प्राचीन काल में वैदिक सभ्यता तथा ज्ञान विश्व व्यापी था। भारत में सभी प्रकार के विचारों को स्वीकार किया गया, अतः यहाँ विदेशी आक्रमण द्वारा नष्ट होने पर भी ज्ञान सुरक्षित रहा। अन्य देशों में एक पैगम्बर आते ही पिछले सभी पैगम्बरों के चिह्न तथा परम्परा मिटा देता है। अतः वहाँ सनातन सभ्यता नष्ट हो गयी।
प्राचीन ज्ञान का उद्धार केवल भारत के लिये गर्व की भावना नहीँ है। यह आधुनिक विज्ञान की उन्नति के लिये भी आवश्यक है।
आध्यात्मिक विषयों में योग, ज्योतिष तथा तन्त्र के विज्ञान आज भी रहस्यमय है। शरीर के किस चक्र पर ध्यान या संयम करने से मन, बुद्धि तथा स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव होगा, इनका तन्त्र तथा योग ग्रन्थों में वर्णन है तथा उसके अभ्यास से लाभ भी होता है। पर इसका वैज्ञानिक रहस्य अज्ञात है। आयुर्वेद में मानसिक तथा भूत रोगों की व्याख्या है जिनमें शोध की आवश्यकता है। किस अन्न, फल या वनस्पति का मनुष्य शरीर पर क्या प्रभाव होगा, इसकी व्याख्या जैसी आयुर्वेद में है, वैसा आधुनिक विज्ञान में अभी तक नहीँ हुआ है। किन्तु उसके प्रचार से जैविक उत्पादन के फल सब्जियों का प्रयोग बढ़ रहा है।
खनिजों से धातु निकालने के विषय में पढ़ाया जाता है कि लौह अयस्क से लोहा निकालना सरल है। गांव का लोहार भी उसे लकड़ी या कोयला के साथ गर्म कर निकाल सकता है। पर ताम्बा को उसके खनिज से निकालना सरल नहीँ है। विद्यालय में उसी छात्र को इतिहास में पढ़ाया जाता है कि ताम्र युग पुराना था, थोड़ा विकास होने पर लौह युग आया। वास्तव में यह युगों के भारतीय नामों का ग्रीक अनुवाद था। सत्य, त्रेता, द्वापर, कलियुग का अनुवाद हुआ-स्वर्ण, रजत, ताम्र, लौह युग।
लोहे का अयस्क खोजना भी सरल है। वहाँ की मिट्टी लाल दीखती है। पर जमीन में एक किलोमीटर नीचे ताम्बा, पारा, चान्दी या सोने की खान कहाँ पर है, इसका पता लगाना आज भी कठिन है। प्राचीन काल में कैसे पता लगाया था, यह रहस्य है। पूरी पृथ्वी को खोद कर देखने से भी नहीं पता चलेगा कि कौन सी धातु मिलेगी। यह रासायनिक जांच से ही दो तीन दिन बाद पता चलता है।
प्राचीन भूगोल के विषय में धारणा है कि आस्ट्रेलिया तथा उत्तर, दक्षिण अमेरिका का ज्ञान प्राचीन काल में नहीँ था। महाभारत युद्ध के बाद इनसे सम्पर्क टूट गया था। किन्तु उससे पूर्व इन महाद्वीपों के साथ पूरी पृथ्वी का विस्तार से सर्वेक्षण हुआ था। पुराणों तथा ज्योतिष ग्रन्थों में सूची दी गई है कि ९० अंश देशान्तर पर पृथ्वी के ४ नगर कौन से हैं। यह लिखा है कि इन्द्र की अमरावती में जब सूर्योदय होता है तब यम की संयमनी में अर्धरात्रि, वरुण की सुखा नगरी में मध्याह्न तथा सोम की विभावरी में सायं काल होगा। वाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ४० के अनुसार इण्डोनेशिया के पूर्व भाग में इन्द्र तथा गरुड़ के स्थान थे। अतः इन्द्र को पूर्व दिशा का लोकपाल कहा गया है। उससे ९० अंश पश्चिम में यम की संयमनी थी जिस स्थान को अभी अम्मान तथा मृत,सागर कहते