यह कथा स्कन्द पुराण की है
लंका में जब रावण का पुत्र, महा बलशाली मेघनाद मारा गया तब रावण जो अब तक मद में चूर था, राम सेना और खास तौर पर लक्ष्मण का पराक्रम सुनकर थोड़ा तनाव में आ गया। रावण को तनावग्रस्त देख रावण की माता कैकसी ने उसे, उसके पाताल में बसे दो भाइयों अहिरावण और महिरावण की याद दिलाई।
रावण को याद आया कि लंका का राजा बनने के बाद उसे उनकी सुध ही नहीं रही थी। रावण यह भली प्रकार जानता था कि, अहिरावण व महिरावण तंत्र-मंत्र के महा पंडित, जादू टोने के धनी और माँ कामाक्षी के परम भक्त हैं।
रावण ने उन्हें बुला भेजा और कहा कि वे अपने छल-बल, कौशल से श्री राम व लक्ष्मण का सफाया कर दें। यह बात दूतों के जरिए विभीषण को पता लग गयी। युद्ध में अहिरावण व महिरावण जैसे परम मायावीयों के शामिल होने से विभीषण चिंता में पड़ गए।
विभीषण ने हनुमान के साथ मिलकर भगवान श्री राम और लक्ष्मण की सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी कर दी। राम-लक्ष्मण की कुटिया लंका में सुवेल पर्वत पर बनी थी। हनुमान जी ने कुटिया के चारों ओर एक सुरक्षा घेरा खींच दिया। अब कोई जादू-टोना, तंत्र-मंत्र का प्रभाव या मायावी राक्षस इस सुरक्षा घेरे के भीतर नहीं घुस सकता था। लेकिन महिरावण ने विभीषण का रूप धर सुरक्षा घेरे को चकमा दिया और कुटिया में जा पहुँचा। राम व लक्ष्मण पत्थर की सपाट शिलाओं पर गहरी नींद सो रहे थे। बिना आहट के शिला समेत दोनो भाइयों को उठा लिया गया और दोनों राक्षस अपने निवास पाताल को चल दिए।
अनहोनी घट चुकी थी। विभीषण को राम-लक्ष्मण की जान की चिंता सताने लगी। उन्होंने हनुमान जी को स्थिति से अवगत कराया और उनका पीछा करने को कहा। हनुमान ने पक्षी का रूप धारण कर लिया और पक्षी का रूप में ही निकुंभला नगर पहुँच गए।
निकुंभला नगरी में पक्षी रूप धरे हनुमान जी ने, एक कबूतर और कबूतरी को आपस में बतियाते सुना। वे कह रहे थे कि, अब रावण की जीत पक्की है। अहिरावण व महिरावण राम-लक्ष्मण को बलि चढा देंगे। बस युद्ध समाप्त। उनसे ही बजरंग बली को पता चला कि दोनों राक्षस राम लक्ष्मण को सोते में ही उठाकर कामाक्षी देवी को बलि चढाने पाताल लोक ले गये हैं। हनुमान जी वायु वेग से रसातल की ओर बढ़े और तुरंत वहाँ पहुँचे।हनुमान जी को रसातल के प्रवेश द्वार पर एक अद्भुत पहरेदार मिला। इसका आधा शरीर वानर का और आधा मछली का था। उसने हनुमान जी को पाताल में प्रवेश से रोक दिया।
द्वारपाल हनुमान जी से बोला कि मुझ को परास्त किए बिना तुम्हारा भीतर जाना असंभव है। दोनों में लड़ाई ठन गयी। हनुमान जी की आशा के विपरीत यह बड़ा ही बलशाली और कुशल योद्धा निकला। दोनों ही बड़े बलशाली थे। दोनों में बहुत भयंकर युद्ध हुआ परंतु वह बजरंग बली के आगे द्वारपाल न टिक सका। आखिर कार हनुमान जी ने उसे हरा तो दिया पर उस द्वारपाल की प्रशंसा करने से नहीं रह सके।
हनुमान जी ने उस वीर से कहा कि, हे वीर तुम अपना परिचय दो। तुम्हारा स्वरूप भी कुछ ऐसा है कि उससे कौतुहल हो रहा है। उस वीर ने उत्तर दिया : मैं हनुमान का पुत्र हूँ और एक मछली से पैदा हुआ हूँ। मेरा नाम है मकरध्वज।
हनुमान जी ने यह सुना तो आश्चर्य में पड़ गए।
मकरध्वज ने आगे कहा : लंका दहन के बाद हनुमान जी समुद्र में अपनी अग्नि शांत करने पहुँचे, उनके शरीर से पसीने के रूप में तेज गिरा। उस समय मेरी माँ ने आहार के लिए मुख खोला था। वह तेज मेरी माता ने अपने मुख में ले लिया और गर्भवती हो गई। उसी से मेरा जन्म हुआ है।
