शिक्षा का उद्देश्य:
शिक्षा के उद्देश्य का पहला उल्लेख ऋग्वेद के 10 वें मंडल में पाया जाता है. इस मंडल के एक सूक्त में कहा गया है कि विद्या का उद्देश्य वेदों तथा कर्मकांड के ज्ञान के अतिरिक्त समाज में सम्मान प्राप्त करना, सभा-समिति में बोलने में सक्षम होना, उचित-अनुचित का बोध आदि है. इससे प्रतीत होता है की पूर्व वैदिक युग में शिक्षा के उद्देश्य व्यावहारिक थे. बाद में, उपनिषद काल में, ज्ञान का उद्देश्य अधिक सूक्ष्म हो गया। विद्या को दो भागों में बांटा गया – परा विद्या और अपरा विद्या. अपरा विद्या में प्रायः समस्त पुस्तकीय तथा व्यावहारिक ज्ञान आ गया। केवल ब्रह्म विद्या को परा विद्या माना गया। परा विद्या श्रेष्ठ मानी गई क्योंकि उससे मोक्ष प्राप्त होता है। मोक्ष शिक्षा का अंतिम उद्देश्य हो गया। लेकिन यह लक्ष्य आदर्श ही रहा होगा, न की व्यावहारिक, क्योंकि मोक्ष सभी के लिए साध्य नहीं हो सकता। इतिहासकार ए.एस.अल्तेकर ने वैदिक शिक्षा के व्यावहारिक उद्देश्य बताये हैं जो निम्नलिखित हैं:
चरित्र निर्माण:
सत्यवादिता , संयम , व्यक्तिगत शील , सफाई , शांत स्वभाव और उदारता आदि अच्हे चरित्र के गुण किसी भी पेशे – पुरोहित , शिक्षक , चिकित्सक , राजसेवक, व्यापारी या सैनिक – के लिए बुनियादी आवश्यकता के रूप में प्राचीन ग्रंथों में निर्धारित किये गए हैं. शिक्षा का उद्देश्य इन गुणों का विकास करना था. मनुस्मृति में कहा गया है कि निर्मल चरित्र का ब्राह्मण सभी वेदों का ज्ञान रखने वाले दुश्चरित्र ब्राह्मण से अच्छा होता है। शिक्षा आरम्भ करने के पूर्व उपनयन संस्कार होता था जिसमें भावी विद्यार्थी को नैतिक आचरण के नियमों का पालन करने का उपदेश दिया जाता था। इसी तरह शिक्षा के समापन पर भी गुरु उपदेश देता था. उदाहरण के लिए तैत्तिरीय उपनिषद से दीक्षांत भाषण एक अंश उद्धृत है :
सच बोलो . धर्म का आचरण करो . वेदों का प्रतिदिन अभ्यास करो… माता को देवतुल्य समझो. पिता को देवतुल्य समझो. गुरु को देवतुल्य समझो. अतिथि को देवतुल्य समझो…”
व्यक्तित्व का विकास:
प्रत्येक शिक्षार्थी को आत्मनिर्भरता , आत्म – संयम और जीवन में वर्ण और आश्रम के अनुरूप आचरण करने का कौशल सिखाया जाता था. विद्यार्थी भिक्षा मांगकर और शारीरिक श्रम करके अपना और गुरु के परिवार का भरण-पोषण करते थे. इससे आत्म-निर्भरता उत्पन्न होती थी. संयम विद्यार्थी-जीवन ही नहीं समस्त जीवन का अनिवार्य अंग था और शिक्षा जीवन में इस पर बहुत बल दिया जाता था.. अपने वर्ण [ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र] से सम्बंधित कार्य कुशल ढंग से कर पाने की सामर्थ्य शिक्षा द्वारा दी जाती थी. साथ ही यह भी सिखाया जाता था कि विभिन्न आश्रमों [गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास] में किस तरह आचरण करना होगा. अथर्ववेद के ब्रह्मचर्य सूक्त में कहा गया है की गुरु शिक्षार्थी को दुबारा जन्म देता है, अर्थात उसका मानसिक , नैतिक और आध्यात्मिक कायाकल्प कर देता है।