हैं। अमरावती से ९० अंश पूर्व वरुण की सुखा नगरी हवाई द्वीप या माइक्रोनेशिया में थी। सोम की विभावरी न्यूयार्क या सूरीनाम में थी। सूर्य सिद्धान्त में अन्य प्रकार के सन्दर्भ नगर थे। उज्जैन तथा उस देशान्तर पर विषुव रेखा पर स्थित लंका नगर को शून्य देशान्तर मानते थे। अतः वहाँ का समय पृथ्वी का समय या कु-बेर कहते थे। कु = पृथ्वी, बेर = समय। उज्जैन से ९० अंश पूर्व यमकोटि पत्तन था जो न्यूजीलैंड का दक्षिण पश्चिमी भाग था। उज्जैन से ९० अंश पश्चिम रोमकपत्तन था, जो मोरक्को के पश्चिम समुद्र तट पर था। उज्जैन से १८० अंश पूर्व सिद्धपुर था, जहाँ पूर्व दिशा के अन्त का चिह्न देने के लिए ब्रह्मा ने एक द्वार बनवाया था (वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, ४०/६४)। मुण्डकोपनिषद् के प्रथम श्लोक में ब्रह्मा को देवों में प्रथम कहा गया है। यह स्थान मेक्सिको के पश्चिम गुआडलजरा के निकट है जहाँ आज भी एक पिरामिड है जिसे प्रथम देवता का पिरामिड कहते हैं।
वेदारम्भ संस्कार के समय गायत्री मन्त्र पढ़ाया जाता है जिसके पहले ७ लोकों का नाम लेते हैं। यदि आकाश की रचनाओं का आकार ज्ञात,नहीँ होता तो केवल दो ही लोक होते-भूमि, आकाश। ७ लोकों का अर्थ है, कि गैलैक्सी आदि की माप ज्ञात थी। पृथ्वी को धारण करने वाले तीन तत्वों का पुराण में वर्णन है-वराह, शेषनाग, कूर्म। स्पष्टतः ये इस नाम के पशु नहीं हैं, जो पृथ्वी पर दीखते हैं। वराह के बारे में जयदेव कवि का वर्णन है-वसति दशन शिखरे धरणी तव लग्ना, शशिनि कलङ्क कलेव निमग्ना। वराह का दांत ही पृथ्वी से बहुत बड़ा था, उस पर पृथ्वी एक छोटे तिल जैसी दीखती है। वायु पुराण (६/१२) के अनुसार वराह सूर्य से १०० योजन ऊंचा तथा १० योजन मोटा है। अर्थात् सूर्य से १०० से ११० योजन के बीच पृथ्वी कहीं पर है। सूर्य व्यास की माप से पृथ्वी की सूर्य से दूरी १०८-१०९ के बीच है। अतः यहाँ सूर्य का व्यास ही एक योजन है। पृथ्वी व्यास १/१०८ तथा वराह उससे प्रायः ११०० गुणा बड़ा १० योजन व्यास का होगा। यह वह क्षेत्र है जहाँ का पदार्थ घनीभूत हो कर पृथ्वी ग्रह बना। आकाश में फैला पदार्थ जल जैसा है, पिण्ड रूप में निर्माण पृथ्वी है, बीच की स्थिति वराह (जल स्थल का जीव) या मेघ (वायु, जल मिश्रण) है।
इसी सौर व्यास के योजन में सौर मण्डल का आकार दिया गया है जिसकी अभी तक आधुनिक विज्ञान में माप नहीँ हुई है। सूर्य के रथ (सौर मण्डल का शरीर) का विस्तार १५७ लाख योजन कहा गया है (विष्णु पुराण, अध्याय २/८)। इसकी अंक पद्धति का अर्थ है कि यह दूरी १५६.५ से १५७.५ लाख योजन के बीच होगी, अर्थात् ०.३% की अशुद्धि है। ऋग्वेद (१०/१८९/३) के अनुसार सौर मण्डल ३० धाम तक है जहाँ तक सूर्य का प्रकाश (ब्रह्माण्ड से) अधिक है। बृहदारण्यकोपनिषद् (३/३/४) के अनुसार हर धाम पिछले धाम का २ गुणा है। अतः सौर मण्डल का व्यास पृथ्वी व्यास का २ घात ३० गुणा है। पौराणिक माप से तुलना करने पर ३०.४ घात होगा जिसे स्थूल रूप में ३० लिखा है। आधुनिक अनुमान है कि सौर मण्डल का सबसे दूर का पिण्ड ६० से १५० हजार इकाई तक हो सकता है (इकाई = सूर्य से पृथ्वी दूरी, प्रायः १५ करोड़ किलोमीटर)। इसमें ६०% तक की भूल है।
