वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः
राष्ट्र शब्द से आशय उस भूखंड विशेष से हैं जहां के निवासी एक संस्कृति विशेष में आबद्ध होते हैं | एक सुसमृद्ध राष्ट्र के लिए उस का स्वरुप निशित होना आवश्यक है | कोई भी देश एक राष्ट्र तभी हो सकता है जब उसमें देशेतरवासियों को भी आत्मसात करने की शक्ति हो | उनकी अपनी जनसंख्या, भू-भाग, प्रभुसत्ता, सभ्यता, संस्कृति, भाषा, साहित्य, स्वाधीनता और स्वतंत्रता तथा राष्ट्रीय एकता आदि समस्त तत्त्व हों, जिसकी समस्त प्रजा अपने राष्ट्र के प्रति आस्थावान हो | वह चाहे किसी भी धर्म, जाति तथा प्रांत का हो | प्रांतीयता और धर्म संकुचित होते हुए भी राष्ट्र की उन्नति में बाधक नहीं होते हैं क्योंकि राष्ट्रीयएकता राष्ट्र का महत्वपूर्ण आधारतत्व है, जो नागरिकों में प्रेम, सहयोग, धर्म, निष्ठा कर्तव्यपरायणता, सहिष्णुता तथा बंधुत्व आदि गुणों का विकास करता है| तथा धर्म तथा प्रांतीयता गौण हो जाती है | तब राष्ट्र ही सर्वोपरि होता हैं |
राष्ट्रयज्ञ में वेद ज्ञान और विज्ञान का अथाह अर्णव है। इसमें मानव की हर समस्याओं का समाधान है। वेदों में ब्रह्म (ईश्वर), देवता, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, रीति-रिवाज आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है।वेद के विभाग चार है:ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग-स्थिति, यजु-रूपांतरण, साम-गतिशील और अथर्व-जड़। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्ही के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई। वेदों ने राष्ट्र उन्नति के लिए सदा ही राष्ट्र की प्रार्थना किया है –
आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो बह्मवर्चसी जायताम्
आराष्ट्रे राजन्यः शूरSइषव्योतिव्याधी महारथो जायताम्
दोग्ध्री धेनुर्वोढा नड्वानाशुः सप्तिः
पुरंध्रिर्योषा जिष्णु रथेष्ठाः सभेयो
युवाअस्य यजमानस्य वीरो जायतां
निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु
फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम्
योगक्षेमो नः कल्पताम्
वैदिक संस्कृति की व्यवस्था में विचारों की उच्च्ता का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। यदि विचारों में श्रेष्ठता होगी तो आचरण भी श्रेष्ठ होगा और जनमानस का वैचारिक स्तर उन्नत होगा तथा सर्वाभ्युदय संभव हो सकेगा। वेदों का तेज, ज्ञान का प्रकाश, ब्रह्मचर्य का ओज, संयम की ऊर्जा जिसमें भरपूर रहती है, वही ब्राह्मण राष्ट्र के लिए अपने चिन्तन और विचारों की आहुति दे सकेगा तथा उसके उदात्त चिन्तन से ही राष्ट्रजीवन को ऊर्जा प्राप्त होगी। यज्ञ संस्था की दृढ़ता और व्यापकता में वृद्धि होगी। ब्रह्मवर्चस् की अराधना के बिना न तो ब्राह्मणत्व बचता है और न ही समष्टि चिन्तन को प्रेरणा और गति मिल पाती है। राष्ट्र की रक्षा में राजवंश का उचित विनियोग तभी होगा जब वह शूरवीर हो, परन्तु शूरता तभी सफल होगी जब वह लक्ष्यवेध में प्रवीण हो, लक्ष्यवेध की सफलता भी तभी है जब वह शूर शत्रुनाश कर सके। इस देश का वीरबालक सैनिक ही नहीं सेनानायक अर्थात् महारथी बने। महारथी में शत्रुविनाश, शूरवीरता, लक्ष्यवेधता होने पर ही देश का संकट दूर हो सकेगा। भौतिक ज्ञान आज की दुनिया को प्राप्त है उसको सम्भालने के लिए जो आंतरिक ज्ञान चाहिए जिसके अभाव में युद्ध हो रहे हैं, जिसके अभाव में विनाश और पर्यावरण की हानि हो रही है। उस ज्ञान को यह पूर्णता देने वाला वेद ज्ञान हमको फिर अपने परिश्रम से पुर्नजीवित करना पड़ेगा। वेदों का पुर्नतेजस्वीकरण हिन्दुओं की नहीं पूरी मानवजाति के जीवन का प्रश्न है, यह कोई पूजा कर्मकांड की सीमित बात नहीं है। वेदों के पुर्नतेजस्वीकरण से पूरे संसार का कल्याण होगा इसके लिए हम सबको समपर्ण करना पड़ेगा।
आज़ादी पाने के बाद भारत ने बहुआयामी सामाजिक और आर्थिक प्रगति की है। भारत कृषि में आत्मनिर्भर बन चुका है और अब दुनिया के सबसे औद्योगीकृत देशों की श्रेणी में भी इसकी गिनती की जाती है। विश्व का सातवां बड़ा देश होने के नाते भारत शेष एशिया से अलग दिखता है जिसकी विशेषता पर्वत और समुद्र ने तय की है और ये इसे विशिष्ट भौगोलिक पहचान देते हैं। उत्तर में बृहत् पर्वत श्रृंखला हिमालय से घिरा यह कर्क रेखा से आगे संकरा होता जाता है। पूर्व में बंगाल की खाड़ी, पश्चिम में अरब सागर तथा दक्षिण में हिन्द महासागर इसकी सीमा निर्धारित करते हैं।