कार्य-क्षमता और नागरिक जिम्मेदारी का विकास:
शिक्षा को गृहस्थ जीवन की भूमिका माना जाता था. गृहस्थ के अतिरिक्त सभी अन्य आश्रमों वाले व्यक्ति अपनी भौतिक आवश्यकताओं के लिए गृहस्थ पर निर्भर होते थे. इस तरह गृहस्थ न केवल अपने परिवार बल्कि अन्य वर्णों का भी पालन करता था. गुरु शिक्षार्थी को समाज में अपनी यह भूमिका निभाने में सक्षम बनाता था. इसके अतिरिक्त समाज को चलाने के लिए आवश्यक राजसेवक, न्यायाधीश, व्यापारी, पुरोहित तथा अन्य कुशल व्यक्ति गुरुकुलों द्वारा ही तैयार किये जाते थे।
विरासत और संस्कृति का संरक्षण:
आरम्भ में आर्यों को लिपि का ज्ञान नहीं था. समाज के सामने चुनौती थी की किस तरह मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी वेदों को अपने मूल रूप में सुरक्षित रखा जाय. भारत के प्राचीन गुरुकुलों की यह विलक्षण उपलब्धि थी कि वैदिक साहित्य लगभग दो हजार साल तक मौखिक रूप में जीवित ही नहीं, अक्षुण्ण भी रखा।
वैदिक शिक्षा व्यापक सांस्कृतिक दृष्टि पर बल देती थी. शिक्षित व्यक्ति को साहित्य, कला, संगीत आदि की समझ होनी चाहिए. उसे जीवन के उच्च आदर्शों का ज्ञान भी होना चाहिए. मात्र जीविकोपार्जन शिक्षा का उद्देश्य नहीं है. कालिदास ने कहा है कि जो विद्या का उपयोग केवल कमाई के लिए करते हैं वे विद्या के व्यापारी हैं जिनकी विद्या बिकाऊ माल भर है।
पूर्वजों की परंपरा और संस्कृति की रक्षा शिक्षित व्यक्ति का कर्तव्य था. चूँकि एक ही व्यक्ति विद्या की सभी शाखाओं में निष्णात नहीं हो सकता था, अतः वैदिक ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में विशेषज्ञता का विकास हुआ. साथ ही समस्त देश में कुछ ऐसे आधारभूत मूल्यों की स्थापना हुई जो आज भी सांस्कृतिक एकता के आधार हैं।
पाठ्यक्रम
समय-क्रम में वैदिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में निम्नलिखित विषयों का समावेश हुआ:
चार संहितायें : ऋक, यजु:, साम और अथर्व
ब्राह्मण
आरण्यक
उपनिषद
छ: वेदांग : शिक्षा , कल्प , निरुक्त , व्याकरण, छंद, ज्योतिष
पहले चारों को मिलाकर वेद बनते हैं: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद. प्रत्येक वेद में एक संहिता और एक या अधिक ब्राह्मण ,आरण्यक तथा उपनिषद हैं . उदाहरण के लिए , ऋग्वेद में ऋक संहिता, दो ब्राह्मण , दो आरण्यक और दो उपनिषद है . संहितायें सबसे प्राचीन हैं. उनमें अधिकतर विभिन्न देवों की प्रार्थनाएं हैं. ब्राह्मण यज्ञ-याग की दृष्टि से वेदों की व्याख्या करने वाले ग्रन्थ हैं. आरण्यक वैदिक यज्ञादि कर्मों के तत्त्व का विचार करते हैं. उपनिषद दर्शन के ग्रन्थ हैं. इन्हें वेदान्त भी कहा जाता है क्योंकि ये ग्रन्थ वेदों के अंत में आते हैं.
वेद:
ऋग्वेद वेदों में प्राचीनतम हैं. इसमें दस मंडल (विभाग) हैं, कुल मिलाकर इसमें 1000 से अधिक सूक्त (प्रार्थनाएं) हैं. प्रत्येक सूक्त में कई ऋचाएं (श्लोक) हैं. पूरे ऋग्वेद में लगभग 10000 ऋचाएं हैं.
