वेदोनित्यमधीयतां तदुदितं कर्मस्वनुष्ठीयतां,

वेद में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, चार प्रकार के पुरुषार्थ कहे गए हैं,ये चारों मानव जीवन के संतुलन गतिविधयों के लिए बनाया गया है ,जिसमें सर्वप्रथम धर्म का स्थान है  आता है,इसका तात्पर्य है कि मानव को धार्मिक रीति से धन कमाना चाहिए  भ्रष्टाचार कदापि नही करनी चाहिए, क्योंकि इसका दुष्परिणाम भयंकर रूप में होता है,वैदिक अर्थ नीति और दंड नीति में भ्रष्टाचार ,कदाचार इत्यादि के विषय में कोई उल्लेख नही मिलता है।


बौद्ध काल के व्यवसाइयों ने ऋग्वेद काल से हीं चल रहे समुद्री मार्गों का अवलोकन किया था, तथा तटों की परिक्रमा भी की थी । तत्पश्चात संभवतः वर्मा, मलाया तथा इंडोनेशिया के द्वीपों से प्रथम संपर्क किया था। ईसा सैकड़ों वर्ष पूर्व आर्यों ने वेदोक्त रीति से व्यावसायिक,और वाणिज्यिक व्यवस्था का संचालन किया था,उस समय विदेश यात्रियों ने इस व्यवस्था को सर्वोत्तम बताते हुवे इसको अपनाया था, हालांकि उस समय वस्तु विनिमय (किसी वस्तु के बदले में कोई वस्तु का लेन -देन करना) ही व्यापार का मुख्य मार्ग था, जो कि भविष्य के लिए उचित था, हमें वस्तु विनिमय के व्यवस्था ने   हर एक देश के सामिग्रीयों से परिचय करवाया, समयान्तर में आर्यों  के इस व्यवस्था को अपनाते हुवे मिस्र, असीरिया और बेबीलोन आदि के लोगों ने  भी पृथक-पृथक स्थानों पर व्यापार करना प्रारंभ किया, वैदिक काल से चल रहे इस व्यापार व्यवस्था से ब्रिटिश के व्यापारी बहुत प्रभावित हुवे ,इस व्यवस्था के विषय में जानने के लिए उन्होंने आर्यों का शरण लिया और उनसे ब्रिटिश के व्यवसाइयों ने इस अर्थशास्त्र के विषय मे अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया जिनमे हॉलैंड ,और जापान के अर्थशास्त्री भी मौजूद थे ,उन्होंने आर्यों से ऋग्वेदादि अनेक वैदिक ग्रंथों का अध्ययन किया ,और स्वयं के भाषा में भाषांतरण करके ,आयुर्वेद,धनुर्वेद,और विमान शास्त्रों पर भी खोज किया,इस विषय में एक पुस्तक का नाम आपके समक्ष प्रकट करता हूँ जो ईसवी शतक के पश्चात प्रथम शताब्दी के अंत के समीप का है ,जिसका नाम ‘इरिथियन’ सागर का पेरिप्लस’ नाम ग्रंथ जिसके रचयिता का नाम अज्ञात है,ये ग्रंथ  भारत के वैदिक वाणिज्य के संबंध में ज्ञान देता है। कौटिल्य ने नंदवंशों के विनाश के पूर्व ही अर्थशास्त्र का मानसिक निर्माण कर दिया था, तत्पश्चात मौर्य साम्राज्य के स्थापना के बाद अर्थशास्त्र का रचना किया ,वैदिक काल में भी “समगृहिर्तृ” तथा “भाग दुग्ध” नामक पदाधिकारी वित्त तथा आय का लेखा ब्योरा रखते थे। यह संभव है कि वैदिक सगृहितृ तथा कौटिल्य के सनिधातृ का कार्य क्षेत्र एक ही रहा हो। 


इस प्रकार अनेकों अर्थशास्त्रियों ने अपने स्तर से वेदों का दोहन किया है, और समाज में प्रायः विलुप्त हो चुकी वैदिक परंपरा को पुनः स्थापित किया है।इस तरह से वैदिक अर्थ शास्त्र हमारे समाज का महत्वपूर्ण अंग रहा है । मनुष्य जीवन का लक्ष्य भगवत-प्राप्ति है परंतु वर्णाश्रम के अंतर्गत रहते हुए जीवन-निर्वाह करने के लिए समाज में अर्थ यानि धन की आवश्यकता है । पूर्व-काल में धन के कई प्रकार थे परंतु आजकल यह कागज के नोट और बैंक में पड़ी हुयी आपकी डिजिटल धनराशि ही बन कर रह गयी गई है । इस के फलस्वरूप समाज में भ्रष्टाचार और काले धन की वृद्धि हुयी है
देखा जाए तो आज के समय के अर्थशास्त्रियों ने उन रिसर्चों को हीं मुख्य मानते हुवे  वेदों को भुलाने का प्रयास करते जा रहे है,  और आधुनिक काल के पनपते अर्थशास्त्रियों के मानसिकता में तरह तरह की बातें बता कर वैदिक वाणिज्य व्यवस्था के मूल स्रोत को किनारे करते जा रहे हैं, इनके फलस्वरूप एक सफल व्यवसायी को शिखर से शून्य का सामना भी करना पड़ता है , आधुनिक खोज से कल का करोड़पति आज रोड पति भी हो जाता है ,और कल का रोड पति आज करोड़पति भी हो जाता है, ये ठीक है लेकिन ये कहाँ तक उचित है, बिना जानकारी के बिना ज्ञान के हम वाणिज्यिक कार्य धन के बल पर कर तो लेते हैं लेकिन कुछ ही समय चलने के पश्चात उसमे हानि का सामना करना पड़ता है, कुछ अर्थ शास्त्री कहा करते हैं कि प्रारंभिक 2 साल तक हानि का सामना करना पड़ सकता है, इस बात को लेकर मुझे इन मूर्खों पर हंसी आ जाती है ,  अगर ये अर्थ शास्त्र के मूल स्रोत को देखते हुवे चलते तो शायद इस प्रकार की अनाब -सनाब जवाब नही देते,वैदिक अर्थ शास्त्र को यदि जानते हुवे व्यापार करेंगे तो प्रथम दिवस से ही आपका व्यापार लाभप्रद रहेगा और दीर्घकाल तक चलेगा , वैदिक अर्थशात्र के तहत ठीक तरीके से वास्तु के  नियमों को स्वीकारते हुवे यदि फ़ैक्टरी, या कारखाने का निर्माण करवाते हैं तो निश्चित रूप से आपकी फ़ैक्टरी या कारखाना उन्नति कि ओर अग्रसर रहेगा , अग्निभय या कर्मचारियों की समस्या नहीं रहेगी, इसके लिए आपको एकबार पुनः वेदों की ओर आना होगा ।

~आचार्य अभिजीत

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