श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है :– प्रायश्चित्त संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय।
- प्रायश्चित्त संकल्प : इसमें हेमाद्रि स्नान संकल्प। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गोदुग्ध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित्त कर जीवन को सकारात्मकता दिशा देते हैं। स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन करने के विधान है।
- संस्कार : उपरोक्त कार्य के बाद नवीन यज्ञोपवीत या जनेऊ धारण करना अर्थात आत्म संयम का संस्कार होना माना जाता है। इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है।
- स्वाध्याय : उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घृत की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती है।
इस परंपरा का पालन सिर्फ ब्राह्मणों द्वारा किया जाता है। इस बार रक्षाबंधन 3 अगस्त, सोमवार को है। श्रावणी क्रिया पवित्र नदी के घाट पर सामूहिक रूप से की जाती है। जानिए क्या है श्रावणी उपाकर्म-
गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गाय के दूध, दही, घी, गोबर, गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नान कर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पाप कर्मों का प्रायश्चित कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। स्नान के बाद ऋषि पूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्मसंयम का संस्कार है। इस दिन जिनका यज्ञोपवित संस्कार हो चुका होता है, वह पुराना यज्ञोपवित उतारकर नया धारण करते हैं और पुराने यज्ञोपवित का पूजन भी करते हैं।इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है। उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घी की आहुति से होती है।
दसविधि स्नान
भस्म स्नान – उसके लिए यज्ञ की भस्म थोडीसी लेकर वो ललाट पर थोड़ी शरीर पर लगाकर स्नान किया जाता है। यज्ञ की भस्म अपने यहाँ तो है आश्रम में, पर समझो आप अपने घर पर किसी को बताना चाहें की यज्ञ की भस्म थोड़ी लगाकर श्रावणी पूर्णिमा को दसविद स्नान में पहले ये बताया है। तो वहाँ यज्ञ की भस्म कहाँ से आयेगी तो गौचंदन धूपबत्ती घरों में जलाते हैं। साधक शाम को गौचंदन धूपबत्ती जलाकर जप करें अपने इष्टमंत्र, गुरुमंत्र का तो वो जलते जलते उसकी भस्म तो बचेगी ना। तो जप भी एक यज्ञ है। तो गौचंदन की भस्म होगी यज्ञ की भस्म पवित्र मानी जाती है। वैसे गौचंदन है वो, देशी गाय के गोबर, जड़ीबूटी और देशी घी से बनती है। तो पहला भस्म स्नान बताया है।
मृत्तिका स्नान।
गोमय स्नान – गोमय स्नान माना गौ गोबर उसमे थोडा गोझरण ये मिक्स हो उसका स्नान (उसका मतलब थोडा ले लिया और शरीर को लगा दिया ) क्यों वेद ने कहा इसलिए गौमाता के गोबर में (देशी गाय के) लक्ष्मी का वास माना गया है। गोमय वसते लक्ष्मी पवित्रा सर्व मंगला। स्नानार्थम सम संस्कृता देवी पापं हर्गो मय ।। तो हमारे भीतर भक्तिरूपी लक्ष्मी बढ़ती जाय, बढ़ती जाय जैसे गौ के गोबर में लक्ष्मी का वास वो हमने थोडा लगाकर स्नान किया, हमारे भीतर भक्तिरूपी संपदा बढती जाय ।गीता में जो दैवी लक्षणों के २६ लक्षण बतायें हैं वो मेरे भीतर बढ़ते जायें। ये तीसरा गोमय स्नान।
