भारतीय संविधान अपने नागरिकों को जाति, वर्ण, लिंग के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है। संविधान जातिगत भेदभाव तो नहीं मानता परन्तु जातियों को मानता है। जो व्यक्ति जिस जाति में उत्पन्न हुआ वह उसी में जीवन भर रहेगा। इसमें परिवर्तन करने की न कोई प्रक्रिया है और न मान्यता।
कुछ लोग अपना उपनाम परिवर्तित करते देखे जाते हैं परन्तु जाति परिवर्तन के उदाहरण नहीं हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जातियाँ अब शाश्वत बन गईं हैं। आश्चर्य की बात यह है कि जो व्यक्ति, संगठन या राजनैतिक दल जाति विरोधी हैं वे भी जातियों को अत्यधिक मानते हैं।
मनुस्मृति विश्व का पहला ऐसा धर्मशास्त्र है जिसमें सृष्टि निर्माण का विद्वत्तापूर्ण वर्णन तो है ही साथ ही इसमें मनुष्य के जीवन को प्रत्येक अवसर को उत्कृष्ट बनाने के विविध सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन किया गया है। इसके रचयिता महर्षि मनु हैं। मनु के प्रतिपादन में जाति का वर्गीकरण नहीं था। उन्होंने वर्णव्यवस्था का प्रतिपादन किया था। जातियाँ जन्म से निर्धारित होतीं थीं और वर्ण कर्म से।
भगवद्गीता भी वर्ण को गुण और कर्म के आधार पर मानती है, जन्म के आधार पर नहीं।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:।
तस्य कर्त्तारमपि मां विद्ध्यकर्त्तारमव्ययम्।।
गीता ४/१३
गुण कर्म के विभाग के आधार पर चारों वर्ण में द्वारा बनाए गए हैं। किन्तु तुम यह समझो कि मैं उनका कर्त्ता होते हुए भी वास्तव में अकर्त्ता हूँ।
महर्षि मनु की अद्भुत सामाजिक यान्त्रिकी (social engineering) यह थी कि वे कहते हैं कि शूद्र ब्राह्मण बन सकता है और ब्राह्मण शूद्र। श्रेष्ठता के क्रम में मनु ने ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ पहले स्थान पर रखा था और शूद्र को अंतरिम स्थान पर। इसका व्यवहारिक और सामाजिक कारण भी उन्होंने बताया था।
यदि समाज की व्यवस्था में वर्ण अपने कर्म के आधार पर उत्तरोत्तर प्रगति ने कर सकें तो वह व्यवस्था व्यक्ति के विकास में बाधक हो जाएगी। फलत: समाज भी उन्नति नहीं कर पाएगा। इसलिए मनु ने इन वर्णों में व्यक्ति का आना जाना मान्य किया था।
कल्पना कीजिए कि यदि कोई व्यक्ति किसी कार्यालय में भृत्य है और उसे जीवन भर भृत्य ही रहने दिया जाए भले ही उसने अपनी योग्यता में सुधार कर लिया हो तो यह न्याय कैसे कहा जा सकता है। इसी प्रकार यदि कोई उच्चाधिकारी अपनी योग्यतानुसार कार्य न कर सकने के पश्चात भी उसे उच्चाधिकारी ही माना और नियुक्त रखा जाए तो यह अन्याय ही होगा।
शासन की वर्तमान व्यवस्था में भृत्य को उन्नति करने की सम्भावनाएँ तो हैं परन्तु वे बहुत सीमित और क्षीण हैं। परन्तु न्यायाधीश आईएएस को अयोग्यता के आधार पर भृत्य बनाने की कोई व्यवस्था है ही नहीं। न्यायाधीश कितना ही भ्रष्ट, दुराचारी, न्याय करने में अक्षम हो तो भी वह न्यायाधीश ही बना रहता है। अधिक से अधिक उसे शासकीय सेवा से हटाया जाता है।
मनु ऐसा नहीं मानते। वे शूद्र को ब्राह्मण और ब्राह्मण को शूद्र मानने की व्यवस्था का स्पष्ट प्रतिपादन करते हैं।
कुछ लोग मनुस्मृति को बिना पढ़े ही मनु की आलोचना करते रहते हैं। तथाकथित दलितों ने जब मनुस्मृति की निन्दा कर उसकी प्रतियाँ जलाने का अभियान चलाया तब मनुस्मृति के समर्थकों ने भी उसे पढ़ा न होगा।
