पुरूषार्थ सिध्दान्त में मनुष्य की सभी ईच्छाओं, आवश्यकताओं और उद्देश्यों को चार वर्गो में विभक्त किया गया है – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य ‘मोक्ष’ है। मोक्ष प्राप्ति के लिये गीता कभी नही कहती है कि संसार त्याग करने से मोक्षप्राप्ति सम्भव नही है। मोक्ष से तात्पर्य है ‘आवागमन के बन्धन से मुक्ति पाना’ है।
गीता में यह अन्तिम निश्कर्ष के रूप में वर्णित है, कि ईश्वर के प्रतिपूर्ण समर्पण की भावना ही परमपद प्रदान कर सकती है। गीता में कहा गया है-
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।
अर्थात् “हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमात्मा की ही शरण में ही जा। उस परमात्मा का कृपा से ही तुम्हें परम शान्ति तथा सनातन परन धन प्राप्त होगा। गीता के अन्तिम अध्याय का नाम ही ‘मोक्षयोग’ है भगवान ने कहा है, त्रिविधत्याग और सन्यास मुख्य है। काम्यकर्म का त्याग ही सन्यास है और सारे कर्मो के फल मात्र का त्याग ही यथार्थ त्याग है, जो कर्मफल त्यागी है, वही यथार्थ सन्यासी है । देहधरीजीव देह में वर्तमान रहते सभी कर्मो का त्याग नहीं कर सकता है क्योंकि श्वास प्रश्वास की स्वाभाविक वृत्ति भी कर्म है। पूजा अर्चना भगवान का स्मरण मनन भी कर्म है स्वधर्म भी कर्म है, इस कारण गीता कर्मत्याग का उपदेश नहीं देती है। कर्मफल त्याग करके स्वधर्म का अनुश्ठान ही भगवान का स्पष्ट निर्देष है। भगवान कहते हैं कि जो अनन्य भाव से मेरी उपासना करते है और जो इसप्रकार नित्य मुझमे ही रत् रहते है उनके योगक्षेम का भर मैं स्वयं उठाता हूँ। कहा भी गया है –
अनन्याश्चिन्तयतो मां ये जना: प्र्युपासते ।
तेशां नित्यभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।।(गीता 9/22)
इस प्रकार इस श्लोक में कहा गया है कि अपना आत्मसर्पण ईश्वर के सामने पूरी तरह से कर दो इस प्रकार मोक्ष, आत्मज्ञान के परमपुरूष के स्वरूप की अनुभूति है। ईश्वर या परमपुरूष नित्य शुद्ध चैतन्य एवं अखण्ड आनन्द स्वरूप है। आत्मा ज्ञान स्वरूप है और मोक्ष आत्मा का स्वरूप ज्ञान है। अविद्या के कारण ही जीव अहंकार और ममकार युक्त होकर स्वयं को शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता, भोक्ता मान बैठता है और जन्म मरण चक्र में संसरण करता रहता है। यही उसका ‘बन्धन’ है जब आत्मज्ञान द्वारा अविद्या निवृत्ति हो जाती है तो जीव नित्य, शुद्ध, ब्रह्म भाव को प्राप्त कर लेता है। यह उसकी बन्धन से मुक्ति है। किन्तु वास्तव में जीव का न तो बन्धन होता है और न ही मोक्ष होता है। केवल अविद्या ही आती और जाती है। इसलिये बन्धन और मोक्ष परमार्थत: मिथ्या है। केवल व्यवहारिक सत्यता है। परमात्मा पूर्ण आत्मसम्र्पण चाहता है। और उसके बदले में हमें आत्मा की वह शक्ति प्रदान करता है जो प्रत्येक स्थिति को बदल देती है-
सर्व धर्मान: परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज।
अहमं त्वां सर्व पापेभ्यो मोक्षयिश्यामि मा शुच:।।(गीता 18/66)
अर्थात् सब व्यक्तियों को छोडकर तुम केवल मेरी शरण में आ जा, तू दु:खी मत हो मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा इस प्रकार सर्वज्ञ, समदश्री क्षेत्रज्ञ ही इन्द्रियों को देखता है जैसे- सूर्य रष्मि द्वारा हमको स्पर्श करता है, इन्द्रिय शक्ति भी उसी प्रकार विषयों को स्पर्श करती है। मन के द्वारा इन्द्रियां रष्मियां सम्यक नियमित होने पर दीप में जैसे ज्वाला प्रकाशित होती है आत्मा भी उसी प्रकार देह घट में प्रकाशित होता है। पाप कर्म का क्षय होने पर जीव को ज्ञान उत्पन्न होता है-
यथादर्शतल प्रख्ये पष्यत्यात्मान मात्मनि।
इन्द्रियाणिन्द्रियार्थाष्च महाभूतादि प´च च।।
मनो बुद्धिमहंकामव्यक्तं पुरूषं तथा।
प्रसंख्यान परावाप्तौ विमुक्तो बन्धनैर्भवेत् ।।
अर्थात् जैसे दर्पण में अपने रूप का दर्शन किया जाता है उसी प्रकार जीव निर्मल बुद्धि में इन्द्रियां, इन्द्रियों के विषय, पंचमहाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार प्रकृति तथा पुरूष को भी देखता है। तब प्रसंख्यानम या विवेक ज्ञान द्वारा देहन्द्रियादि से आत्मा का पार्थक्य निश्चय कर देह आदि बन्धन से विमूक्त होकर परमार्थ को प्राप्त होता है। जीव को जब यह ज्ञान हो जाता है कि मैं परमज्योति स्वरूप ब्रह्म हूँ’ इस प्रकार की उपलब्धि प्राप्त करके मुक्त हो जाता है। चतुर्विष तत्व से पृथक होकर पंचविष रूप में जो प्रसिद्ध पुरूष है वह विवेक विचार द्वारा प्रकृति से पृथक होकर केवल लाभ प्राप्त करता है। और शडविंश तत्व स्वरूप जो ब्रह्म है उसका साक्षात्कार करता है। गीता में वर्णित विश्वरूप दर्शन का एक मात्र लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार ही है। चाहे कर्मयोगी हो या ज्ञानयोगी अथवा भक्तियोगी सभी उस परश्रद्धेय की दृष्टि में एक हैं और मोक्ष प्राप्ति के योग हैं। इस प्रकार भगवान ने यमं, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, और समाधि से अष्टांग योग विमूक्त के उपाय कहे गये हैं।