हनुमान जी ने मकरध्वज को बताया कि वह ही हनुमान हैं। मकरध्वज ने हनुमान जी के चरण स्पर्श किए, हनुमान जी ने भी अपने बेटे को गले लगा लिया और वहाँ आने का पूरा कारण बताया। उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि, अपने पिता के स्वामी की रक्षा में सहायता करो। मकरध्वज ने हनुमान जी को बताया कि, कुछ ही देर में राक्षस बलि के लिए आने वाले हैं। बेहतर होगा कि आप रूप बदल कर कामाक्षी के मंदिर में जा कर बैठ जाएँ और उनको सारी पूजा झरोखे से करने को कहें।
हनुमान जी ने पहले तो मधु मक्खी का वेश धरा और माँ कामाक्षी के मंदिर में घुस गये। हनुमान जी ने माँ कामाक्षी को नमस्कार कर सफलता की कामना की और फिर कहा : हे माँ, क्या आप वास्तव में श्री राम जी और लक्ष्मण जी की बलि चाहती हैं ? हनुमान जी के इस प्रश्न पर माँ कामाक्षी ने उत्तर दिया कि : नहीं। मैं तो दुष्ट अहिरावण व महिरावण की बलि चाहती हूँ। यह दोनों मेरे भक्त तो हैं पर अधर्मी और अत्याचारी भी हैं। आप अपने प्रयत्न करो। सफल रहोगे।
मंदिर में पांच दीप अलग-अलग दिशाओं और स्थान पर जल रहे थे। माँ ने कहा : यह दीप अहिरावण ने मेरी प्रसन्नता के लिए जलाये हैं। जिस दिन ये एक साथ बुझा दिए जा सकेंगे, उसका अंत सुनिश्चित हो सकेगा।
इस बीच गाजे-बाजे का शोर सुनाई पड़ने लगा। अहिरावण, महिरावण बलि चढाने के लिए आ रहे थे। हनुमान जी ने अब माँ कामाक्षी का रूप धरा। जब अहिरावण और महिरावण मंदिर में प्रवेश करने ही वाले थे कि, हनुमान जी का महिला स्वर गूंजा : मैं कामाक्षी देवी हूँ और आज मेरी पूजा झरोखे से करो।
झरोखे से पूजा आरंभ हुई ढेर सारा चढावा माँ कामाक्षी को झरोखे से चढाया जाने लगा। अंत में बंधक बलि के रूप में राम-लक्ष्मण को भी उसी से डाला गया। दोनों बंधन में बेहोश थे। हनुमान जी ने तुरंत उन्हें बंधन मुक्त किया। अब पाताल लोक से निकलने की बारी थी पर, उससे पहले माँ कामाक्षी के सामने अहिरावण, महिरावण की बलि देकर उनकी इच्छा पूरी करना और दोनों राक्षसों को उनके किए की सजा देना शेष था।
अब हनुमान जी ने मकरध्वज को कहा कि वह अचेत अवस्था में लेटे हुए भगवान राम और लक्ष्मण का खास ख्याल रखे और फिर उसके साथ मिलकर दोनों राक्षसों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। पर यह युद्ध आसान न था। अहिरावण और महिरावण बडी मुश्किल से मरते तो फिर पाँच-पाँच के रूप में जिंदा हो जाते। इस विकट स्थिति में मकरध्वज ने बताया कि : अहिरावण की एक पत्नी नागकन्या है। अहिरावण उसे बलात हर लाया है। वह उसे पसंद नहीं करती पर मन मार के उसके साथ है, वह अहिरावण के राज जानती होगी। उससे उसकी मौत का उपाय पूछा जाये। आप उसके पास जाएँ और सहायता माँगें।
मकरध्वज ने राक्षसों को युद्ध में उलझाये रखा और उधर हनुमान अहिरावण की पत्नी के पास पहुँचे। नागकन्या से उन्होंने कहा कि : यदि तुम अहिरावण के मृत्यु का भेद बता दो तो हम उसे मारकर तुम्हें उसके चंगुल से मुक्ति दिला देंगे।
अहिरावण की पत्नी ने कहा : मेरा नाम चित्रसेना है। मैं भगवान विष्णु की भक्त हूँ। मेरे रूप पर अहिरावण मर मिटा और मेरा अपहरण कर यहाँ कैद किये हुए है, पर मैं उसे नहीं चाहती। लेकिन मैं अहिरावण का भेद तभी बताउंगी जब मेरी इच्छा पूरी की जायेगी। हनुमान जी ने अहिरावण की पत्नी नागकन्या चित्रसेना से पूछा कि : आप अहिरावण की मृत्यु का रहस्य बताने के बदले में क्या चाहती हैं ? आप मुझसे अपनी शर्त बताएं, मैं उसे जरूर मानूंगा।
चित्रसेना ने कहा : दुर्भाग्य से अहिरावण जैसा असुर मुझे हर लाया। इससे मेरा जीवन खराब हो गया। मैं अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलना चाहती हूँ। आप अगर मेरा विवाह श्री राम से कराने का वचन दें तो मैं अहिरावण के वध का रहस्य बताऊंगी। हनुमान जी सोच में पड़ गए। भगवान श्री राम तो एक पत्नी निष्ठ हैं। अपनी धर्म पत्नी देवी सीता को मुक्त कराने के लिए असुरों से युद्ध कर रहे हैं। वह किसी और से विवाह की बात तो कभी न स्वीकारेंगे। मैं कैसे वचन दे सकता हूँ ?