शेषनाग के १००० सिरों में एक पर पृथ्वी कण के समान है। स्पष्टतः यह जमीन के बिल में रहने वाला सांप नहीं है। यह ब्रह्माण्ड की सर्पाकार भुजा है जिसे वेद में अहिर्बुध्न्य (बाढ़ या जल प्रवाह का सर्प) कहा है। इसमें सूर्य जहाँ स्थित है वहाँ इस भुजा की मोटाई के बराबर व्यास का गोल महर्लोक है जिसका आकार पृथ्वी व्यास का २ घात ४० गुणा है। इसमें १००० तारा हैं जिनमें एक हमारा सूर्य है। यही शेषनाग के १००० सिर हैं। इनमें एक सिर सूर्य के क्षेत्र में पृथ्वी कण मात्र है।
कूर्म पर सबसे बड़ी पृथ्वी घूम रही है, जैसा जयदेव ने लिखा है-
क्षितिरति विपुलतरे तव तिष्ठति पृष्ठे।
विपुल पृथ्वी हमारा ग्रह है, विपुलतर पृथ्वी सौर मण्डल है, अति विपुलतर ब्रह्माण्ड है। विष्णु पुराण (२/७/३-४) के अनुसार सूर्य तथा चन्द्र से प्रकाशित भाग को पृथ्वी कहते हैं, तथा हर पृथ्वी से उसका आकाश उतना ही बड़ा है, जितना मनुष्य से पृथ्वी बड़ी है (परिधि तथा व्यास)। सूर्य-चन्द्र दोनों से प्रकाशित पृथ्वी ग्रह है। सूर्य से प्रकाशित भाग सौर मण्डल है जिसमें ग्रह कक्षाओं से बने क्षेत्रों को द्वीप कहा जाता है तथा उनका वही नाम है जो पृथ्वी के द्वीपों का है। पृथ्वी के द्वीप वृत्ताकार नहीं हैं, पर ग्रह कक्षा प्रायः वृत्ताकार है। यूरेनस कक्षा से बना १६ करोड़ योजन मोटा वलय पुष्कर द्वीप है। १००० योजन व्यास की पृथ्वी पर उससे १६० लाख बड़ा पुष्कर द्वीप नहीं हो सकता। पृथ्वी का पुष्कर द्वीप दक्षिण अमेरिका है जो पुष्कर नगर के विपरीत दिशा में है। महाभारत के बाद के पुराण संकलन करने वालोँ को यह भेद समझ में नहीं आया तथा दोनों को मिला दिया है।
सबसे बड़ी पृथ्वी ब्रह्माण्ड है जिसकी सीमा तक सूर्य विन्दु मात्र दीखता है। इसे सूर्य रूपी विष्णु का परम पद कहा गया है, जो सूर्यों का समूह है-
तद् विष्णोः परमं पदं, सदा पश्यन्ति सूरयः (ऋग्वेद, १/२२/२०)
यही सूर्य सिद्धान्त (१२/९०) में कहा कहा है-
ब्रह्माण्ड सम्पुट परिभ्रमणं समन्तादभ्यन्तरा दिनकरस्य कर प्रसाराः।
तीनों पृथ्वी से उनके आकाश की परिधि या व्यास उतना ही बड़ा है जितना मनुष्य से पृथ्वी बड़ी है। अर्थात् मनुष्य से आरम्भ कर पृथ्वी, सौर मण्डल, ब्रह्माण्ड, पूर्ण विश्व क्रमशः १-१ करोड़ गुणा बड़े हैं। यह सही अनुपात है पर आधुनिक भौतिक विज्ञान के २२ प्रकार के सृष्टि विज्ञान के सिद्धांतों में कोई भी इसका वर्णन नहीँ करता है।
सौर मण्डल के भीतर विष्णु रूपी सूर्य के तीन पद हैं (ऋग्वेद, १/२२/१७)-पृथ्वी तक ताप क्षेत्र, यूरेनस कक्षा तक तेज या वायु क्षेत्र तथा सौर मण्डल की सीमा तक प्रकाश क्षेत्र। इनको मनुस्मृति (१/२३) में अग्नि, वायु, रवि क्षेत्र कहा है।
