आज के व्यस्ततम युग में अधिकतर यह देखने को मिलता है कि माता-पिता के कहने पर युवा यज्ञोपवीत संस्कार तो करवा लेते हैं लेकिन उसे धारण करके नही रखते या पहनते हैं तो इसे धारण करने संबंधी नियमों का पालन नहीं करते। आजकल गुरु परंपरा के समाप्त होने के बाद अधिकतर लोग जनेऊ नहीं पहनते हैं तो उनको विवाह के पूर्व जनेऊ पहनाई जाती है। लेकिन वह केवल रस्म निभाते है इससे ज्यादा कुछ नहीं, क्योंकि वे जनेऊ का महत्व नहीं समझते हैं। किसी भी धार्मिक कार्य, पूजा-पाठ, यज्ञ आदि करने के पूर्व जनेऊ धारण करना जरूरी है। सनातन धर्म में विवाह तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक कि जनेऊ धारण नहीं किया जाए। यह ध्यान रखना चाहिए कि यदि आपका यज्ञोपवीत संस्कार हो गया है तो सदा इसे धारण करें और शिखा में गांठ लगाएं, बिना शिखा और बिना यज्ञोपवीत वाला जो धार्मिक कर्म करता है, वह निष्फल हो जाते हैं। यज्ञोपवीत न होने पर द्विज को पानी तक नहीं पीना चाहिए। जब बच्चों का उपनयन संस्कार हो जाये तभी शास्त्र की आज्ञानुसार उसका अध्ययन शुरू करना चाहिए। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य यह तीनों द्विज कहलाते हैं क्योंकि यज्ञोपवीत धारण करने से उनका दूसरा जन्म होता है। पहला जन्म माता के पेट से होता है, दूसरा जन्म यज्ञोपवीत संस्कार से होता है। धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि यज्ञोपवीत धारण करते समय जो वेदारम्भ कराया जाता है, वह गायत्री मंत्र से कराया जाता है। प्रत्येक द्विज को गायत्री मंत्र जानना उसी प्रकार अनिवार्य है जैसे कि यज्ञोपवीत धारण करना।उपनयन कहते है स्वार्थ की संकीर्णता से निकलकर परमार्थ की महानता में प्रवेश करने को, पशुता को त्याग कर मनुष्यता ग्रहण करने को दूसरा जन्म कहते हैं। शरीर जन्म माता-पिता के रज-वीर्य से वैसा ही होता है, जैसा अन्य जीवों का। आदर्शवादी जीवन लक्ष्य अपना लेने की प्रतिज्ञा करना ही वास्तविक मनुष्य जन्म में प्रवेश करना है। इसी को द्विजत्व कहते हैं। द्विजत्व का अर्थ है दूसरा जन्म।