भगवद्गीता इतना सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है के संसार भर के जिज्ञासु इसे पढ़ना चाहते हैं। इसकी भाषा जितनी सरल और बोधगम्य है उतनी ही गूढ़ इसकी विषयवस्तु है। उस विषयवस्तु का संक्षिप्त परिचय सहज ही लोगों को आकर्षित कर लेता है।
गीता के पाठकों अथवा अध्येताओं के समक्ष चुनौती भरी समस्या यही होती है कि इसे कैसे और कहां से पढ़ें। किससे मार्गदर्शन लें। जिससे पूछो वही बहुत सी पुस्तकों की जानकारी दे देता है। सैकड़ों भाष्य और टीकाएं गीता की हैं। सब अपना अपना मत गीता से सिद्ध करते हैं।
चूंकि यह संस्कृत में उपलब्ध है इस कारण जो संस्कृत कुछ भी नहीं जानते उनके लिए तो समस्या और भी बढ़ जाती है।
इस ऊहापोह में हम कुछ सुझाव देना चाहते हैं। सम्भवतः वे उपयोगी हो सकते हैं।
गीता के अध्ययन के लिए थोड़ी संस्कृत तो सीखना ही चाहिए। हमारा विचार है कि हाई स्कूल तक की संस्कृत शिक्षा से सामान्यतः काम चल जाएगा। अतः दसवीं कक्षा की व्याकरण की पुस्तक साथ में रखना चाहिए। इतने ज्ञान से अध्येता सन्धि, समास, उपसर्ग, प्रत्यय, संज्ञा सर्वनाम के रूप, आवश्यक धातु रूप इत्यादि तो समझ ही लेंगे।
गीता को मूल पुस्तक से ही पढ़ना चाहिए। शब्दों के अर्थों के लिए श्री जयदयाल गोयन्दका जी की पुस्तक “पदच्छेद अन्वय भाषाटीका सहित” बहुत उपयोगी हो सकती है। इसमें उन्होंने सभी श्लोकों के सभी शब्दों को समझाने की कृपा कर दी है।
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अब सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह भी समझ लेना चाहिए कि मात्र व्याकरण ही श्लोक का अर्थ अथवा आशय नहीं बता सकता है। व्याकरण तो शब्द का अर्थ बताता है। इसलिए उसे शब्दानुशासन भी कहा जाता है। परन्तु शब्द के अर्थ का भी अर्थ होता है यह व्याकरण नहीं बता पाता। यह अध्येता की मेधा, जिज्ञासा और उपजने वाले प्रश्नों के उत्तर बता पाते हैं। ये उत्तर या तो वरिष्ठ अध्येता, योग्य विद्वान या फिर योग्य सन्यासी ही बता पाते हैं। दिवंगत विद्वानों का मार्गदर्शन उनके कृतित्व से मिलता है। उनकी टीकाओं को पढ़ते समय अध्येता को अपना आपा बनाए रखना चाहिए। अर्थात सावधान रहना चाहिए। ऐसा न हो कि वह टीकाकारों के विद्वतप्रवाह में बहने लगे और तत्पश्चात किसी निर्जन तट पर असहाय से किनारे लगकर शोकविह्वल होने लगे। ऐसे अध्येता प्रायः दिग्भ्रान्त होकर अपना अध्ययन ही छोड़ देते हैं। कुछ उन टीकाकारों के प्रवक्ता बनकर सम्प्रदायों में फंस जाते हैं। और अन्य पाठकों से वाद विवाद कर उस टीकाकार का पक्ष प्रतिपादित करते रहते हैं। यह प्रवृत्ति गीता के आशय को समझने में व्यवधान सिद्ध होती है।
इस महाभयानक स्थिति के प्रति तो भगवान भी सचेत करते हैं।
श्रुति विप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।। २/५३
बहुत प्रकार के सिद्धान्तों को सुनकर विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि जब समाधि में स्थिर हो जाएगी तब तुम योग को पा लोगे।
योगयुक्त होने के लिए बुद्धि भटकने वाली नहीं स्थिरा बुद्धि चाहिए। योगयुक्त होना अर्थात जुड़ने वाला होना। किससे जुड़ना? जिससे जुड़ना चाहते हो। कुछ परमात्मा से जुड़ना चाहते हैं। कुछ संसार से। जिससे भी जुड़ना चाहें, बुद्धि तो स्थिर ही चाहिए।
संसार से जुड़ना अविद्या कहलाता है और परमात्मा से जुड़ना विद्या। अविद्या को निन्दनीय नहीं कहा जा सकता। कुछ लोग इसे माया, मिथ्या, असत आदि शब्दों से विभूषित करते हैं। यह सब अनुचित है। देखिये-
