिए।

गान्धी जी अपने गीता भाष्य अनासक्ति योग में परतरं का अर्थ Higher than ही करते हैं। देखें-
There is nothing higher than I, O Dhananjay! all this is strung on me as a row of gems upon a thread.
The Bhagwadgita by MK Gandhi
Page 182.

डाक्टर राधाकृष्णन भी इस पद का यही अर्थ करते हैं। देखें-
ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो मुझसे श्रेष्ठतर हो। जो कुछ भी इस संसार में है, वह मुझमें उसी प्रकार पिरोया हुआ है जैसे कि मणियाँ धागे में पिरोयीं रहतीं हैं।
भगवद्गीता डा.सर्वपल्ली राधाकृष्णन पृष्ठ २५६।

भगवान आदिशंकराचार्य इस पद का अर्थ करते हुए परतरं अन्यत् कारणान्तरम् लिखते हैं। परतरं अर्थात् मेरे सिवाय (जगत का) अन्य कारण। इसमें कारण का भाव वे पिछले श्लोक से लाते हैं। वहाँ कहा है-
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा।।
गीता ७/६
अर्जुन! ऐसा समझ लो कि ये परा और अपरा प्रकृति सभी पदार्थों और प्राणियों की योनि हैं।

अब समझने की बात यह है कि ये परा और अपरा प्रकृति तो हैं। ये ही संसार का निर्माण करने में हेतु हैं। ये परमात्मा से अश्रेष्ठ हैं। परमात्मा के वशीभूत हैं।

गीता में ही कहा है-
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।

मेरी अध्यक्षता (देख रेख) में यह प्रकृति ही सम्पूर्ण अचर को चर के साथ उत्पन्न करती है। इससे स्पष्ट है कि प्रकृति अचर का प्रसव करती है, चर उसका उपभोग करने के लिए आ जाता है।

ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशनीशा-
वजा ह्येका भोक्तृभोग्यार्थ युक्ता।
श्वेताश्वतरोपनिषद १/९
दो चेतन हैं। एक ज्ञानी है, दूसरा अज्ञानी। एक ईश अर्थात स्वामी है, दूसरा अनीश। एक और अजा है। वह प्रकृति है। यह अजन्मा प्रकृति जीवात्मा के भोग करने हेतु नियुक्त है।

प्रकृति जड़ है और जीवात्मा चेतन। यह जीवात्मा प्रकृति का भोग करने के कारण सुख दुःख में फँसता रहता है।

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते।
पुरुष: सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।
गीता १३/२०
संसार के सभी कार्यों को करने के साधनों, उपकरणों को बनाने में प्रकृति की भूमिका है और सुख दुःखों को भोगने में जीवात्मा की।

यह सब बताने का प्रयोजन यह है कि जो श्लोक ७/७ में कहा गया है कि मुझसे श्रेष्ठतर कुछ नहीं है, यह श्लोक परमात्मा से अश्रेष्ठ के अस्तित्व से मना नहीं करता।
परमात्मा से अश्रेष्ठ ये दोनों, प्रकृति और जीवात्मा हैं।

गीता में ही २५ अन्य स्थानों पर “पर” शब्द का प्रयोग किया गया है। ये स्थल निम्नानुसार हैं। इन सभी में पर का अर्थ श्रेष्ठ, आगे का इत्यादि ही प्रदर्शित है।

सर्वे वयमत: परम्। गीता २/१२
अतः आगे भी हम सब रहेंगे।

परं दृष्ट्वा निवर्तते। गीता २/५९
श्रेष्ठ (परमात्मा) को देखकर निवृत्त हो जाता है।

श्रेय: परमवाप्स्यथ। गीता ३/११
श्रेष्ठ कल्याण को प्राप्त करोगे।

परमाप्नोति पूरुष:। गीता ३/१९
पुरुष श्रेष्ठ (परमात्मा) को प्राप्त करता है।

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:।
मनसस्तु परा बुद्धि: बुद्धे: परतस्तु स:।।
गीता ३/४२
शरीर से श्रेष्ठ इंद्रियाँ हैं। इन्द्रियों से श्रेष्ठ मन है। मन से श्रेष्ठ बुद्धि है और बुद्धि से श्रेष्ठ जीवात्मा है।

एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा। गीता ३/४३
इस प्रकार बुद्धि से श्रेष्ठ को जानकर।

परं जन्म विवस्वत: । गीता ४/४
विस्वत का जन्म बहुत पहले हुआ था। (इसलिए वह आपसे आयु में श्रेष्ठ है।)

प्रकाशयति तत्परम्। गीता ५/१६
उस श्रेष्ठ (परमात्मा) को प्रकाशित कर देता है।

मामेभ्य: परमव्ययम्। गीता ७/१३
इन गुणों से श्रेष्ठ मुझ अव्यय परमात्मा को।

परं भावमजानन्त:। गीता ७/२४
मेरे श्रेष्ठ भव को न जानते हुए।

स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्। गीता ८/१०
वह उस श्रेष्ठ, दिव्य परमात्मा को पा जाता है।

योगी परं स्थानमुपैति दिव्यम्। गीता ८/२८
योगी, श्रेष्ठ दिव्य स्थान को पा जाता है।

परं भावमजानन्त:। गीता ९/११
श्रेष्ठ भाव को न जानते हुए।

परं ब्रह्म परं धाम। गीता १०/१२
श्रेष्ठ ब्रह्म और श्रेष्ठ धाम।

त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्। गीता ११/१८
तुम इस विश्व के श्रेष्ठ निधान (आश्रय) हो।

त्वमक्षरं सदसत्तपरं यत्। गीता ११/३७
तुम सत् और असत् दोनों से श्रेष्ठ, विलक्षण अक्षर हो इसलिए।

त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्। गीता ११/३८
तुम इस विश्व के श्रेष्ठ निधान (आश्रय) हो।

वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम। गीता ११/३८
तुम जानने योग्य और जानने वाले हो। सबके श्रेष्ठ आश्रय हो।

रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्। गीता ११/४७
अपने आत्मयोग से श्रेष्ठ रूप दिखाया।

अनादिमत्परंब्रह्म। गीता १३/१२
अनादि (गुण) वाले श्रेष्ठ ब्रह्म।

तमस: परमुच्यते। गीता १३/१७
अन्धकार से बहुत आगे (उत्तम) कहा जाता है।

ये विदुर्यान्ति ते परम्। गीता१३/३४
जो जानते हैं वे श्रेष्ठ (परमात्मा) को पा जाते हैं।

परं भूय: प्रवक्ष्यामि। गीता १४/१
उस श्रेष्ठ ज्ञान को पुनः कहूँगा।

गुणेभ्यश्च परं वेत्ति। गीता १४/१९
सभी गुणों से श्रेष्ठ (परमात्मा) को जान लेता है।

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।
गीता १८/७५
व्यास की कृपा से मैंने यह श्रेष्ठ और गुह्य (संवाद) सुना है।

गीता प्रेस के अर्थ में दूसरा तथ्य भगवान द्वारा अपने कथन की पुष्टि में दिये गये उदाहरण का मनमाना अर्थ करने में है। उदाहरण यह है कि सब कुछ मुझमें इस प्रकार पिरोया गया है जैसे सूत्र में मणियाँ। यह उदाहरण ही यह बात दर्शाने के लिए है कि मणि और सूत्र पृथक-पृथक हैं। इनमें भी सूत्र की वरीयता है। वह एक ही है और माला के अस्तित्व के लिए मणियों को बाँधकर अनुशासन में वैसे ही रखता है जैसे एक परमात्मा प्रकृति और जीवात्माओं को अनुशासन में रखता है। प्रकृति अनन्तरूपों में हो जाती है और जीवात्माएँ अनन्त हैं। इसलिए सूत्र एकवचन में है और मणिगणा: बहुवचन में हैं। इनमें अद्वैत नहीं है। गीता प्रेस के अर्थ में अद्वैत बताने के लिए एक मनगढन्त बात कह दी गयी है कि मणियाँ सूत्र की बनीं हुईं हैं। मणियाँ, मणि-रत्नों की बनी होतीं हैं और सूत्र अन्य किसी धागा या धात्विक पदार्थ का।

यह सब गीता के इस महत्वपूर्ण श्लोक के आशय से भिन्न अर्थ प्रतिपादित करने के लिए की खींचतान है।

यह लेख विद्वज्जनों के अवलोकन हेतु और विचार आमन्त्रित करने हेतु प्रस्तुत है।

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