शौचाचार ( मल-मूत्र त्याग )

शौच का अर्थ है पवित्रता। शौच दो प्रकार का होता है, बाह्य शौच एवं आभ्यन्तर शौच। बाह्य शौच-मिट्टी, साबुन, जल आदि द्वारा शरीर के अंगों को स्वच्छ करना। शौचाचार में सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए, क्योंकि चारों वर्णों का मूल शौचाचार ही है, शौचाचार  का पालन न करने पर सारी  क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं। साधना स्थल व वस्त्रादि की शुद्धि करना, सात्विक आहार से मन को पवित्र रखना, यौगिक क्रियाओं द्वारा शरीर को निरोगी रखना बाह्य शौच है। आभ्यन्तर शौच-यह आंतरिक शुद्धि का साधन है। मन की भीतरी नकारात्मक आदतों का परिष्कार करके उनकी जगह पवित्र विचारों को अपनाना, राग-द्वेष आदि विकारों की जगह मैत्री, करुणा, मुदिता व उपेक्षा का पालन करना आभ्यन्तर शौच है।जल पान के बाद व्यक्ति को मल-मूत्र त्याग करना चाहिए। मल-मूत्र त्याग करते समय सदा मौन रहना चाहिए। नीचे शौच की ओर नादि देखना चाहिए। मल-मूत्रादि के वेग को रोकना नहीं चाहिए।शौच के समय शरीर की स्थिति कैसी हो इसके बारे में हमारे शास्त्र कहते हैं कि सिर, नाक, कान को वस्त्र से ढंक कर मल-मूत्र का त्याग करना चाहिए।


न चानावृत्तमस्तक:शाण्डिल्यस्मृति:।
शिरस्तु प्रावृत्य मूत्रपुरीषे कुर्यात्।।
(आपस्तम्बधर्मसूत्र)

यह वैज्ञानिक पद्धति है। दुर्गंध का प्रवेश नाक, कान आदि से शरीर में न हो इसके लिए ऐसा करना चाहिए। अर्थात सिर, नाक, कान ढंक लेना चाहिए। पानी व *नान्तरिक्षके-* कूर्मपूराण, पद्मपुराण।अंतरिक्ष में अर्थात हवाई जहाज में  मल-मूत्र विसर्जन वैदिक परंपरा में वर्जित है,अंतरिक्ष में मल-मूत्र का विसर्जन ब्रह्माण्ड को प्रदूषित करता है। इससे भारी क्षोभ उत्पन्न होता है। स्कंदपुराण व ब्रह्मपुराण में लिखा है कि पानी में मल-मूत्र न करें। मौन होकर मल-मूत्र का विसर्जन करें।

विण्मूत्रे विसृजेन् मौनी।शौच करते समय बोलना, अखबार पढ़ना, ब्रश करना जीवन और स्वास्थ्य के लिए घातक होता है। 

न गच्छन् न च तिष्ठन् वै विण्मूत्रोत्सर्गमात्मवान्।।खड़े होकर या चलते-चलते मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए।

हंस्तान् द्वदश संत्यज्य मूत्रं जलाशयात्।
अवकाशे षोड्श व पुरीषे तु चतुर्गुणम्।।(धर्मसिंधु)

न ज्योतिंषि निरीक्षन् वा न संध्याभिमुखोपि वा।
प्रत्यादित्यं प्रत्यनलं प्रतिसोमं तथैव च।।(कूर्म पुराण)

स्त्री या पुरुष जो सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, वायु, ब्राह्मण, श्रेष्ठजनों की ओर मुख करके मल-मूत्र का त्याग करते हैं तो 86 वर्ष की आयु तक उनका गर्भ नष्ट होता रहता है। प्राय: पान खाकर लोग कहीं भी किसी भी स्थान पर बिना विचार किए थूक देते हैं। उक्त स्थानों पर थूकना, खाँसना, छींकना भी मल-मूत्र त्याग की ही तरह प्रतिबन्धित है। मल-मूत्र का अनुचित स्थान एवं असमय किया विसर्जन स्वयं तथा मानव समूह के लिए हानिकारक होता है। कल्पना कीजिए गेहूँ, चना का बीज बोया गया है और उसी में कोई मल-मूत्र का त्याग करे तो उस उत्सर्जित अप पदार्थ का रस और संजीवन तत्व उस पौधे और उसके अन्न को कुत्सित करेगा। अत: वहाँ मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए।