सामवेद में ऋग्वेद के ही चुने हुए सूक्त हैं पर उनको गायन के उपयुक्त बनाकर प्रस्तुत किया गया है. सामवेद संगीत पर बल देता है. यजुर्वेद में भी अधिकतर सूक्त ऋग्वेद से लिए गए हैं. इस वेद में यज्ञ-पद्धति पर बल दिया गया है. अथर्ववेद की विशेषता यह है कि उसमें जादू-टोने से सम्बंधित बहुत सी सामग्री पाई जाती है जो संभवतः आर्येतर स्रोतों से आयी है. इसी कारण से अथर्ववेद को बहुत समय तक वेद माना ही नहीं जाता था।
छः वेदांग:
शिक्षा – यह ध्वनि और उच्चारण की विवेचना करने वाला शास्त्र था।
कल्प – यह यज्ञ अनुष्ठान की पद्धति का शास्त्र था।
निरुक्त – इस शास्त्र में वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति की व्याख्या की गयी है।
व्याकरण – इसका अर्थ नाम से ही स्पष्ट है।
छंद – इसका अर्थ भी नाम से ही स्पष्ट है।
ज्योतिष – वैदिक काल में ज्योतिष का अर्थ मुख्यतः नक्षत्रों और ग्रहों का अध्ययन था. राशि की अवधारणा नहीं थी. फलित ज्योतिष भी नहीं था।
धर्मेतर विषय
वैदिक काल के अंत तक दर्शन , गणित, बीजगणित , ज्यामिति , राजनीति शास्त्र , लोक प्रशासन , युद्ध-कला , तीरंदाजी , तलवारबाजी , ललित कला और चिकित्सा जैसे धर्मनिरपेक्ष विषय पाठ्यक्रम में शामिल हो गए थे. वैदिक काल के बाद कई अन्य विषय शामिल हुए, जैसे:
- षट दर्शन – पूर्व मीमांसा, वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय तथा वैशेषिक
- तर्कशास्त्र
- काव्यशास्त्र ,
- साहित्य ,
- इंजीनियरिंग ,
- वास्तुशास्त्र
- चिकित्सा,
- ज्योतिष
इन सभी शास्त्रों की शिक्षा के विषय में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है परन्तु चिकित्साशास्त्र की शिक्षा के बारे में पर्याप्त सामग्री चरक संहिता और सुश्रुत संहिता में उपलब्ध है। इन ग्रंथों के अनुसार यह शिक्षा प्रवीण वैद्यों द्वारा दी जाती थी। पूरा पाठ्यक्रम छः वर्षों में समाप्त होता था। चिकित्सा शास्त्र की आठ शाखाये होती थीं. इस शिक्षा के लिए अलग से उपनयन संस्कार की व्यवस्था थी।
यह अनुमान किया जा सकता है की चिकित्सा की तरह अन्य महत्वपूर्ण लौकिक विषयों की शिक्षा भी इसी प्रकार विशेषज्ञों द्वारा दी जाती होगी।
कृषि, पशुपालन, चिनाई, बढ़ईगीरी, बुनाई, लोहार की कला, कुम्हार का काम, अन्य प्रकार के बर्तन बनाने की कला, हथियार बनाने की कला इत्यादि उपयोगी विद्याएँ शुरुआत में परिवारों में और मास्टर कारीगरों द्वारा सिखायी जाती थीं. कुछ वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन जब संगठित और बड़े पैमाने पर होने लगा तो व्यावसायिक समुदायों ने विशेष कला या शिल्प में युवाओं के प्रशिक्षण की जिम्मेदारी ले ली।
शिक्षक:
जब लिखित पुस्तकें नहीं थीं तो गुरु ज्ञान का एक मात्र स्रोत था। इसलिए प्राचीन ग्रंथों में गुरु की बड़ी महिमा बताई गई है। आगे अथर्वेद के ब्रह्मचर्य सूक्त का उल्लेख किया गया है जिसके अनुसार गुरु शिष्य को नया जन्म देता है. विद्यार्थी के लिए गुरु की आज्ञा मानना हर स्थिति में अनिवार्य था। परन्तु गुरु को यह महत्व अर्जित करना पड़ता था। गुरु को पाठ्यक्रम में निष्णात होना होता था। इसके लिए उसे स्वयं सतत अध्ययन और मनन करना पड़ता था। गोपथ ब्राह्मण में एक कथा है की एक गुरु शास्त्रार्थ हार गए। उन्होंने तत्काल शिक्षण कार्य बंद कर दिया और तभी पुनः आरम्भ किया जब वह अपने प्रतिद्वंद्वी जितने ही निष्णात हो गए। इससे पता चलता है की शिक्षक को अपनी योग्यता बढाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहना पड़ता था। उनसे उच्च और आदर्श आचरण की आशा की जाती थी।