१९७४ तक मानते थे कि पृथ्वी कक्षा तक सौर वायु आती है, जिसके कारण उरु ज्योति (ध्रुवीय प्रकाश), चुम्बकीय तूफान आदि आते हैं। १९७५ में पता चला कि मंगल कक्षा तक सौर वायु है (अमेरिका के मैरिनर अन्तरिक्ष यान द्वारा)। यह जानने के बाद भी मैंने यजुर्वेद तथा पुराण के आधार पर शोध पत्र में लिखा कि युरेनस कक्षा तक सौर वायु है। ब्रह्माण्ड की माप सम्बन्धी लेख २००१ में मेलुकोट संस्कृत अनुसन्धान संस्थान की पत्रिका में छपा। दो वर्ष तक सम्पादक मंडल विरोध करता रहा कि वैदिक काल में लोग पढ़ना लिखना नहीं जानते थे, आकाश की माप कैसे हो सकती थी। किन्तु मध्वाचार्य को सर्वज्ञ कहने पर स्वीकार कर लेते। प्रायः ७०० पृष्ठ उद्धरण देकर मैंने पूछा कि उद्धरण या अनुवाद में कहाँ गलती है तो उसे छापा पर भूल का उत्तरदायित्व मेरे ऊपर दिया। २००१ का अंक २००३ में छपा तथा उसमेँ २००२ के प्रकाशनों की सूची थी। यजुर्वेद के आरम्भ में कहा है-इषे त्वा ऊर्जे त्वा वायवस्थः। यहाँ उव्वट आदि के भाष्यों के अनुसार गाय दुहने के लिये छड़ी को इषा कहते हैं जिससे बछड़े को अलग करें। किन्तु पूरे यजुर्वेद में गाय दुहने का कोई प्रसंग नहीं है। मनुष्य शरीर के लिए मेरुदण्ड इषा है, जिससे प्राण वायु का प्रवाह है। कृषि यज्ञ के लिए यह हरीष (हळीष) है जो प्रतीक रूप में यज्ञ यूप के लिए व्यवहार होता है। सौर मण्डल के लिए यह सौर वायु है। विष्णु पुराण (२/८/४) के अनुसार सूर्य का ईषा दण्ड १८००० योजन विस्तार का है। इस परिधि की त्रिज्या ३००० योजन है। सूर्य से ३००० योजन या सूर्य व्यास की दूरी पर यूरेनस है।
एक अन्य निष्कर्ष था ६०,००० बालखिल्य जो सूर्य की परिक्रमा करते हैं। इनको अङ्गुष्ठ आकार का कहा है। आकाश में पृथ्वी मापदण्ड है (मा छन्दः तत् पृथिवी-काठक संहिता, ३९/३९)। १२,८०० किलो मीटर व्यास की पृथ्वी को ९६ अङ्गुल का नर मानने पर १ अङ्गुल या अङ्गुष्ठ = १३५ किलो मीटर। इसको सूर्य सिद्धान्त, अध्याय १२ में नक्षत्र कक्षा कहा है जो सूर्य तुलना में ६० गुणा दूर है। अतः १३५ किलो मीटर या अधिक व्यास के ६०,००० क्षुद्र ग्रह प्रायः ६० इकाई दूरी पर सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं। इस लेख के ७ वर्ष बाद नासा के कासिनी या द्वारा पता चला कि यूरेनस तक सौर वायु है या ४५ से ६५ इकाई तक १०० किलो मीटर से अधिक व्यास के ७०,००० छोटे ग्रह हैं। अतः इसी प्रकार के छोटे ग्रह प्लूटो को २००८ में ग्रह सूची से निकाल दिया। भागवत पुराण में १०० से १३५ किलो मीटर व्यास तक के बालखिल्यों की गणना नहीँ है, अतः ७०,००० से कम ६०,००० लिखा है।
ब्रह्माण्ड का निर्माण जिस क्षेत्र में हुआ उसे वेद में कूर्म तथा ब्रह्म वैवर्त पुराण, प्रकृति खण्ड, अध्याय ३ में गोलोक कहा है जिसमें विराट् बालक रूप ब्रह्माण्ड कहा है। यह महाविष्णु या बालक है जिसके बारे में विद्यापति का प्रसिद्ध गीत है-पिया मोरे बालक। यह अभी ब्रह्माण्ड के आभा मण्डल के रूप में दीखता है।
