छान्दोग्य उपनिषद की कहानी है- ऋषि आरुणि का पुत्र श्वेतकेतु गुरुकुल से शिक्षा ग्रहण करके जब लौटा, तब उसके पिता को अनुभूति हुई कि पुत्र में कुछ अहंकार पैदा हो गया है । पुत्र ने बताया उसने सब विद्याएं पढ़ ली है।
पिता आरुणि बोले- “क्या तूने वह विद्या भी पढ़ ली है जिसे पढ़कर सब कुछ जान लिया जाता है?” पुत्र ने कहा- “वह तो मुझे मालूम नहीं ।” ऋषि आरुणि बोले- “यह मिट्टी देखो इससे घड़ा, मटका, सुराही, मिट्टी के खिलौने- हाथी, घोड़े, तोते, कबूतर, राजा-रानी, कुत्ता-बिल्ली सब बन जाते हैं । सबके भीतर धातु का मूल तत्व एक जैसा है। सारे खनिज पदार्थ, संपूर्ण वनस्पति, सारे पशु-पक्षी एक ही मूल तत्व से प्रभावित हैं।”
श्वेतकेतु बोला- “पिताजी, बात कुछ गहरी है, समझ में नहीं आती, समझाकर बतलाइए ” ऋषि आरुणि ने कहा- “सामने एक वृक्ष है उस पर कहीं भी चोट करो, सब जगह से एक जैसा ही रस निकलेगा, यह रसरुपी आत्मा से भरा है यह आत्मा निकल जाने पर यह वृक्ष सूख जाता है।”
श्वेतकेतु बोला- “बात कुछ कठिन है, समझ में नहीं आती। ” ऋषि ने सामने वट-वृक्ष से फल तोड़कर लाने के लिए कहा फल के तोड़ने पर पूछा- “फल के अंदर क्या दिखता है? “पिताजी! फल के अंदर अणु जैसे छोटे-छोटे दाने है। “पिता ने इन दोनों को तोड़ने का हुकुम दिया। पुत्र ने दाने तोड़े, परंतु उसे कुछ भी दिखाई नहीं दिया
पुत्र की निराशा देखकर ऋषि बोले- “एक पात्र में जल ले आओ।” पानी में भरे पात्र में उन्होंने पुत्र का नमक की बड़ी डली डालने के लिए कहा, एक पहर बीत जाने पर ऋषि ने श्वेतकेतु से कहा- “पुत्र, तुमने जो नमक की डली डाली थी, वह पात्र से निकालकर ले आओ। “श्वेतकेतु ने पानी देखा, डली दिखाई नहीं दी; फिर अँगुली से पानी टटोला, पर वह डली नहीं मिली, पिता ने कहा- “अब जल का आचमन करो। “पुत्र ने कहा- “पिताजी, पानी तो बहुत नमकीन है, सब जगह पानी खारा है।”
पिता बोले- “जिस तरह नमक की वह डली दिखाई नहीं देती, फिर भी वह जल में सर्वत्र व्याप्त है, उसी तरह हर पदार्थ में वह सत् तत्व भी व्याप्त है। उस तत्व को जानने का प्रयत्न करो। यह जानने की विद्या ही सच्ची विद्या है।”
अध्यात्म विद्या ( मोक्ष देने वाली विद्या ) को भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अपना ही स्वरूप कहा है – “अध्यात्म विद्या विद्यानाम” (गीता१०.३२)
“सा विद्या या विमुक्तये ” अर्थात विद्या वही है जो मुक्ति का मार्ग दिखाए या जो मुक्ति प्रदान करे।।
अतः प्राप्त विद्या के अहंकार को त्यागकर अध्यात्म विद्या अर्थात आत्म विद्या को प्राप्त करने में लग जाना ही मनुष्य का परम कर्तव्य है।।
।। श्री परमात्मने नमः ।।
अभिषेक तिवारी