दसवाँ अवतार कल्कि नाम से शस्त्रधारी मानव-रूप में होगा। यही है दशावतार का क्रम। इसमें सृष्टि का क्रमिक विकास छिपा हुआ है। विज्ञान की दृष्टि से भी इसका महत्त्व है। ~डा॰ आशीष
परमात्मा ब्रह्म मूलतः निर्गुण-निराकार हैं। लेकिन, जब-जब धर्म का पराभव और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब धर्म की प्रतिष्ठा, सज्जनों के कल्याण तथा दुष्कर्मियों के विनाश हेतु इस धराधाम पर अवतरित होते हैं। बढ़ने और पालन-पोषण के अर्थ में प्रयुक्त ‘बृंह्’ धातु में ‘मनिन्’ प्रत्यय लगने से ‘ब्रह्मन्’ शब्द बनता है। इसका अर्थ होता है-वह परमात्मा, जो निर्गुण-निराकार है। वेदांत के अनुसार, इस दृश्यमान संसार के निमित्त और उपादान कारण वही हैI वह परम व्यापक है, अर्थात् सबमें व्याप्त I वह रस-रूप है(रसो वै सः)। परमात्मा का अर्थ होता है- परे से परे, अर्थात् त्रिलोकी से परे एक सच्चिदानंद आत्मा पुरुषोत्तम, जो ‘महासूर्य’ के नाम से भी जाना जाता है। उससे भी परे होने के कारण अगम्य, अगोचर, निर्विशेष आत्मा ही परमात्मा है। तैत्तिरीय ब्राह्मण, श्वेताश्वतरोपनिषद् आदि में इसका वर्णन मिलता है। सभी नाम-रूपों का उद्भव उसी से होता है, वह द्वैत से परे एक है। वह शब्द और तर्क से परे है।
ब्रह्म के दो रूप माने गए हैं-आभु और अभ्व। आभु निराकार-निर्विशेष परब्रह्म है। मन और वाणी से अगम्य, अर्थात् अगोचर और अनिर्वचनीय। अभ्व दृश्यमान चराचर जगत में व्याप्त है-‘‘ब्रह्म द्विधा दृश्यत आभुचाभ्वं यन्निविशेषं प्रथमं तदाभु। आभु ब्रह्म त्रिविध होता है-आनंद, चेतना और सत्ता। इसे हम सच्चिदानंद कहकर पुकारते हैं। कर्म, रूप और नाम अभ्व के तीन रूप हैं। असल में, ये माया के भेद हैं। सच पूछिए तो अभ्व आभु से उत्पन्न है- “आभुनि भवं अभ्व।” दूसरे शब्दों में, आभु से अभ्व के उत्पन्न होने की स्थिति को हम निर्गुण से सगुण की उत्पत्ति, अर्थात् निर्गुण ही मान सकते हैं, जो परिस्थितिवश सगुण रूप धारण कर लेता है- “एकोऽहं बहुस्याम्’।”
अब तक ब्रह्म के नौ अवतार हो चुके हैं। दसवाँ कलियुग के अंतिम चरण में शंभलपुर-वासी ‘विष्णुयश’ नामक विष्णुभक्त ब्राह्मण के पुत्र-रूप में होगा, ऐसा हमारा पुराण-साहित्य कहता है। इसतरह, भारत में दशावतार की कहानी घर-घर में प्रचलित हुई। क्रम इसतरह है-1.मत्स्य या मीन, 2. कूर्म या कच्छप, 3. वाराह या शूकर, 4. नृसिंह या नरसिंह, 5. वामन, 6. परशुराम, 7. राम, 8. कृष्ण, 9. बुद्ध और 10. कल्कि। बाॅलीवुड की अभिनेत्री ‘कल्कि कोचलिन’ का नामकरण उनकी फ्रेंच माँ ने ‘कल्कि-कथा’ पढ़कर ही किया था। कहते हैं, ब्रह्मस्वरूप विष्णु के ये दशावतार ऋ़षि भृगु के शाप के कारण हुए थे। उनकी पत्नी का वध विष्णु के हाथों हो गया था। फलस्वरूप, ऋषि ने उन्हें जीव-योनि में जन्म लेने के लिए बाध्यकारी शाप दे दिया था। कहीं-कहीं दस के बजाय सात अवतारों का उल्लेख मिलता है। इसतरह, श्रीराम ब्रह्मस्वरूप विष्णु के सातवें अवतार हैं।
