महर्षि वाल्मीकि ने अपने अमर ग्रन्थ रामायण में समाज जीवन के विभिन्न विषयों पर अनगिनत उपयोगी नीतियों का वर्णन किया है। इस लेख में हम रामायण में वर्णित राजपुरुषों और उनकी राजसभा में विमर्श किए गए विभिन्न मन्त्रों (विचारों) कर रहे हैं। यहाँ पर मन्त्री से तात्पर्य मिनिस्टर से नहीं अपितु मन्त्रणा देने के लिए राजसभा में उपस्थित और सक्षम राजपुरुषों से है।
आशा है सभी मित्र रामायण के इस प्रसंग से लाभान्वित होंगे।

Why is Valmiki Jayanti celebrated? - FYI News


मन्त्रिस्त्रिभिर्हि संयुक्त: समर्थैर्मन्त्रनिर्णये।
मित्रैर्वापि समानार्थैर्बान्धवैरपि वाधिकै:।।
वा.रा./ ६/६/७
सहितो मन्त्रयित्वा य: कर्मारम्भान् प्रवर्तयेत्।
दैवे च कुरुते यत्नं तमाहु: पुरुषोत्तमम्।।
वा.रा./ ६/६/८

जिस राजपुरुष के मन्त्री इन तीन प्रकार के गुणों से युक्त हों। मन्त्र (कर्त्तव्य हेतु सुनिश्चित विचार) निर्णय में समर्थ हों, मित्रवत् व्यवहार रखते हों और सुख दुःख में उसके समान ही भाव रखने वाले बान्धव हों। ऐसे मन्त्रियों के साथ मन्त्रणा करके जो अपने कार्य का आरम्भ करने में प्रवृत्त होता है और दैव के आश्रय में अर्थात् सुयोग का अवसर आने पर कार्य करे तो वह उत्तम पुरुष कहलाता है।

यहाँ कहा गया है कि –

१. मन्त्री निर्णय करने हेतु आवश्यक योग्यता और दक्षता रखते हों। विचार हेतु प्रस्तुत विषय का ज्ञान हो और उसके सभी पक्षों से होने वाले लाभ अथवा हानियों को देख और समझ सकते हों।
२. सभी मन्त्री आपस में और अपने स्वामी राजा के प्रति मित्रता का भाव रखते हैं। वे उदासीन अथवा शत्रुभाव रखने वाले न हों।
३. देश और समाज के सुख दुःख में अपने हृदय में समान भाव रखते हों। जिसमें देश का हित हो उसे अपना हित और देश के अहित को अपना अहित समझने और माननेवाले बान्धव हों।

एक महत्वपूर्ण बात यहाँ पर और कही गई है कि राजा इन सब मन्त्रियों के निर्णय को दैव के आश्रय में क्रियान्वित करें। इसका तात्पर्य यह है कि निर्णीत मन्त्र रख लें और जब सुयोग देखे तब उसका क्रियान्वयन कर दे।

एकोऽर्थं विमृशेदेको धर्मे प्रकुरुते मन:।
एक: कार्याणि कुरुते तमाहुर्मध्यमं नरम्।।
वा.रा./ ६/६/९

जो व्यक्ति अकेला ही अपने कर्त्तव्य का विचार करता है। अकेला ही धर्म में अपना मन लगाता है। अकेला ही सभी कार्य करता है, उस मनुष्य को मध्यम श्रेणी का पुरुष कहा जाता है।

इस प्रकार के निर्णय करने वाले राजपुरुष प्राय: साम्यवादी अथवा समाजवादी राजनीतिक संरचना वाले देशों में होते हैं। वहाँ एकदलीय वर्चस्व वाली राजसंसद होती है और उस दल में भी एक ही व्यक्ति का निर्णय सर्वोपरि होता है।

गुणदोषौ न निश्चित्य त्यक्त्वा दैवव्यपाश्रयम्।
करिष्यामीति य: कार्यमुपेक्षेत् स नराधम:।।
वा.रा./ ६/६/१०

जो गुण और दोष दोनों का निश्चय न करके दैव अनुकूल न होने पर भी अर्थात् सुयोग का अवसर न होने पर भी केवल “मैं करूँगा” यह सोचकर कार्य आरम्भ कर देता है और कुछ काल पश्चात् उस कार्य की उपेक्षा करने लगता है उसे पुरुषों में अधम कहा जाता है।