फिर सोचने लगे कि यदि समय पर उचित निर्णय न लिया तो स्वामी के प्राण ही संकट में हैं। असमंजस की स्थिति में बेचैन हनुमानजी ने ऐसी राह निकाली कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। हनुमान जी बोले : तुम्हारी शर्त स्वीकार है पर हमारी भी एक शर्त है। यह विवाह तभी होगा जब तुम्हारे साथ भगवान राम जिस पलंग पर आसीन होंगे वह सही सलामत रहना चाहिए। यदि वह टूटा तो इसे अपशकुन मानकर वचन से पीछे हट जाऊंगा।
जब महाकाय अहिरावण के बैठने से पलंग नहीं टूटता तो भला श्रीराम के बैठने से कैसे टूटेगा! यह सोच कर चित्रसेना तैयार हो गयी। उसने अहिरावण समेत सभी राक्षसों के अंत का सारा भेद बता दिया।
चित्रसेना ने कहा : दोनों राक्षसों के बचपन की बात है। इन दोनों के कुछ शरारती राक्षस मित्रों ने कहीं से एक भ्रामरी को पकड़ लिया। मनोरंजन के लिए वे उसे भ्रामरी को बार-बार काटों से छेड रहे थे। भ्रामरी साधारण भ्रामरी न थी। वह भी बहुत मायावी थी किंतु किसी कारण वश वह पकड़ में आ गई थी। भ्रामरी की पीड़ा सुनकर अहिरावण और महिरावण को दया आ गई और अपने मित्रों से लड़ कर उसे छुड़ा दिया। मायावी भ्रामरी का पति भी अपनी पत्नी की पीड़ा सुनकर आया था। अपनी पत्नी की मुक्ति से प्रसन्न होकर उस भ्रमर ने वचन दिया कि, तुम्हारे उपकार का बदला हम सभी भ्रमर जाति मिलकर चुकाएंगे।ये भौंरे अधिकतर उसके शयन कक्ष के पास रहते हैं। ये सब बड़ी भारी संख्या में हैं। दोनों राक्षसों को जब भी मारने का प्रयास हुआ है और ये मरने को हो जाते हैं तब भ्रमर उनके मुख में एक बूंद अमृत का डाल देते हैं। उस अमृत के कारण ये दोनों राक्षस मरकर भी जिंदा हो जाते हैं। इनके कई-कई रूप उसी अमृत के कारण हैं। इन्हें जितनी बार फिर से जीवन दिया गया उनके उतने नए रूप बन गए हैं। इसलिए आपको पहले इन भंवरों को मारना होगा।
हनुमान जी रहस्य जानकर लौटे। मकरध्वज ने अहिरावण को युद्ध में उलझा रखा था। तो हनुमान जी ने भौरों का खात्मा शुरू किया। वे आखिर हनुमान जी के सामने कहाँ तक टिकते।
जब सारे भ्रमर खत्म हो गए और केवल एक बचा तो वह हनुमान जी के चरणों में लोट गया। उसने हनुमान जी से प्राण रक्षा की याचना की। हनुमान जी पसीज गए। उन्होंने उसे क्षमा करते हुए एक काम सौंपा।
हनुमान जी बोले : मैं तुम्हें प्राण दान देता हूँ पर इस शर्त पर कि, तुम यहाँ से तुरंत चले जाओगे और अहिरावण की पत्नी के पलंग की पाटी में घुसकर जल्दी से जल्दी उसे पूरी तरह खोखला बना दोगे।
भंवरा तत्काल चित्रसेना के पलंग की पाटी में घुसने के लिए प्रस्थान कर गया। इधर अहिरावण और महिरावण को अपने चमत्कार के लुप्त होने से बहुत अचरज हुआ पर उन्होंने मायावी युद्ध जारी रखा।
भ्रमरों को हनुमान जी ने समाप्त कर दिया फिर भी हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों अहिरावण और महिरावण का अंत नहीं हो पा रहा था। यह देखकर हनुमान जी कुछ चिंतित हुए। फिर उन्हें कामाक्षी देवी का वचन याद आया। देवी ने बताया था कि : अहिरावण की सिद्धि है कि जब पाँचों दीपक एक साथ बुझेंगे तभी वे नए-नए रूप धारण करने में असमर्थ होंगे और उनका वध हो सकेगा। हनुमान जी ने तत्काल पंचमुखी रूप धारण कर लिया। उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख। उसके बाद हनुमान जी ने अपने पाँचों मुख द्वारा एक साथ पाँचों दीपक बुझा दिए। अब उनके बार-बार पैदा होने और लंबे समय तक जिंदा रहने की सारी आशंकायें समाप्त हो गयीं थीं। हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों शीघ्र ही दोनों राक्षस मारे गये।
