एक दिन बहू ने गलती से यज्ञवेदी में थूक दिया!!! सफाई कर रही थी, मुंह में सुपारी थी, पीक आया तो वेदी में, पर उसे आश्चर्य हुआ कि उतना थूक स्वर्ण में बदल गया है, अब तो वह प्रतिदिन जान बूझकर वेदी में थूकने लगी. और उसके पास धीरे धीरे स्वर्ण बढ़ने लगा, महिलाओं में बात तेजी से फैलती है। कई और महिलाएं भी अपने अपने घर में बनी यज्ञवेदी में थूक थूक कर सोना उत्पादन करने लगी। धीरे धीरे पूरे गांव में यह सामान्य चलन हो गया, सिवाय एक महिला के.. ! उस महिला को भी अनेक दूसरी महिलाओं ने उकसाया..!समझाया..! “अरी. तू क्यों नहीँ थूकती?”
“जी. ! बात यह है कि मै अपने पति की अनुमति बिना यह कार्य हरगिज नहीँ करूंगी और वे जहाँ तक मुझे ज्ञात है, अनुमति नहीँ देंगे!” किन्तु ग्रामीण महिलाओं ने ऐसा वातावरण बनाया कि आखिर उसने एक रात डरते डरते अपने पति को पूछ ही लिया । “खबरदार जो ऐसा किया तो.. !! यज्ञवेदी क्या थूकने की चीज है??” पति की गरजदार चेतावनी के आगे बेबस वह महिला चुप हो गई, पर जैसा वातावरण था और जो चर्चाएं होती थी, उनसे वह साध्वी स्त्री बहुत व्यथित रहने लगी । खास कर उसके सूने गले को लक्ष्य कर अन्य स्त्रियां अपने नए नए कण्ठ-हार दिखाती तो वह अन्तर्द्वन्द में घुलने लगी । पति की व्यस्तता और स्त्रियों के उलाहने उसे धर्मसंकट में डाल देते.
“यह शायद मेरा दुर्भाग्य है.. अथवा कोई पूर्वजन्म का पाप.. कि एक सती स्त्री होते हुए भी मुझे एक रत्ती सोने के लिए भी तरसना पड़ता है.” “शायद यह मेरे पति का कोई गलत निर्णय है,”
“ओह. इस धर्माचरण ने मुझे दिया ही क्या है?”
“जिस नियम के पालन से दिल कष्ट पाता रहे, उसका पालन क्यों करूँ?” और हुआ यह कि वह बीमार रहने लगी. पतिदेव इस रोग को ताड़ गए, उन्होंने एक दिन ब्रह्म मुहूर्त में ही सपरिवार ग्राम त्यागने का निश्चय किया । गाड़ी में सारा सामान डालकर वे रवाना हो गए, सूर्योदय से पहले पहले ही वे बहुत दूर निकल जाना चाहते थे, किन्तु..
अरे.. यह क्या..?????
ज्यों ही वे गांव की कांकड़(सीमा) से बाहर निकले, पीछे भयानक विस्फोट हुआ,
पूरा गांव धू धू कर जल रहा था, सज्जन दम्पत्ति अवाक् रह गए और उस स्त्री को अपने पति का महत्त्व समझ आ गया, वास्तव में.. इतने दिन गांव बचा रहा, तो केवल इस कारण..उसका परिवार गांव की परिधि में था। धर्माचरण करते रहें, कुछ पाने के लालच में इंसान बहुत कुछ खो बैठता है… इसलिए लालच से बचें व धर्माचरण का त्याग न करें।
महाभारत वनपर्व कहता है :
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ॥
-जो धर्म का नाश करता है, उसका नाश धर्म कर देता है। और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है। इसलिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म का त्याग कभी नही करना चाहिए।