ॐ
मैं (यानि) कौन मेरा (यानि) सम्बनध
मैं कौन हूँ और मेरा सम्बन्ध क्या है?
थोड़ा जटिल मगर अत्याधिक महत्वपूर्ण है यह प्रश्न।
अकेला मैं कुछ नहीं कर सकता, उसके साथ किसी का सम्बन्ध जुड़ेगा तभी उसकी उपयोगिता हो सकती है। इसी तरह वह परमतत्व असीमित मूल्यवान है। यदि वे अकेले हीं होगें तो उनकी पहचान कैसे होगी, अथवा उनके जानने के लिये उनको स्वंय को अलग-अलग रूपों में आना ही होगा।
यानि किसी से सम्बन्ध के बिना किसी के बारे जानकारी नहीं हो सकती। परमतत्व के रूप में वह तत्व जब तक किसी रूप को धारण नहीं कर लेता, अथवा किसी से सम्बन्धित नहीं हो जाता, तब तक उसकी उपयोगिता, उसकी विशिष्टता नहीं समझी जा सकती।
वही तत्व निर्गुण,निराकार, निर्विकार, सिर्फ मैं ही मैं आदि नामों से जाना जाने वाला स्वरूप है, तत्व है, ज्योति है, शक्ति है, प्रकाश है।वही तत्व जब अनन्त -अनन्त रूपों में आकर, अपने अंश को किसी भी रूप से सम्बन्ध जोड़कर प्रगट करता है, तब संसार के रूप में प्रतीत होने लगता है। मैं और मेरा यानि मैं के साथ अनेकों सम्बन्धसूचक शब्द जैसे- से, के लिये, को, द्वारा, साथ, का आदि-आदि।
“मैं की महिमा तो central word है, यानि केन्द्र बिन्दु है। जो जानते हैं अथवा जो नहीं जानते, जो मानते हैं अथवा नहीं मानते वो सब मैं ही मैं हूँl मैं के बिना तो सब अस्तित्व विहीन हैं। मैं कुछ इस तरह व्याख्या करना चाहूँगी—
“मैं” मूल्यवान तो बहुत है लेकिन उपयोगी अथवा क्रियान्वित जब तक नहीं तब तक की वह किसी से अपने आपको जोड़ नहीं लेता या जुड़ नहीं जाता, किसी रूप में परिणित नहीं हो जाता, किसी के साथ सम्बन्ध या मिलान नहीं हो जाता। उदाहरर्णात – सोना रखा हुआ मूल्यवान तो हो सकता पर उपयोगी नहीं। उपयोगी तभी हो सकता है जब किसी के साथ मिलान करके उसका किसी अंग का आभूषण बनाया जाता है और तब वह नाम रूप के साथ उस अंग की शोभा बढ़ाता है। इसी तरह चांदी हीरा आदि भी। रखा हुआ हीरा जब तक किसी में जड़ा ना जाये, तब तक उसका क्या उपयोग? लेकिन ये सभी मूल्यवान और शाश्वत हमेशा रहेगें।
पावर-हाउस में बिजली का चाहें कितना भी भंडार क्यों ना हो, जब तक वह तार के माध्यम से वितरित ना की जायेगी अथवा तरह -तरह के उपकरणों में डालकर संचारित ना की जायेगी तब तक वो मूल्यवान होते हुये भी उपयोगी नहीं हो सकेगी। उसकी पहचान, उसका उपयोग, उसका लाभ, किसी से सम्बन्धित होकर ही हो सकेगा। शायद आप समझ चुके होंगें कि मेरा मन्तव्य किस तथ्य को उजागर करने का प्रयास कर रहा है।
इसी तरह जब वह परमशक्ति, परमऊर्जा, परमज्योति, निर्गुण, निराकार से अनेकों तरह का आकार लेकर सगुण, साकार होती है, तब कई रूपों से, कई नामों से जानी जाती है।
कई तरह से जड़ -चेतन रूप से सृष्टि में समाहित होकर भिन्न -भिन्न कार्यों को करवाती हुयी सृष्टि का संचालन करती है। हम सभी के अन्दर वही अंश विद्यमान है जो “मैं” के रूप से है और इसी को ही शरीर धारण किये हुये है वो “मेरा” यानि सम्बन्ध। उस अंश का इस शरीर से सम्बन्ध है यानि “मैं” और “मेरा”।
देखा जाये तो संसार में भी व्यक्ति अकेले ही कुछ करने में सक्षम नहीं हो सकता है। उसको बहुत सारे लोंगों से जाने-अनजाने जुड़ना ही पड़ता है। तब ही वह अपना जीवन निर्वाह कर पाता है। जैसे किसान से उसे अन्न वस्त्र आदि मिलता है, जानवरों के द्वारा दूध-घी आदि, वृक्षों के द्वारा फल-फूल आदि यानि पूरी प्रकृति ही, पूरी सृष्टि का ही सम्बन्ध एक-एक व्यक्ति से होता है। इन सभी का ही एक-एक जन उपभोग करता है और इन सबका ही एक-दूसरे पर उपकार रहता है।
अन्त में, मैं कहना यही चाहूँगी कि मैं और मेरा यद्यपि अलग-अलग उसी तरह प्रतीत हो रहे हैं जैसे– समुद्र और उसमें उठी हुयी लहर, सोना और उससे निर्मित आभूषण, मिट्टी और उससे बना पात्र, बिजली और उसके द्वारा संचारित उपकरण ऐसे ही असंख्यो उदाहरण हैं।पर हम सभी मानव रूप जितनी अधिकता से “मैं” तत्व की अनुभूति कर पायेगें उतनी ही शीघ्रता से मेरेपन की दूरी को “मैं” तत्व में लय कर पायेगें ।कहा भी है-
जोई जानहुँ सोई देहु जनाई,
जानतहिं सो तुम्हिं होइ जाई।।
और भी
जब मैं था तब हरि नहीं,
अब हरि हैं मैं नाय।।
प्रेम गली अति सांकरी, जामें दुइ ना समाय।।
ईश्वर को मानते हैं तो उनके इतने करीब हम आ जायें कि हमारी दूरी ही मिट जाये। नयनों को नयन ना देख पातें हैं। ईश्वर को अपने में आत्मसात कर लें।
परमब्रह्म परमेश्वर परमतत्व रूप की जय