सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति में मनुष्य के 16 संस्कार किये जाने का विधान है। इनमें से एक संस्कार उपनयन संस्कार कहलाता है, जिसे यज्ञोपवीत, जनेऊ, उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र एवं संस्कार भी कहते  हैं। ध्यान देने की बात है कि यह कोई साधारण धागा नहीं है, बल्कि हमारे सनातन धर्म में इसके साथ कई विशेष मान्यताएँ जुड़ी हुई हैं।साधारण  सूत धागे से बना हुआ इस पवित्र यज्ञोपवीत के माध्यम से ही देवता, ऋषियों एवं पितरों का ऋण चुकाया जाता है।वैदिक सनातन में विभिन्न संस्कारों में से एक अत्यंत महत्वपूर्ण संस्कार यज्ञोपवीत धारण करना भी है। यज्ञोपवीत संस्कार का कार्यक्रम बेहद वृहद स्तर पर आयोजित किये जाते हैं क्योंकि इसे धारण करने के बाद व्यक्ति को शक्ति के साथ ही शुद्ध चरित्र मिलता है और वह कर्तव्य परायणता के बोध से विभोर हो जाता है। पौरागिण ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि तपस्वियों, सप्त ऋषि तथा देवगणों ने कहा है कि यज्ञोपवीत ब्राह्मण की शक्ति है। ब्राह्मणों का यह आभूषण स्वर्ण या मोतियों का बना हुआ नहीं है, ना ही यह मोतियों से बना हुआ है। यज्ञोपवीत संस्कार के आयोजन के हेतु भी शुभ मुहूर्त देखा जाता है।


यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं
 प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रयं प्रतिमुंच शुभ्रं
 यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।1।।


 यज्ञोपवीत परम पवित्र है, प्रजापति ईश्वर ने इसे सबके लिए सहज ही बनाया है। यह आयुवर्धक, स्फूर्तिदायक, बंधन से छुड़ाने वाला और पवित्रता देने वाला है। यह बल और तेज भी देता है। इस यज्ञोपवीत के परम श्रेष्ठ तीन लक्ष्य हैं- सत्य व्यवहार की आकांक्षा, अग्नि के समान तेजस्विता और दिव्य गुणों की पवित्रता इसके द्वारा भली प्रकार प्राप्त होती है।व्रतों से बंधे बिना मनुष्य का उत्थान सम्भव नहीं। यज्ञोपवीत को व्रतशीलता का प्रतीक मानते हैं। धर्म शास्त्रों में यम-नियम को व्रत माना गया है। बालक की आयुवृद्धि हेतु गायत्री तथा वेदपाठ का अधिकारी बनने के लिए उपनयन (जनेऊ) संस्कार अत्यन्त आवश्यक है। इस संस्कार में आचार्य व शिष्य एक वेद मन्त्र बोलकर परस्पर प्रतिज्ञा करते व कराते हैं। 
ॐ मम व्रते ते हृदयं दधामि, मम चित्तमनुचित्तं ते अस्तु। मम वाचमेकमना जुषस्व, प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्। – पार०गृ०सू०१.८.८ ॥
इस मन्त्र में आचार्य प्रतिज्ञा करते हुए शिष्य को कहते है कि ‘हे शिष्य बालक ! तुम्हारे हृदय को मैं अपने अधीन (अपने हृदय में) धारण करता हूं। तुम्हारा चित्त मेरे चित्त के अनुकूल सदा रहे और तुम मेरी वाणी को एकाग्र मन होकर प्रेमपूर्वक  सुनकर उसके अर्थ का सेवन किया करो और आज से तुम्हारी प्रतिज्ञा के अनुकूल बृहस्पति मुझसे युक्त करे।’ इस मन्त्र की भावना के अनुरूप शिष्य भी प्रतिज्ञा करते हुए कहता है कि ‘हे आचार्य ! आपके हृदय को मैं अपनी उत्तम शिक्षा और विद्या की उन्नति में धारण करता हूं। मेरे चित्त के अनुकूल आपका चित्त सदा रहे। आप मेरी वाणी को एकाग्र होके सुनिए और परमात्मा मेरे लिए आपको सदा नियुक्त  रखें।त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक – देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक – सत्व, रज और तम के प्रतीक होते है। साथ ही ये तीन सूत्र गायत्री मंत्र के तीन चरणों के प्रतीक है तो तीन आश्रमों के प्रतीक भी। जनेऊ के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। अत: कुल तारों की संख्‍या नौ होती है। इनमे एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। इनका मतलब है – हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने। जनेऊ में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। ये पांच यज्ञ, पांच ज्ञानेद्रिय और पंच कर्मों का भी प्रतीक है।

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