छात्र:
वैदिक युग की शुरुआत को छोड़ दें तो बाद में प्रायः शिक्षा तीन उच्च वर्णों के पुरुषों तक सीमित थी। शूद्रों और स्त्रियों का प्रवेश गुरुकुलों में नहीं था। यह कदाचित वैदिक शिक्षा की सबसे बड़ी कमजोरी थी। परन्तु जो छात्र गुरुकुलों में स्थान पाने के अधिकारी थे, उनको प्रवेश अवश्य मिलता था, चाहे वे कितने ही गरीब हों। कोई तय फीस नहीं होने के कारण हर किसी को प्रवेश मिल सकता था। सभी छात्रों को एक तरह से सादा जीवन जीना पड़ता था। चाहे उनके माता-पिता कितने ही धनी या प्रभुतासंपन्न हों। छात्र को कुछ शारीरिक श्रम करना पड़ता था। गुरुकुल के नियमों का पालन करना होता था। गुरु की आज्ञा माननी होती थी, यद्यपि गौतम ने कहा है की छात्र अनुचित आज्ञा मानने को बाध्य नहीं था। चूँकि छात्र गुरु के परिवार में रहते थे अतः गुरु-शिष्य का सम्बन्ध पिता-पुत्र जैसा होता था।
शिक्षण विधि:
प्रातिशाख्य (वेदांग ‘शिक्षा’ से सम्बंधित ग्रन्थ) ग्रंथों में वैदिक शिक्षा पद्धति का विवरण मिलता है। प्रत्येक छात्र को व्यक्तिगत रूप से पढ़ाया जाता था। अर्थात गुरु एक बार में एक छात्र को पढाता था। छात्र को एक दिन में में दो या तीन वैदिक ऋचाएं याद करनी होती थीं। छात्र को गुरु के निर्देश के अनुसार शब्दों का सही उच्चारण करना होता था और ऋचाओं को ठीक उसी ढंग से बोलना या गाना होता था जो परम्परा से चला आता था। अध्यापन मौखिक था। लिपि का विकास होने के बाद भी वैदिक मन्त्रों का मौखिक अध्यापन जारी रहा क्योंकि उच्चारण और गायन की मूल परम्परा को मौखिक रूप में ही पूरी तरह सुरक्षित रखा जा सकता था। याद करके सीखने का तरीका केवल वैदिक संहिताओं के लिए प्रयोग होता था। अन्य विषयों को पढ़ाने के लिए व्याख्यान, प्रश्नोत्तर, शास्त्रार्थ इत्यादि का सहारा लिया जाता था। छात्रों की संख्या कम होती थी ताकि गुरु प्रत्येक छात्र पर पर्याप्त ध्यान दे सके। अल्तेकर ने अनुमान किया है कि एक गुरु के पास बीस से अधिक छात्र नहीं होते होंगे।
अनुशासन:
व्यक्तिगत नैतिकता और अच्छे आचरण पर जोर उपनयन से ही आरम्भ हो जाता था। विद्यार्थियों से आत्म- अनुशासन की उम्मीद की जाती थी। आत्मानुशासन शिक्षा का अभिन्न अंग था। शिक्षक के परिवार में रहने के कारण छात्रों को पुत्रवत आचरण करना होता था। गुरु अपने चरित्र और आचरण द्वारा उचित आदर्श छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करता था। इन सभी कारणों से दण्ड अनुशासन के लिए आवश्यक नहीं था। फिर भी मानव प्रकृति के अनुसार छात्र कभी कभी अनुशासन भंग करते थे। इस दशा में मनु ने गुरु को सलाह दी है की वह छात्र को समझा बुझाकर सही रास्ते पर लाये। आपस्तम्ब ने कहा है कि गुरु दोषी छात्र को कुछ समय के लिए अपने सामने आने से मना कर सकता है [कक्षा से निष्कासन की तरह]। गौतम ने शारीरिक दण्ड की अनुमति दी है पर यह भी कहा है की अत्यधिक शारीरिक दण्ड देने पर गुरु को राजा द्वारा दण्डित किया जा सकता है।