देखिए वर्णों के परस्पर सौहार्दपूर्ण सम्बन्धों और परिवर्तन को मनु कैसे वैधानिक बताते हैं।
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च।।
मनुस्मृति १०/६५
इस श्लोक को ठीक से समझने के लिए हम इसका अन्वय करके स्पष्ट करते हैं।
शूद्र: ब्राह्मणतां एति ब्राह्मण: च एति शूद्रताम्।
क्षत्रियात् जातं एवं तु विद्यात् वैश्यात् तथा एव च।
शूद्र ब्राह्मणत्व को पाता (प्राप्त करता) है और ब्राह्मण शूद्रता को पाता (प्राप्त करता) है। इसी प्रकार क्षत्रियों से उत्पन्न लोगों को ऐसा ही और वैश्यों से उत्पन्न लोगों को ऐसा ही समझे। अर्थात क्षत्रियों और वैश्यों के उत्कर्ष और अपकर्ष को भी ऐसा ही समझना चाहिए।
यह समाज के व्यक्तियों की योग्यता के आधार पर स्वचलित समाजिक अभियान्त्रिकी की उत्कृष्ट व्यवस्था है। विश्व में ऐसी व्यवस्था किसी देश और समाज में नहीं है। इसी कारण मनु संसार के प्रथम संविधान निर्माता माने गए।
इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जब क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ब्राह्मण बने। विश्वामित्र का क्षत्रिय से ब्राह्मण और सूत जी का शूद्र से ब्राह्मण बनकर पुराणों पर व्याख्यान देना प्रसिद्ध उदाहरण हैं। यही वे विद्वान सूत जी हैं जो नैमिषारण्य में अठासी हजार विद्वान ऋषियों के सामने पुराण और इतिहास पर गम्भीर व्याख्यान देते थे और सभी ऋषि श्रद्धापूर्वक सुनते थे।
समाज में ब्राह्मण का स्थान सर्वोपरि था क्योंकि वह सदा समाज की उन्नति के लिए यत्नशील रहता था। उसके लक्षण निम्नानुसार कहे गए हैं।
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।।
मनुस्मृति १/८८
अध्यापन करना, अध्ययन करना, समाज के बीच यज्ञ (लोक कल्याण के कार्य) करना और समाज से यज्ञ (लोक कल्याण के कार्य) कराना। समाज से दान लेना और अपने उदर पूर्ति हेतु लेकर शेष धन का दान करते रहना।
ये ब्राह्मण के स्वाभाविक लक्षण कहे गए हैं।
यही कारण है कि ब्राह्मण कभी भोग-विलास की वस्तुएँ संग्रहीत नहीं करता था। वह अपरिग्रह के प्रति निष्ठावान होने के कारण सदा आर्थिक रूप से अकिंचन ही रहता था।
मनु यह भी लिखते हैं कि ब्राह्मण अपने उदात्त गुणों और लक्षणों के कारण सभी प्राणियों में श्रेष्ठ माना जाए। देखें-
भूतानां प्राणिन: श्रेष्ठा: प्राणिनां बुद्धिजीविन:।
बुद्धिमत्सु नरा: श्रेष्ठा नरेषु ब्राह्मणा: स्मृता:।।
मनुस्मृति१/९६
सभी पदार्थों में प्राणी श्रेष्ठ हैं। प्राणियों में वे प्राणी श्रेष्ठ हैं जो बुद्धि बल से जीवन यापन करते हैं। इन बुद्धिजीवियों में मनुष्य श्रेष्ठ है और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है।
ब्राह्मणों में भी श्रेष्ठता का विचार वे इस प्रकार करते हैं। देखिए –
ब्राह्मणेषु च विद्वांसो विद्वत्सु कृतबुद्धय:।
कृतबुद्धिषु कर्तार: कर्तृषु ब्रह्मवेदिन:।।
मनुस्मृति १/९७
ब्राह्मणों में भी वे ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं जो विद्वान हैं।
विद्वान ब्राह्मणों में वे श्रेष्ठ हैं जिनकी बुद्धि योगयुक्त है। जो कृतबुद्धि हैं। इन योग युक्त ब्राह्मणों में भी वे श्रेष्ठ है जो ब्रह्मवेत्ता है।
मनुस्मृति विश्व का पहला संविधान है। भारतीय नागरिकों को इसका अध्ययन अवश्य करना चाहिए। उसमें भी जो श्लोक अनुपयोगी अथवा कालबाह्य प्रतीत हों उन्हें छोड़ा जा सकता है।
ऐसे श्लोकों के सिवाय सैकड़ों श्लोक अब भी मानवता के लिए हितकारी हैं