परंपरित मान्यता के अनुसार, राम का जन्म त्रेतायुग में हुआ था, अर्थात् आज से 13 लाख, 14 हजार वर्ष पहले। युगों की उम्र क्रमशः 17,52,000 वर्ष (सत्ययुग/सत्युग), 13,14,600 वर्ष (त्रेता), 8,76,000 वर्ष (द्वापर), 4,38,000 वर्ष(कलियुग) तय की गई। नीलेश नीलकंठ ओक ने खगोलशास्त्रीय खोज के आधार पर राम का जन्म आज से 14 हजार, 228 वर्ष पूर्व माना है, जबकि पी.पी. वर्तक ने 9 हजार, 342 वर्ष पूर्व मंगलवार के दिन।
रामावतार के पूर्व ब्रह्मस्वरूप विष्णु के छह अवतार हो चुके थे। इनमें पहला मीनावतार जलचर मछली के रूप में हुआ। यह प्रसंग इस बात का संकेतक है कि जीव का विकास पानी से हुआ है। दूसरा अवतार कच्छपावतार है। कछुआ उभयचर (ऐंफिबियन) होता है, अर्थात् जल और थल-दोनों पर जीवन जीनेवाला। तीसरा वाराह/शूकरावतार है। सुअर थलचर जीव होता है। उसे कीचड़ में रहना पसंद है। चतुर्थ नरसिंह अवतार है, अर्थात् आधा पशु और आधा मनुष्य। मनुष्य का अस्तित्व यहीं से शुरू होता है। फिर, वामन के रूप में लघु मानव का जन्म होता है। इसके बाद पूर्ण मानव परशुराम आता है। लेकिन, वह क्रोधी, फलस्वरूप परशुधारी बना। शस्त्र और शास्त्र- दोनों को धारण करनेवाला अवतारी पुरुष। तदुपरांत मर्यादापुरुषोत्तम राम का आविर्भाव होता है। राक्षसी संस्कृति के विनाश और आर्य संस्कृति की स्थापना के लिए उसे धनुर्धारी बनना पड़ा। आठवें अवतार में विष्णु को मुरलीधर कृष्ण का रूप धारण करना पड़ा। पशुपालन और कृषि-संस्कृति का संस्थापक तथा देवराज इंद्र का वर्चस्व तोड़ने वाला। इसका अर्थ यह नहीं कि उसने असुरों का वध नहीं किया था। कंस और उसके सहयोगी असुरों का संहार ही तो कृष्णावतार का लक्ष्य था, साथ ही, दुर्वृत्त और हठी दुर्योधन का विनाश भी। शस्त्रास्त्र धारण उनका आपद्धर्म था। नवें अवतारी के रूप में बुद्ध का अवतार होता है, जिनके लिए अहिंसा ही सर्वोपरि थी- जीवन जीने का शांतिपूर्ण तरीका। ईर्ष्या और हिंसा से दूर।
दसवाँ अवतार कल्कि नाम से शस्त्रधारी मानव-रूप में होगा। यही है दशावतार का क्रम। इसमें सृष्टि का क्रमिक विकास छिपा हुआ है। विज्ञान की दृष्टि से भी इसका महत्त्व है। मीनावतार प्रलयकारी जलप्लावन से सृष्टि को बचाने के लिए हुआ था, जबकि शेष 9 अवतार क्रमशः समुद्र-मंथन के समय मथानी को अपनी पीठ पर उठाने हेतु कूर्मावतार, पृथ्वी को पाताल ले जाने वाले राक्षसराज हिरण्याक्ष-वध हेतु वाराह अवतार, अपने विष्णुभक्त पुत्र प्रह्लाद को जान से मारने का उपक्रम करने वाले पापी पिता हिरण्यकशिपु-वध हेतु नरसिंहावतार, युद्ध में देवराज इंद्र को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार जमाने वाले असुरराज ‘बलि’ का मान-मर्दन करने वाले भगवान् वामन-रूप, अत्याचारी क्षत्रिय-राजा ‘सहस्त्रबाहु’ तथा उसके वंशजों के वध-हेतु; क्योंकि उनलोगों ने न केवल परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि की हत्या कर दी थी, अपितु उनके आश्रम को तहस-नहस भी कर दिया था। परशुराम की माँ ‘रेणुका’ ने 21 बार अपनी छाती पर मुक्का मारकर विलाप किया था।