आज भागदौड़ के आपाधापी में हमारे युवाओं के जीवन में  नाना प्रकार की कठिनाइयां और उन्हें जीवन के हरेक मोड़ पर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। सभी विषयों में उन्हें हजारों प्रतियोगिताओं का भी सामना करना पड़ रहा है। इन्ही सब के  बीच कुछ युवा अपना स्थान बना ले रहे हैं। कुछ गरीब घर के मजबूर युवा जो जमीन जायदाद बेंचकर तैयारी किये होते है वो हताश और निराश होकर आत्महत्या कर लेते है। कुछ दूसरी ओर फिर से स्वयं को पुनः परखते है, उनमे से कुछ जो सम्पन्न और व्यापारी वर्ग से है वो अपना रुख़ व्यापार कि ओर  कर लेते है, कुछ युवा इस स्थिति में गलत कदम उठाते हैं जो अक्सर नक्सलवाद को सपोर्ट करने लगते हैं, चोरी डकैती इत्यादि करने लगते है, साइबर क्राइम करने लगते है।


अब बड़ी बिडम्बना ये है कि पूरे देश मे एक ही विषय को पढ़े हुवे लोगों में से कोई क्राइम ब्रांच का अधीक्षक बनता है तो कोई क्राइम करके हफ्ते वसूलता है। कल को एक साथ पढ़े दो युवाओं में से एक क्राइम कर रहा है और दूसरा उसे गिरफ्तार कर रहा है। ये कैसी बिडम्बना  है! यदि सबकुछ इसी तरीके से चलता रहा तो सम्पूर्ण विश्व को इसी प्रकार के अव्यवस्थाओं का सामना  करना पड़ेगा।
इस प्रकार के आश्चर्य जनक व्यवस्था को देखते हुवे अत्यंत ग्लानि महसूस होती है, आखिर क्यों नहीं कोई इस बात पर ध्यान दे रहा है, कोई ये क्यों नहीं सोंच रहा है कि क्या होगा इन युवाओं का। सभी बुद्धिजीवियों को चाहिए कि सम्मान वापस करने से अच्छा इनके बारे में सोंचे। आखिर क्यों एक ही प्रकार के संविधान को हमारे माथे का बोझ बना कर रखा  गया है? क्या हम इतना संकीर्ण हो गए है? जो इस दुविधा को समझ तक नही पा रहे हैं। आखिर कबतक हमारा वैचारिक पतन होता रहेगा, कबतक हम सीमावाद और जातिवाद की बातें करते रहेंगे, सोंचिये हम कहीं ब्रिटिश और मुगल दुराचारियों के षड्यंत्रों का सामना तो नही कर रहे हैं? कहीं हैम उनके बिछाए जाल में फंसे तो नही जा रहे हैं? मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हमे वैदिक संविधान के द्वारा इस समस्या का हल निकालना हीं चाहिए। इसके लिए हमे गहन अध्ययन करके खोज करना पड़ेगा वेदों में, जिस खोज को सदियों पूर्व आचार्य चाणक्य ने किया था, चाणक्य काल में भारत ने एक वैदिक युग का आरंभ किया था। परंतु दुराचारियों ने ईर्ष्या से उस विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को आग के हवाले कर दिया था, जिसमे उनके द्वारा शोध की हुई पुस्तके रखी हुई थी। यदि हम वेदों का अध्ययन पुनः करके गहन खोज करेंगे तो निश्चित ही हमारे सभी समस्याओं का हल मिल जाएगा, और ये कार्य हमे मिलकर करना होगा, क्योकि जबतक हम इसके लिए मिलकर एक सभा का आयोजन नही करते तबतक इस कार्य के लिए शायद कोई तैयार नहीं होगा।

अथर्ववेद में कहा गया है :- 
विद्म ते सभे नाम नरिष्टा नाम वा असि |
ये ते के च सभासदस्ते मे सन्तु सवाचसः ||

सभा, समाज, संगठन बनाकर कार्य साधना कोई नया आयोजन नहीं है ,अपितु यह अत्यन्त पुराना है, इतना  पुराना, जबसे कि इस संसार की रंगस्थली पर मनुष्य आया | उसे यह बोध भगवान ने कराया | जिस संघ या व्यक्ति ने अपने प्रतिनिधि चुनकर सभा में भेजे हैं, वह मानो कह रहा है – विद्म ते सभे नाम = हे सभे ! हम तेरा नाम (यश) जानते हैं |

सभा में बैठने योग्य को ‘सभ्य’ कहते हैं, ‘सभ्य’ के चालचलन को ‘सभ्यता’ कहते हैं | तनिक ध्यान दीजिए, तो स्पष्ट भान हो जाएगा कि सभ्यता संगठन के बिना नहीं हो सकती | सभा का एक अर्थ है प्रकाशयुक्त, अर्थात सभा एक ऐसे जनसमुदाय को कहते हैं जिसमें सब मिलकर ज्ञानपूर्वक और ज्ञानरक्षक कार्य करते हैं छिपकर अन्धकार में कार्य्य नहीं करते | इसीलिए आगे कहा है – नरिष्टा नाम वा असि = तू सचमुच नरहितकारिणी है | इसलिए सभा का अयोजन होना चाहिए जिसमें वैदिक संविधान के विषय मे चर्चा की जाए और इस मानव निर्मित निराधार संविधान को खत्म करके पुनः शांति,शौर्य और वैदिक सनातन की स्थापना  की जाए, और इस भागदौड़ भरे युवाओं के जीवन मे और नए मार्ग निर्माण किये जायें ताकि सबमें समानताएं बनाई जा सके और भारत सहित अन्य देशों में भी वैदिक आधुनिक संविधान को अपनाकर आतंकवाद, नक्सलवाद, साइबर क्राइम, चोरी, डकैती इत्यादि निज़ात पाई जा सके, और सम्पूर्ण विश्व को वैदिक संविधान के द्वारा एक उचित और व्यापक व्यवस्था  दी जाए, ताकि सुकर्म, सुसंस्कार की भावनाएं व्याप्त हो और अज्ञानता, काम-वासना, राग, द्वेष और प्रतिशोध की भावनाएं समाप्त हो सके। इसके लिए आपको एक बार पुनः वेदों कि ओर आना ही पड़ेगा ।

~आचार्य अभिजीत

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