इसके बाद उन्होंने श्री राम और लक्ष्मण जी की मूर्च्छा दूर करने के उपाय किए। दोनो भाई होश में आ गए। चित्रसेना भी वहाँ आ गई थी। हनुमान जी ने कहा : प्रभो ! अब आप अहिरावण और महिरावण के छल और बंधन से मुक्त हुए। पर इसके लिए हमें इस नागकन्या की सहायता लेनी पड़ी थी। अहिरावण इसे बल पूर्वक उठा लाया था। वह आपसे विवाह करना चाहती है। कृपया उससे विवाह कर अपने साथ ले चलें। इससे उसे भी मुक्ति मिलेगी।
श्री राम, हनुमान जी की बात सुनकर चकराए। इससे पहले कि वह कुछ कह पाते हनुमान जी ने ही कह दिया : भगवन आप तो मुक्तिदाता हैं। अहिरावण को मारने का भेद इसी ने बताया है। इसके बिना हम उसे मारकर आपको बचाने में सफल न हो पाते।
कृपा निधान इसे भी मुक्ति मिलनी चाहिए। परंतु आप चिंता न करें। हम सबका जीवन बचाने वाले के प्रति बस इतना कीजिए कि, आप बस इस पलंग पर बैठिए बाकी का काम मैं संपन्न करवाता हूँ।
हनुमान जी इतनी तेजी से सारे कार्य करते जा रहे थे कि इससे श्री राम जी और लक्ष्मण जी दोनों चिंता में पड़ गये। वह कोई कदम उठाते कि तब तक हनुमान जी ने भगवान राम की बाँह पकड़ ली। हनुमान जी ने भावा वेश में प्रभु श्री राम की बाँह पकड़कर चित्रसेना के उस सजे-धजे विशाल पलंग पर बिठा दिया। श्री राम कुछ समझ पाते कि तभी पलंग की खोखली पाटी चरमरा कर टूट गयी। पलंग धराशायी हो गया। चित्रसेना भी जमीन पर आ गिरी। हनुमान जी हँस पड़े और फिर चित्रसेना से बोले : अब तुम्हारी शर्त तो पूरी हुई नहीं, इसलिए यह विवाह नहीं हो सकता। तुम मुक्त हो और हम तुम्हें तुम्हारे लोक भेजने का प्रबंध करते हैं।
चित्रसेना समझ गयी कि, उसके साथ छल हुआ है। उसने कहा कि उसके साथ छल हुआ है। मर्यादा पुरुषोत्तम के सेवक उनके सामने किसी के साथ छल करें यह तो बहुत अनुचित है। मैं हनुमान को श्राप दूँगी।
चित्रसेना हनुमान जी को श्राप देने ही जा हे रही थी कि, श्री राम का सम्मोहन भंग हुआ। वह इस पूरे नाटक को समझ गये। उन्होंने चित्रसेना को समझाया : मैंने एक पत्नी धर्म से बंधे होने का संकल्प लिया है। इस लिए हनुमान जी को यह करना पड़ा। उन्हें क्षमा कर दो। क्रुद्ध चित्रसेना तो उनसे विवाह की जिद पकड़े बैठी थी। श्री राम ने कहा : मैं जब द्वापर में श्री कृष्ण अवतार लूँगा तब तुम्हें सत्यभामा के रूप में अपनी पटरानी बनाऊँगा। इससे वह मान गयी।
हनुमान जी ने चित्रसेना को उसके पिता के पास पहुँचा दिया। चित्रसेना को प्रभु ने अगले जन्म में पत्नी बनाने का वरदान दिया था। भगवान विष्णु की पत्नी बनने की चाह में उसने स्वयं को अग्नि में भस्म कर लिया।
श्री राम और लक्ष्मण, मकरध्वज और हनुमान जी सहित वापस लंका में सुवेल पर्वत पर लौट आये।
(स्कंद पुराण और आनंद रामायण के सारकांड की कथा।)