भास्कराचार्य ने सिद्धान्त शिरोमणि में ८ किलो मीटर का तथा लीलावती में १६ किलो मीटर का योजन माना है। अतः अलग-अलग उद्देश्य के लिये अलग-अलग योजन थे। अंग्रेजी माध्यम से गणित पढ़ने वालों का ध्यान इस पर नहीँ गया जिन्होंने ज्योतिष ग्रन्थों की व्याख्या की। उन्होंने गणित समझने के लिए लीलावती पढ़ने की जरूरत नहीं समझी। सूर्य सिद्धान्त में भी दो प्रकार के योजन हैं। चन्द्र तक माप लिए भू योजन है। पृथ्वी का व्यास १२,८०० किलो मीटर को १,६०० योजन कहा है। अर्थात् १ योजन = ८ किलो मीटर । इसी प्रकार सूर्य व्यास १३,९२,००० किलो मीटर की तुलना सूर्य व्यास ६,५०० योजन से करनी चाहिए। यहाँ योजन = २१४ किलो मीटर = भू योजन का प्रायः २७ गुणा। इसे भ योजन कह सकते हैं, भ = नक्षत्र = २७। इसके बाद सूर्य सिद्धान्त की माप आधुनिक गणित से सूक्ष्म होगी।
ग्रह कक्षा सूर्य के चारों तरफ है, पर आंख से या दूरदर्शक द्वारा पृथ्वी से ही देखते हैं। अतः लोगों की धारणा हुई कि भारत में सूर्य नहीं, पृथ्वी केन्द्रित कक्षा मानते थे। पर आज भी सूर्योदय की गणना स्थानीय धरातल से ही होती है। इसका यह अर्थ नहीँ है कि सूर्य केन्द्रित कक्षा का ज्ञान नहीँ है। १९७८ में पं. धूलिपाल अर्क सोमयाजी ने धारवाड़ विश्वविद्यालय के शोध पत्र में लिखा कि सूर्य सिद्धान्त में शीघ्र परिधि का मान सूर्य केन्द्रित कक्षा के अनुपात में है। उसके बाद मैंने सिद्धान्त दर्पण की व्याख्या में दीर्घ वृतीय कक्षा की भारतीय गणना की व्याख्या की। आधुनिक पद्धति में चन्द्र कक्षा के लिए ६५७ पद तक गणना होती है। उससे अधिक शुद्ध गणना भारत में ४ पद में होती थी। इस कारण भारतीय विद्या पर शोध आधुनिक विज्ञान की उन्नति के लिए आवश्यक है।
काल मान में मन्वन्तर की परिभाषा पं. मधुसूदन ओझा ने १९१२ ई में दी। शतपथ ब्राह्मण (१०/४/४/२) में कहा है कि आकाश में जितने नक्षत्र हैं, मनुष्य शरीर में उतने ही लोमगर्त्त (कलिल, कोषिका) हैं। शतपथ (१२/३/२/५) के अनुसार संवत्सर (३६० दिन) में १०,८०० मुहूर्त हैं, अर्थात् प्रतिदिन ३० मुहूर्त, १ मुहूर्त = ४८ मिनट। इसे ७ बार १५-१५ से भाग देने पर लोमगर्त होता है १ सेकण्ड का प्रायः ७५,००० भाग)। इसे लोमगर्त इसलिये कहा है कि मनुष्य शरीर में जितने लोमगर्त या कलिल (cell) हैं, उतने ही संवत्सर मे लोमगर्त (समय मान) हैं। लोमगर्त को पुनः १५ से भाग देने पर स्वेदायन होता है, जो १ सेकण्ड का प्रायः
११,२०,००० भाग है। स्वेद का अर्थ है जल-विन्दु, अयन का अर्थ है गति। अर्थात्, हवा में वर्षा की बून्द इतने ही दूरी तक चलती है। यहाँ समय की माप को दूरी कैसे कह दिया? भागवत पुराण, अध्याय (३/११) के अनुसार १ त्रुटि (१ सेकण्ड का ३३,७५० भाग) में प्रकाश जितनी दूर चलता है, उसे योजन कहते हैं। प्रकाश गति के अनुसार दूरी की परिभाषा तभी सम्भव है जब प्रकाश गति की बहुत सूक्ष्म माप हो सके। यह आधुनिक विज्ञान में प्रायः ४० वर्ष पूर्व ही सम्भव हो पाया जब मीटर तथा प्रकाश गति को एक साथ परिभाषित किया गया-१ सेकण्ड में प्रकाश २,९९,७९२.