कठोपनिषद अध्याय १, बल्ली २, मंत्र १ और २ :
अन्यच्छ्रेयोऽन्यदुतैव प्रेयस्ते उभे नानार्थे पुरुषंसिनीतः ।
तयोः श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, बल्ली २, मंत्र १)
— एक वह कर्म है जिसमें उसका हित निहित रहता है और दूसरा वह है जो उसे प्रिय लगता है । ये दोनों ही उसे विभिन्न प्रयोजनों से बांधे रहते हैं । इन दो में से प्रथम कल्याणकारी कर्म को चुनने वाले का भला होता है, किंतु लुभाने वाले दूसरे कर्म में संलग्न पुरुष सार्थक पुरुषार्थ से च्युत हो जाता है ।
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः ।
श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद्वृणीते ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, बल्ली २, मंत्र २)
— मंगलकारी तथा प्रिय लगने वाले कर्म मनुष्य के पास क्रमशः आते रहते हैं, अर्थात् चुने और संपन्न किये जाने हेतु वे उपस्थित होते रहते हैं । गहन विचारणा के पश्चात् विवेकशील व्यक्ति दोनों के मध्य भेद करता है और प्रिय की तुलना में हितकर का चुनाव करता है । अविवेकी पुरुष (ऐहिक) योगक्षेम के कारण मन को अच्छा लगने वाले कर्म को चुनता है ।
व्याख्या :
हर मनुष्य के जीवन का एक उद्देश्य है, मनुष्य श्रेणी में आनेवाले जीवों के उद्देश्य को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं :
पहले वे मनुष्य जिनके जीवन का उद्देश्य केवल भोग और संसार के सुख भोगने तक ही सीमित हैं या इस लोक से जाने के बाद परलोक में भी उनको तरह तरह के भोग मिले यही उद्देश्य है ।।
दूसरे वे जिनका उद्देश्य इन सबको पार करते हुए जीवन के परम उद्देश्य अर्थात आत्मकल्याण को प्राप्त करना होता है ।।
ध्यान देने की बात है कि एक श्रेणी और है जिनके जीवन का उद्देश्य ही समाज, मानवता का विनाश करना है वे मनुष्य के श्रेणी में नहीं, बल्कि असुरों की श्रेणी में है ।।
मनुष्य के जीवन के उद्देश्य के आधार पर ही उसके जीवन की गति और कर्मों का चयन निर्धारित होता है । जिनके जीवन का उद्देश्य आत्मा के कल्याण का होगा उनके द्वारा सदा ही कल्याणकारी सात्विक कर्मों, सात्विक आहार, विचार और आचरण का चयन किया जाएगा, जिससे आत्मा का उत्थान होता हो ऐसे कर्मों के चयन करनेवालों के द्वारा समाज का हित, देश का और विश्व हित स्वतः होता है ।।
जिनके जीवन का उद्देश्य शरीर तक ही सीमित है, भोग प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य है ऐसे लोग इंद्रियों को प्रिय लगनेवाले, मन को भानेवाले कर्मों, आहार, विचारों आदि का चयन करते हैं ।
प्रेय और श्रेय के चयन का एक सुंदर उदाहरण आप आहार से समझ सकते हैं, जो लोग आहार का चयन सिर्फ जीभ के स्वाद को पूरा करने के लिए करते हैं, शुद्धता अशुध्दता आदि का कुछ ख्याल नहीं, स्वास्थ्य पर असर से कुछ लेना देना नहीं, आहार तामसी, राजसी कष्टकारी तो नहीं यह सब विचार नहीं करते हैं वे सब आहार का चयन प्रेय के आधार पर कर रहे हैं ।।
जो लोग आहार का चयन सात्विकता, स्वास्थ्य, शुद्धि आदि का ख्याल रखते हुए करते हैं वे आहार का चयन श्रेय के आधार पर कर रहे हैं ।।
सत्य असत्य निर्णय करने के समय भी इसी तरह जिसके जीवन का उद्देश्य शरीर तक ही सीमित है उसके द्वारा निर्णय भी मन को पसंद आया उसी प्रकार होता है, विवेक के सहारे के बल पर नहीं, मन को प्रिय लगनेवाले कर्मों के लगातार अभ्यास के कारण उनका विवेक भी समय के साथ मर सा जाता है ।।
शरीर तक ही जिनके उद्देश्य सीमित हैं उनके द्वारा किये गए कर्मों से लाभ भी दीर्घकालिक न होकर क्षणिक और कुछ समय वाले ही होते हैं, इसके विपरीत आत्मकल्याण के इक्छुक साधक के द्वारा चयनीत कर्मों के लाभ दीर्घकालिक और हितकारक होते हैं ।।
इंद्रियों की तृप्ति और शरीर तक ही जिनके सारे लाभ सीमित हैं जिनके जीवन का उद्देश्य ऐसा है, ऐसे जीवों के द्वारा न चाहते हुए भी प्रायः जीवन में बलात प्रिय लगनेवाले कर्म और जिनमें आत्मउत्थान होने की कोई संभावना नहीं इस तरह के कर्म और उन्हीं तरह के लोभ की भावना से ग्रसित होकर कर्मों का चयन किया जाता है ।।
इसके विपरीत जो आत्मकल्याण के इक्छुक जीव हैं वे लोग अपने कर्मों का चयन सदा ही आत्मा के कल्याण के प्रति लाभ और हानि को अच्छी तरह विचारकर करते हैं ।।
अतः जिन्हें भी श्रेय ( जिससे आत्मा का कल्याण हो, आत्मोन्नति ) ऐसे कर्मों का चयन करना हो उन्हें अपना उद्देश्य आत्मकल्याण का बनाकर अहंकार, ममता आदि दुर्गुणों का त्यागकर, सात्विक भावनाओं से प्रेरित हो कर्मों का चयन करना चाहिये ।।
।। जय श्री हरि ।। —अभिषेक तिवारी