(परशुराम अवतार) पापी राक्षसराज रावण तथा उसके आततायी परिवारजनों (विभीषण तथा स्त्रियों को छोड़कर) का वधकर मर्यादा स्थापित करने हेतु रामावतार-रूप में, अपने अत्याचारी मामा ‘कंस’ तथा उसके सहयोगियों का वध करने हेतु कृष्णावतार रूप में, दुखमय संसार के कल्याणार्थ अहिंसावतारी महात्मा बुद्ध के रूप में, जबकि अंतिम अवतार, अर्थात् दशमावतारी कल्कि भगवान-रूप में कलियुग के दोषों का निवारण हेतु। उनका यह अवतार कलियुग के अंतिम चरण में ब्राह्मण-पुत्र के रूप में होगा। ‘देवदत्त’ नामक घोडे़ पर बैठकर हाथ में तलवार लिये चलेगा। कलियुग के बाद फिर से सत्ययुग, त्रेता आदि का चक्र शुरू हो जाएगा।
इसतरह, दशावतार की कथा बताती है कि जो कमी नरसिंह में थी, उसे वामन ने पूरा किया, जो कमी वामन में थी, उसे परशुराम ने पूरा किया और जो कमी परशुराम में रह गई थी, उसकी पूर्ति रामावतार में हुई। राम में जो कमी थी, उसे कृष्ण ने पूरा किया। श्रीकृष्ण की कमी को बुद्ध ने पूरा किया। अंततः सभी कमियों को दूर कर सत्ययुग की वापसी के उद्देश्य से ‘कल्कि’ भगवान् का अवतरण होगा।
ऋग्वेद के ‘पुरुष सूक्त’ के इस मंत्र- “यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः” से संकेत मिलता है कि दस विज्ञानों के शोधकर्ता देवता तब ‘साध्य’ कहलाते थे। ये दस विज्ञान वस्तुतः सृष्टि के दस सिद्धांत हैं; जैसे-1.सदसद्वाद, 2. रजोवाद, 3. व्योमवाद, 4. अपरवाद, 5. आवरणवाद, 6. अम्भोवाद, 7. अमृत-मृत्युवाद, 8. अहोरात्रवाद, 9. दैववाद और 10 संशयतदुच्छेतवाद। इनमें छठा वाद अम्भोवाद, अर्थात् जलवाद है। इसके अनुसार, सृष्टि का मूल जल है। कुछ लोग अम्भो का अर्थ जल न लेकर अन्य मूल तत्त्व लेते हैं। इस संबध में डाॅ0 बी.एल. गोरसी की पुस्तक ‘वेद और आधुनिक विज्ञान’ देखी जा सकती है।
सृष्टि की उत्पत्ति को लेकर भारतीय मत यही कहता है कि सृष्टि से पूर्व अंधकार ही अंधकार था, अर्थात् भेद और अभेद का ज्ञान नहीं था-सब कुछ अगम्य। ब्रह्म सिद्धांत के अनुसार, शुरूआत में एक ही तत्त्व था-ब्रह्म। इसे आत्मा और रस भी कहा गया। ब्रह्म से परात्पर, फिर मन। मन की स्थिति तक ब्रह्म का स्वरूप प्रसुप्त था। वैदिक वाङ्मय में ब्रह्म आत्मा, रस, परात्पर तथा मन को इस सृष्टि का मूल और निरपेक्ष आधार बताया गया है, मन (मित्र) और प्राण (वरूण) को ‘मैत्रावरुणाग्रह’ कहा गया है। इससे ‘वाक्’ उत्पन्न हुआ, जो द्रव्य की पहली अवस्था थी। ऊर्जा से पदार्थ की उत्पत्ति हुई। इसे बाद चलकर आइंस्टाइन ने भी साबित किया। फ्रेड होयले तथा टाॅमस गोल्ड ने भी अपने सिद्धांत-प्रतिपादन के दौरान स्वीकारा कि सृष्टि आज जैसी है, वैसी शुरूआत में भी थी। लेकिन, इस सिद्धांत को धक्का तब लगा, जब सृष्टि का बिग बैंग (बड़ा धमाका) सिद्धांत आया। इस सिद्धांत के मुताबिक शुरूआत में यह ब्रह्माण्ड आग के गोले के समान था। प्रकाश की गति से यह महागोला फटा और फिर कालक्रम में सृष्टि बनी। इसतरह, इस महान् विस्फोट के समय ‘माइक्रोवेव बैकग्राउंड रेडिएशंस’ पैदा हुए थे। अमेरिका के दो वैज्ञानिकों- अर्नोपेनजियस तथा राॅबर्ट विल्सन ने इस सिद्धांत पर अपनी मुहर लगाई। इसके लिए उन्हें 1964 में नोवेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। ‘कोब’ (काॅस्मिक बैकग्राउंड एक्सप्लोरर) उपग्रह के द्वारा