४५६ मीटर चलता है (शून्य में)। इसके अनुसार वर्षा की बून्द हवा में १ स्वेदायन तक प्रायः २७० मीटर चलती है, उसके बाद यह टूट जाती है या दो बून्द मिल कर एक हो जायेगी। इसकी माप नहीं की गई है किन्तु मेघ १ से ३ किलो मीटर ऊंचे होते हैं और उनके विन्दुओं की औसत गति प्रायः उतनी ही होगी। शतपथ ब्राह्मण का वाक्य है-तावन्त एते स्तोकाः वर्षन्ति। इसका अन्य अर्थ होगा कि भारी वर्षा (१००० वर्ग किलोमीटर में १० सेन्टीमीटर वर्षा) होने पर इतनी बून्द गिरेगी। १ घन सेन्टीमीटर में प्रायः ३० बून्द होती हैं। इसके अनुसार ब्रह्माण्ड में १०० अरब तारा हैं तथा मनुष्य शरीर या मस्तिष्क में भी उतने ही कलिल हैं। अतः मनुष्य के मन का सबसे विराट् रूप ब्रह्माण्ड रूपी मन हुआ तथा इसका अक्ष भ्रमण काल १ मन्वन्तर होगा। १९१२ तक ब्रह्माण्ड की रचना का अनुमान नहीँ था। १९१७ में आइन्सटीन ने सापेक्षवाद के अनुसार सृष्टि की व्याख्या की। ब्रह्माण्डों के समूह के विषय में १९३० से चर्चा आरम्भ हुई। १९५० के बाद ब्रह्माण्ड के आकार का पहली बार अनुमान हुआ। १९९० में ब्रह्माण्ड के व्यास का अनुमान १,००,००० प्रकाश वर्ष था, २००८ में ९५,००० प्रकाश वर्ष कहा गया। कठोपनिषद् (३/१/१) में इसे परार्ध योजन की परम गुहा कहा है-ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे। ऐसा ही वर्णन ऋग्वेद (१/१६४/१२) में है। परा का अर्थ है, १ पर १७ शून्य। उसका आधा योजन ब्रह्माण्ड की परिधि है। उषा के प्रसंग में ऋग्वेद में कहा है कि वह सूर्य से ३० धाम पश्चिम रहती है। भारत में यह १५ अंश मानते हैं। १५ अंश = ३० धाम। विषुव वृत्त के ३६० अंश में ७२० धाम हैं, वृत्त की परिधि ४०,००० किलो मीटर है। अतः १ धाम = ५५.५ किलो मीटर। इसके अनुसार ब्रह्माण्ड का व्यास ९७, ००० योजन होगा जो नासा के १९९० तथा २००८ के अनुमानों के बीच में है।
पृथ्वी अपनी औसत कक्षा गति से ब्रह्माण्ड की परिक्रमा जितने समय में करेगी वह ब्रह्मा का दिन या कल्प है -४३२ करोड़ वर्ष। ब्रह्मा के दिन रात में प्रकाश जितनी दूर चलता है उतनी दूरी तक तपः लोक कहा गया है अर्थात् वहाँ तक का ताप हम तक पहुंच सकता है। उसके बाद अनन्त अज्ञात आकाश सत्य लोक है। आधुनिक अनुमान १५ प्रकार के हैं। दृश्य जगत् का विस्तार ८ से २२ अरब प्रकाश वर्ष मानते हैं। भारतीय माप ८६४ करोड़ प्रकाश वर्ष त्रिज्या या १७२८ करोड़ प्रकाश वर्ष व्यास होगा।
भारत में परस्पर विरोधी मत एक साथ ठीक मान सकते हैं, इस कारण सनातन सभ्यता चल रही है। इसका उदाहरण माधवीय शङ्कर दिग्विजय, अध्याय ८ में है। मण्डन मिश्र के घर का पता देने के लिए कहा कि वहाँ तोते भी शास्त्रार्थ करते हैं-संसार नित्य है या अनित्य, कर्म स्वतः फल देता है या भगवान् देते हैं, वेद स्वतः प्रमाण है या परतः प्रमाण?
जगद् ध्रुवं स्याद् जगदध्रुवं स्यात्, कीराङ्गनाः यत्र गिरो गिरन्ति।
द्वारस्थ नीडान्तर सन्निरुद्धा जानीहि तन्मण्डन पण्डितौकः।
फलप्रदं कर्म फलप्रदोऽजः, कीराङ्गनाः —
स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाणं, कीराङ्गनाः —
अपने मत का पूर्ण अध्ययन करें, किन्तु बाकी का विरोध नहीं हो तभी सनातन ज्ञान की उन्नति होगी। जो कहता है- न अन्यत् अस्ति – वह नास्तिक है। वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः (गीता, २/४२)।