इस प्रकार के राजपुरुष प्राय: निरंकुश (तानाशाही) राजव्यवस्था में देखे जाते हैं। वे प्रस्तुत विचार करते समय न गुण देखते हैं और दोष। वे तो मैं ऐसा ही करूँगा का विचारनिर्णय लेकर कार्य आरम्भ कर देते हैं। और जब कार्य में हानि की सम्भावना दिखने लगती है अथवा जनाक्रोश बढ़ने लगता है तो ऐसे राजपुरुष अपने ही कार्य की उपेक्षा करने लगते हैं।

यथेमे पुरुषा नित्यमुत्तमाधममध्यमा:।
एवं मन्त्रोऽपि विज्ञेय उत्तमाधममध्यम:।।
वा.रा./ ६/६/११

जिस प्रकार ये पुरुष उत्तम, मध्यम और अधम कोटि के होते हैं उसी प्रकार मन्त्र भी (मन्त्रणा के लिए प्रस्तुत सुनिश्चित विचार) तीन प्रकार के उत्तम, मध्यम और अधम कोटि के समझे जाने चाहिए।

ऐकमत्यमुपागम्य शास्त्रदृष्टेन चक्षुषा।
मन्त्रिणो यत्र निरतास्तमाहुर्मन्त्रमुत्तमम्।।
वा.रा./ ६/६/१२

जिसमें सभी मन्त्री शास्त्रदृष्टि से भलीभाँति देखकर विचारों में एकमत होकर प्रवृत्त होते हैं वह मन्त्र उत्तम मन्त्र कहा जाता है।

ऐसे राजपुरुष अपने देश और समाज को अल्पसमय में ही शिरोमणि देश बना देते हैं। कुछ समय पूर्व ब्रिटेन की संसद ऐसे ही मन्त्रियों से भरी-पूरी रहती थी। तब वह देश विश्व का शीर्षस्थ देश था। वर्तमान समय में इजरायल की संसद में ऐसे ही मन्त्री अपने शीर्ष नेतृत्व को इस प्रकार की मन्त्रणा देते हैं।

बह्वीरपि मतीर्गत्वा मन्त्रणामर्थनिर्णय:।
पुनर्यत्रैकतां प्राप्त: स मन्त्रो मध्यम: स्मृत:।।
वा.रा./ ६/६/१३

जिसमें बहुत प्रकार के मतभेद होने पर भी सभी विचारों में कर्त्तव्य निर्णय करने में पुनः एकता बन जाती है वह मध्यम मन्त्र कहा जाता है।

ऐसी राज्यव्यवस्था अत्यन्त दुर्लभ है जहाँ पर विचार विमर्श करते समय मतभेद होने पर भी अन्त में सभी मन्त्री एकमत हो जाएँ। सभी मन्त्रदाता अनर्थ तक असहमत बने रहते हैं और राजहित की निर्लज्ज अवहेलना करते हुए राजसभा से बहिर्गमन तक कर जाते हैं।

अन्योन्यमतिमास्थाय यत्र सम्प्रतिभाष्यते।
न चैकमत्ये श्रेयोऽस्ति मन्त्र: सोऽधम उच्यते।।
वा.रा./ ६/६/१४

जहाँ मन्त्रीगण भिन्न भिन्न बुद्धियों का आश्रय लेकर केवल स्पर्धा के लिए भाषण करते रहते हैं। उनमें एकमत होने पर भी किसी प्रकार के कल्याण होने की सम्भावना न हो वह मन्त्र अधम कहा जाता है।

हमारे देश की प्रजातान्त्रिक संसद में इसी प्रकार की भाषण प्रतिस्पर्धा होती है। देशहित गौण हो जाता है और व्यक्तिगत अथवा दलित लाभ अलाभ, प्रतिष्ठा अप्रतिष्ठा महत्वपूर्ण होने लगती है। इसलिए हमारी संसद महीनों तक वाद-विवाद करते रहने पर भी एकमत नहीं हो पाती है। इस स्थिति में सरकार बहुमत के आधार पर निर्णय लेकर कार्य करने में प्रवृत्त होती है।

आशीष कुमार पांडेय (राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय तिरुपति)

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