उस समय के चित्र लिये गए थे। जो महाविस्फोट आज से 15 विलियन, अर्थात् 15 अरब साल पहले हुआ था, उसकी रेडियो तरंगें आज भी धरती पर पहुँच रही हैं। आज सृष्टि की रचना का सच यह है कि यह बिग बैंग के कारण अस्तित्व में आयी। इसके बावजूद यह हमारे वैदिक सिद्धांत के समीप की चीज है। महाविस्फोट से आग का गोला पैदा हुआ। ऋग्वेद में जाज्वल्यमान-भास्वर ‘हिरण्यगर्भ’ का उल्लेख मिलता है। सोने के रंगवाला यह गोला प्रकारांतर से बिग बैंग का आग्नेय गोला ही तो था।
मैं आपको फिर एक बार राम के पास लिये चलता हूँ। ‘रम्’(धातु)+‘घञ्’ (प्रत्यय) =राम का अर्थ होता है – घट-घट में रमण करने वाला। कबीरदास यही अर्थ तो लेते हंै। तुलसीदास भी तो प्रकारांतर से यही कहते हैं-‘‘सिय राममय सब जग जानी। सूरदास की भी यही धारणा है- ‘‘जित देखौं तित स्याममयी’’। जिधर देखो उधर राम और कृष्ण ही नजर आते हैं। यही ब्रह्म की सर्वव्यापकता है। ईशावास्योपनिषद् ने तो अपने पहले ही छंद में इस संसार को ईश्वर का आवास (ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्) घोषित कर दिया। गीता में श्रीकृष्ण ने भी यही कहा है- “यो मां सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।/तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।” अर्थात् जो मुझे सर्वत्र और सबमें देखता है, मैं उसके लिए अदृश्य नहीं और वह भी मेरे लिए अदृश्य नहीं। राम इसी रूप में सबमें सर्वत्र विराजमान हैं। वह सद्वृत्ति का प्रतीक है। दूसरी ओर रु+णिच्+ल्युट्= रावण का अर्थ सबको रूलाने वाला, डराने वाला होता है। “रोदयति- भीषयति सर्वान् इति रावणः।” इसतरह, रावण असद् वृत्ति का प्रतीक हुआ। दोनों एक दूसरे के विलोम हैं। सद् और असद् वृत्तियों का संघर्ष कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारे भीतर ही दिन-रात चलता रहता है। कभी अच्छी वृत्ति, अर्थात् राम तो कभी असद् वृत्ति-रावण की जीत होती है। अंततः राम की ही जीत होती है। राधाकृष्ण की कहानी ‘रामलीला’ और निराला की कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ इसके उदाहरण हैं। सीता भूमि तत्त्व है; क्योंकि वह धरती से पैदा हुई है। दोनों के बीच संघर्ष इसी के कारण है। असद्वृत्ति के प्रतीक रावण का सपरिवार विनाश होता है। क्या हम इस प्रतीकात्मक अर्थ को ग्रहण कर पाएँगे? करना ही होगा, तभी हम सीताराम के भक्त कहलाएँगे।
जो हो, औरों के लिए दशावतार-कथा पौराणिक महत्त्व व रुचि मात्र का आधार रही हो, किन्तु मेरे लिए इसका प्रतीकात्मक महत्त्व है। इस कथा में मुझे सृष्टि का जीववैज्ञानिक विकास-क्रम दिखाई पड़ता है। न केवल प्राचीनतम वेद ऋक्, बल्कि बाइविल और कुरान-शरीफ भी इस बात की घोषणा करते हैं कि सबसे पहले पानी का ही अस्तित्व था, जो चारों ओर अंधकार से आवृत्त था। ऋग्वेद के दसवें मंडल का 190वाँ सूक्त इसका साक्षी है।
यह पंक्ति देखिए-‘‘तम आसीत् तमसा गूढम्ग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्।” अर्थात् ‘‘केवल तम था पूर्वकाल में/ तम से ढँका हुआ व्यापक जल/जन्म पा गया एक अकेला वह/अपने तप की महिमा बन।