पंचगव्य स्नान – गौ का गोबर, गोमूत्र, गाय के दूध के दही, गाय का दूध और घी ये पंचगव्य। कई बार आपको पता है पंचगव्य पीते हैं। तो पंचगव्य स्नान थोड़ा सा ही बन जाये तो बहुत बढियाँ नहीं बने तो गौ का गोबरवाला तो है। माने पाँच तत्व से हमारा शरीर बना हुआ है वो स्वस्थ रहें, पुष्ट रहें, बलवान रहें ताकी सेवा और साधना करते रहे, भक्ति करते रहें ।
गोरज स्नान – गायों के पैरों की मिट्टी थोड़ी ले ली, और वो लगा ली। गवां ख़ुरेंम ये वेद में आता है इसका नाम है दशविद स्नान । रक्षाबंधन के दिन किया जाता है । गवां ख़ुरेंम निर्धुतं यद रेनू गग्नेगतं । सिरसा तेल सम्येते महापातक नाशनं ।। अपने सिर पर वो गाय की खुर की मिट्टी लगा दी तो महापातक नाशनं ये वेद भगवान कहते हैं ।
धान्यस्नान – जो हमारे गुरुदेव सप्तधान्य स्नान की बात बताते हैं । वो सब आश्रमों में मिलता है । गेंहूँ, चावल, जौ, चना, तिल, उड़द और मुंग ये सात चीजे । ये धान्यस्नान बताया। धान्योषौधि मनुष्याणां जीवनं परमं स्मरतं तेन स्नानेन देवेश मम पापं व्यपोहतु। सप्तधान स्नान ये भी पूनम के दिन लगाने का विधान है।
फल स्नान – वेद भगवान कहते हैं फल स्नान मतलब कोई भी फल का थोडा रस लगा दिया। और कोई नहीं तो आँवला बढियाँ फल है। आँवला हरा तो मिलेगा नहीं तो थोडा आँवले का पाऊडर ले लिया और लगा दिया गया हो फल स्नान। मतलब हमारे जीवन में अनंत फल की प्राप्ति हो और सांसारिक फल की आसक्ति छूट जाय। इसलिए आज पूर्णिमा को हे भगवान फल के रस से थोडा स्नान कर रहें हैं । किसी को और फल मिल जाये और थोडा लगा दिये जाय तो कोई घाटा नहीं हैं ।
सर्वोषौधि स्नान – सर्वोषौधि माना आयुर्वेदिक औषधि खाना नहीं इस स्नान में कई जड़ीबूटी आती नही। उसमे दूर्वा, सरसों, हल्दी, बेलपत्र ये सब डालते हैं उसमें वो थोडासा पाऊडर लेके शरीर पर रगड के स्नान किया जाता है ।मेरी सब इन्द्रियाँ आँख, कान, नाक, जीभ,त्वचा ये सब पवित्र हो। इसमें सर्वोषौधि स्नान, और मेरा मन पवित्र रहें। मेरे मन में किसी के प्रति बुरे विचार न आये ।
कुशोदक स्नान – कुश होता है वो थोडा पानी में मिला दिया और थोडा पानी हिला दिया।क्योंकि जो अपने घर में कुश रखते हैं ना तो उनके पास कोई मलिन आत्माएँ नहीं आ सकती । भूत, प्रेत आदि का जोर नहीं चलता । कुश क्या है ? जब भगवान का धरती पर वराह अवतार हुआ था ।तो उनके शरीर से वो उखणकर जमीन पर गिरने लगे वही आज कुश के रूप में पाये जाते हैं, वो परम पवित्र है। वो कुश जहाँ पर हो वहाँ पर मलिन आत्मा नहीं आती हो तो भाग जाती हैं। तो कुश पानी में थोडा हिला दिया और प्रार्थना कर दी की, मेरे मन में जो मलिन विचार हैं, गंदे विचार हैं या कभी कभी आ जाते हैं वो सब भाग जाये। हरि ॐ … हरि ॐ … ॐ ,… करके उसे पानी में नहा दिया।
हिरण्य स्नान – हिरण्य स्नान माने अगर अपने पास कोई सोने की चीज है। कोई सोने का गहना वो बाल्टी में डाल दिया, हिला दिया और स्नान कर लिया। हिलाने के बाद वो निकाल लेना बाल्टी में पड़ा नहीं रहे।
-उपर्युक्त वर्णित वस्तुओं से अपनी सामर्थ्य के अनुसार लेपन व तिलक कर स्नान करने से ‘दशविध-स्नान’ की पूर्णता होती है।