न कृष्टे सस्यमध्ये वा गो व्रजे जनसंसदि।
न वर्त्मनि न नद्यादितीर्थेषु पुरुषर्षभ।।
नाप्सुनैवाम्भसस्तरी श्मशाने न समाचरेत्।
उत्सर्ग वै पुरीषस्य मूत्रस्य च विसर्जनम्।। (विष्णु पुराण )

जुते हुए खेत में, गोशाला में, जनसमूह या उसके कार्यस्थल पर, श्मशान में, जल में, सरोवर के पास, मार्ग में, नदी-तीर्थ के पास मल-मूत्र का विसर्जन न करें।

शौच विधि

यदि खुली जगह मिले तो गांव से नैर्ऋत्य कोण (दक्षिण पश्चिम का कोना)  की ओर कुछ दूर जाएं, नैर्ऋत्यामिषुविक्षेपमतीत्याभ्यधिकंभुवः।(पराशर स्मृति)
रात में दूर न जाय। नगरवासी गृह के शौचालय में सुविधानुसार मूत्र-पुरीष का उत्सर्ग करें। मिट्टी और जलपात्र लेते जायँ। इन्हें पवित्र जगह पर रखें। जलपात्र को हाथ मे रखना निषिद्ध है। सिर और शरीर को ढका रखें। जनेऊ को दायें कान पर चढ़ा लें। अच्छा तो यह है कि जनेऊ को दायें हाथ से निकालकर (कंठ में कर के)  पहले दायें कान को लपेटें, फिर उसे सिर के ऊपर से लेकर बायें कान को भी लपेट लें, शिरोवेष्टनस्य तु तदा तेनैव सिद्धेः।  ऐसा करने से सिर ढकने वाला काम पूरा हो जाता है। शौच के लिए बैठते समय सुबह,शाम और दिन में उत्तर की ओर मुख करें तथा रांत में दक्षिण कि ओर, दिवा संध्यास्तु कर्णस्थ  ब्रह्मसूत्र उदङ्मुखः। कुर्यान्मूत्रपुरीषे तु रात्रौ च दक्षिणामुखः।।(याज्ञवल्क्य स्मृति) उसके बाद यज्ञ में काम न आने वाले तिनकोसे  जमीन को ढक दें,इसके बाद मौन होकर शौच क्रिया करें।उस समय जोर से सांस न लें। और थूकें भी नहीं। अंतर्धाय तृणैर्भूमिं  शिरः प्रावृत्य वाससा। वाचं नियम्य यत्नेन ष्ठीवनोच्छवासवर्जितः।। (देवी भागवत)

 शौच के बाद पहले मिट्टी या जल से लिंग को एक बार धोवें।
लिंगशौचं पूरा कृत्वा गुदाशौचं ततः परम।।(आश्वलायन,आचारेंदु)
बाद में मल स्थान को तीन बार मिट्टी जल से धोवें।
 
एका लिंगे गुदे तिस्रस्तथा वामकरे दश।
उभयोः सप्त दातव्या मृदः शुद्धि मभीप्सता।। (मनुस्मृति) ।

प्रत्येक बार मिट्टी की मात्रा हरे आंवले के बराबर हो।

 आर्द्रामलक मात्रास्तु ग्रासा  इंदु व्रते स्मृताः।
तथैवाहुतयः सर्वा: शौचे देयाश्व मृत्तिकाः।। (अचरभूषण)।
बाद में बायें हाथ को एक बार मिट्टी से धोकर अलग करें इससे कुछ स्पर्श न करें। इसके पहले आवश्यकता पड़ने पर बायें हाथ से नाभि के नीचे के अंगों को स्पर्श किया जा सकता था।,किन्तु अब नहीं। नाभि के ऊपर के स्थानों को सदा दाहिने  हाथ से ही छूना चाहिए।
धर्मविद्दक्षिणं हस्तमधः शौचे न योजयेत् ।
तथा च वाम हस्तेन नाभेरूर्ध्वं न शोधयेत् ।। (अचरभूषण)

