एक पौराणिक कथानक है। एक समय की बत है रत्नाकर नाम का एक डाकू (दस्यु) हुआ करता था। अपने परिवार के भरण पोषण के लिए रत्नाकर चोरी, लूटपाट और राहगीरों की हत्या भी करता था। एक बार एक श्रेष्ठी जंगल के रास्ते से पालकी में बैठकर जा रहा था। घने जंगलों में डाकू रत्नाकर और उसके साथी छुपकर बैठे थे। डाकू रत्नाकर ने श्रेष्ठी का सारा धन और गहने लूटकर कहारों सहित उसकी हत्या कर दी । घटना के बाद, उस राज्य के राजा ने पुरे नगर में घोषणा करवा दी कि कोई भी राहगीर अकेला जंगलों के रास्ते से नहीं जाये । इसके बाद सभी ओर भय का वातवरण बन चूका था। हर कोई जंगलों के रस्ते अकेला जाने से भय खाता था।
संयोग से एक दिन देवर्षि नारद भी उन्हीं जगलों से गुजर रहे थे । उन्होंने देखा कि सामने से कुछ राहगीर निर्वस्त्र होकर आ रहे थे । उन्होंने उनसे पूछा कि क्या हुआ तो उन्होंने बताया कि आगे मत जाइये अन्यथा आपको भी निर्वस्त्र होना पड़ेगा। लेकिन नारद तो नारद है। वो नहीं रुके !
आखिरकार हमेशा की तरह डाकू रत्नाकर ने उनका भी रास्ता रोका । लेकिन देवर्षि नारद निर्भय होकर रत्नाकर की आँखों में आंखे डालकर खड़े थे । यह देख रत्नाकर बोला – “ तुझे मुझसे भय नहीं लगता ब्राह्मण?”
देवर्षि बोले – “भय कैसा ?”
रत्नाकर बोला – “ मैं डाकू रत्नाकर हूँ !”
देवर्षि बोले – “नारायण ! नारायण ! तो तुम ही हो वो वो कुख्यात डाकू जो लोगों को लूटकर उनकी हत्या कर देता है ? लेकिन मैं तुमसे भयभीत नहीं हूँ। मैं निर्भय हूँ”
रत्नाकर बड़े गर्व से बोला – “क्या तुझे मरने से डर नहीं लगता ब्राह्मण?”
देवर्षि बोले – “ मरने से क्या डरना रत्नाकर, एक दिन हर कोई मरने वाला है । लेकिन क्या तुम निर्भय हो ?”
रत्नाकर बोला – “ हाँ! मैं भी निर्भय हूँ। मुझे किसी का डर नहीं।”
हँसते हुए देवर्षि बोले – “ तो फिर यहाँ जंगल में छिपकर क्यों रहते हो? पाप से डरते हो?, राजा से डरते हो? या प्रजा से डरते हो?”
तैश में आकर रत्नाकर बोला – “ मैं पापी नहीं हूँ और ना ही राजा से डरता हूँ न ही प्रजा से।”
देवर्षि बोले – “ तो फिर जंगलों में क्यों रहते हो ?”
रत्नाकर बोला – “ मैं सैनिक था । लेकिन मुझपर झूठा इल्जाम लगाकर राजद्रोह में देश निकाला दे दिया। केवल इसलिए कि मैंने कुछ गलत लोगों का साथ नहीं दिया। ये समझ अपराध को भूल जाता है और अपराधी को कभी क्षमा नहीं करता। इसलिए अब मैं इस समाज से अपना प्रतिशोध ले रहा हूँ।”
मुस्कुराते हुए देवर्षि बोले – “निसन्देह! तुम्हारे साथ गलत हुआ है लेकिन तुम जो कर रहे हो । क्या वो सही है ? क्या तुम्हारे इस पाप में तुम्हारा परिवार भागीदार होगा ?”
रत्नाकर बोला – “ यदि मैं पाप भी करता हूँ तो भी मेरे पाप की कमाई ही मेरा परिवार खाता है । इसलिए वो मेरे पाप में भागीदार अवश्य होंगे । और ये उपदेश बहुत हो गये ब्राह्मण ! अब मरने के लिए तैयार हो जा!”
देवर्षि हँसते हुए बोले – “ मैं मरने के लिए तैयार हूँ लेकिन पहले ये बताओ कि क्या तुमने कभी अपने परिवार से पूछा है कि वो तुम्हारे पाप में भागीदार होंगे या नहीं ? यदि तुमने नहीं पूछा है तो तुम व्यर्थ ही उनके लिए लोगों की हत्या करके अकेले इस जघन्य अपराध के भागीदार बन रहे हो।”
देवर्षि की बात सुनकर रत्नाकर विचलित हो गया । उसने अपने साथियों से कहा – “ बांध दो इस ब्राह्मण को पेड़ से । अभी मैं घर पूछकर आता हूँ। ताकि इस ब्राह्मण को सुकून से मार सकूं।”
देवर्षि हंसने लगे और रत्नाकर तुरंत अपने घर की ओर दोडा।
रत्नाकर ने घर जाकर अपनी पत्नी से पूछा – “ मैं जो कर रहा हूँ क्या वो पाप है ?”
पत्नी बोली – “ चोरी, लूटपाट और हत्या करना तो हमेशा से पाप है, स्वामी!” पत्नी की यह बात सुनकर रत्नाकर के रत्नाकर थोड़ा विचलित हो गया । उसने दूसरी बार पूछा – “ यदि यह पाप है तो क्या तुम मेरे इस पाप में भागीदार हो ?”
पत्नी विनम्रता से बोली – “ आप मेरे पति है । आपके सुख – दुःख में आपका साथ देना मेरा कर्तव्य है लेकिन आपके पाप में भागीदार होना नहीं । ये आपका कर्तव्य है कि आप हमारा पालन – पोषण करें।
पत्नी की यह बात सुनकर रत्नाकर अपने पिता के पास गया । उन्होंने भी यही जवाब दिया कि “ बेटा ये तेरी कमाई है, इसे हम कैसे बाँट सकते है।”
यह सुनकर रत्नाकर के पैरों तले से जमीन खिसक गई । वह सीधा घर से निकला और जंगल की चल दिया ।
देवर्षि नारद के पास जाकर उनके चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा । कहा जाता है कि वही डाकू रत्नाकर रामायण का रचयिता वाल्मीकि बना।
इस कथानक से यह शिक्षा मिलती है कि जब रत्नाकर जैसे दुष्ट दस्यु का ह्रदय परिवर्तन हो सकता ही और वह महान कवि वाल्मीकि हो सकता है तो फिर आप और मैं क्यों नहीं बदल सकते। आपने अपने जीवन में कोई भी गलत किया हो। उसके लिए दुखी मत होइए । अपराध बोध की खाई में मत गिरिये । संकल्पों से नए भविष्य का निर्माण किया जा सकता है।