दाहिने हाथ से हीं लोटा या वस्त्र का स्पर्श करें। लाँग लगाकर ( (पुँछटा खोंसकर) पहले से ही रखी गई,मिट्टी के तीन भागों में से हाथ धोने (मलने) और कुल्ला करने के लिए नियत जगह पर आएं ।पश्चिम की ओर बैठकर मिट्टी के पहले भाग में से  बायें हाथ को दस बार ।और दूसरे भाग में से दोनों कठो को कलाई तक सात बार धोवें। जलपात्र को तीनबार धोकर ,तीसरे भाग से पहले दायें पैर को, फिर बायें पैर को तीन-तीन बार मिट्टी और जल लेकर धोयें।
तिसृभिश्चातलात् पादौ  शोध्यौ गुल्फात् तथैव च।
हस्तौ त्वा मणि बंधाच्च लेप गंधापकर्शणे।।(मरीचि)।
इसके बाद बायीं ओर   बारह कुल्ला करें,

पुरतः सर्व देवाश्च दक्षिणे पितरस्तथा।
ऋषय:पृष्ठत: सर्वे वामे गांडूषमाचारेत्।। (पारिजात,आचाररत्न)। 
कुर्याद् द्वादश गण्डूषान् पुरीषोत्सर्जने द्विजः।
मूत्रे चत्वार एव स्युर्भोजनान्ते तु षोडष।। (आश्वलायन,आचारेन्दु) ।


शेष बची हुई मिट्टी को अच्छी तरह बहा दें,जलपात्र को मिट्टी और जल से धोकर विष्णु का स्मरण कर, शिखा को बांध कर जनेऊ को ‘उपवीत’ लें अर्थात् बायें कंधे पर रखकर दायें हाथ के नीचे कर लें। फिर दो बार आचमन करें – दक्षिणं बहु मुत्सृज्य वमस्कन्धे निवेषितम् । यज्ञोपवीतमित्युक्तं देवकार्येषु शस्यते।।(अंगिरा) ।

(क)।।मूत्र शौच विधि।। केवल लघुशंका-(पेशाब)करने पर शौच की विधि कुछ भिन्न होती है। लघुशंका के बाद यदि आगे निर्दिष्ट क्रिया न कि जाए तो प्रायश्चित्त करना पड़ता है, अतः इसकी उपेक्षा न करें -मूत्रोत्सर्गं द्विजः कृत्वा न कुर्याच्छौचमात्मनः। मोहाद् भुङ्क्ते त्रिरात्रेण  जलं पीत्वा विशुध्यति।। (अंगिरा)। 

विधि यह है- लघुशंका के बाद एक बार लिंगमे, तीन बार  बायें हाथ मे और दो बार दोनो हाथों में मिट्टी लगाएं और धोयें।  एका लिंगे तु सव्ये तृरूभयोर्मृदद्वय स्मृतम्। मूत्रशौचं समाख्यातं मैथुने द्विगुणं स्मृतम् ।। (दक्षस्मृति) । उसके बाद एक- एक बार पैरों में भी मिट्टी लगाएं और धोयें। फिर हाथ ठीक से धोकर  चार कुल्ले करें। आचमन करें, इसके बाद मिट्टी को अच्छी तरह बहा दे। स्थान साफ कर दे। शीघ्रता में अथवा मार्गादि में  जल से लिंग प्रक्षालन कर लेने पर तथा हाथ पैर धो लेने पर और कुल्ला कर लेने पर सामान्य शुद्धि हो जाती है,पर इतना अवश्य करना चाहिए।

(ख) परिस्थिति भेद से शौच में भेद शौच अथवा शुद्धिकी प्रक्रिया परिस्थिति के भेद से बदल जाती है, स्त्री और शूद्र के लिए तथा रांत म् अन्यों के लिए भी यह आधी हो जाती है। यात्रा (मार्ग) में चौथाई बरती जाती है। रोगियों के लिए यह प्रक्रिया ओंकी शक्ति पर निर्भर हो जाती है। शौच के उपर्युक्त विधान स्वस्थ गृहस्थों के लिए है। ब्रह्मचारी को इससे दोगुणा,वानप्रस्थ को तिगुना और संन्यासियों को चौगुना करना विहित है-
स्त्रीशूद्रयोरर्धमानं शौचं प्रोक्तं मनीषिभि:।
दिवा शौचस्य निश्यर्धं पथि पादो विधीयते।।
अर्त: कुर्याद् यथा शक्ति शाक्त: कुर्याद् यथोदितम्।।(दक्ष स्मृति).
 

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