ईशावास्योपनिषद में कहा है-
विद्यां चाविद्यां यस्तद्वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।। ई.११
जो विद्या और अविद्या दोनों को साथ साथ जानता है। वह अविद्या से तो सफलता पूर्वक मर्त्यलोक को पार कर जाता है। (अर्थात इस संसार की पूर्ण और उपयोगी जानकारी अविद्या से ही हो पाती है)। और विद्या से अमृत का भोग करता है अर्थात परमात्मा की प्राप्ति रूप सुख को पा जाता है।
यह मन्त्र बताता है कि अविद्या की उपासना उन लोगों के लिए अत्यावश्यक है जो संसार को उन्नत और जनहितकारी बनाने में रुचि रखते हैं। ऐसे लोगों को ही आजकल वैज्ञानिक कहा जाता है।
हम कह रहे थे बुद्धि को स्थिर तो होना ही चाहिए। इसलिए दूसरे शब्दों में कहा जाए तो भाष्यों और टीकाओं को सावधानी से पढ़ना चाहिए।
यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि गीता को दूसरों ने क्या और कैसा भी समझा हो, परन्तु हमने क्या समझा है। प्रत्येक अध्येता अपनी मेधा, योग्यता और अभिरुचि के अनुसार समझ पाता है। उसकी समझ उसे ही उपयोगी है। आपको क्या उपयुक्त होगा यह अलग बात है। आपका मार्ग आपको और अन्यों का मार्ग अन्यों को उपयुक्त होगा। किसी के मार्ग पर न कोई चल सकता है और न ही चलना चाहिए। महावीर का मार्ग महावीर को और बुद्ध का मार्ग बुद्ध को उपयुक्त है। हम अलग व्यक्तित्व रखते हैं। हमारी परिस्थिति अलग है इसलिए हमारी समझ और उपयोगिता भी अलग होगी। इस कारण किसी के भी अनुगामी होकर चल पड़ना उतना लाभदायी नहीं होता।
अब हम संक्षेप में गीता के या किसी भी श्लोक का अर्थ करने हेतु उपयोगी सुझाव भी देना चाहते हैं। इसके लिए श्लोक का अन्वय करके प्रत्येक शब्द को सन्धि और समास से विच्छेदित कर अलग अलग लिख लें। गीता के लिए हमने ऊपर एक पुस्तक सुझायी ही है।
अब इन शब्दों में धातु (क्रिया) को चिन्हित कर लें। एक ही श्लोक में अधिक धातुएं भी हो सकतीं हैं। और दो तीन श्लोकों के लिए एक धातु भी हो सकती है। उस धातु से क्या, क्यों, कैसे, कहां, किसने, किससे, किसको किसमें इत्यादि प्रश्न करें। इन प्रश्नों के उत्तर उस श्लोक में आये शब्दों से ही प्राप्त करें। अन्य शब्दों को कल्पना से आयात न करें। हां प्रमाण हेतु अन्य शास्त्रों ग्रन्थों से शब्द या उद्धरण लिये जा सकते हैं।
सामान्यतः यह परिपाटी है कि गीता के तात्पर्य निर्धारण हेतु गीता से उच्च ग्रन्थों के ही प्रमाण मान्य किये जाते हैं। अन्य काव्यों, सन्तोक्तियों का प्रमाण अशास्त्रीय समझा जाता है।
इसलिए विद्वज्जन गीता के सिद्धान्तों की पुष्टि हेतु उपनिषदों, दर्शनशास्त्रों या वेदों के प्रमाण ही उपस्थित करते हैं। मानस, रामायण आदि के सूत्र गीता के सिद्धान्तों को समझाने के लिए व्यवहार में लाये जाते हैं, प्रमाण हेतु नहीं।
उदाहरण के लिए गीता का पहला श्लोक ही लें-
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।१/१
इसका अन्वय करें।
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे मामकाः पाण्डवाः च एव युयुत्सवः समवेताः किं अकुर्वत संजय।
अब यहाँ धातु पकड़ें। इसमें अकुर्वत धातु है। यह परोक्षभूतकाल का प्रत्यय धारण कर रही है। इसका अर्थ है कि कर चुके हैं। “संजय” शब्द सम्बोधन कारक में है। अतः संजय को सम्बोधित करके बात कही जा रही है। कौन कह रहा है? वैसे तो श्लोक के पहले ही लिखा है धृतराष्ट्र उवाच। न लिखा होता तो हम समझते कि जो यह कह रहा है कि मेरेवाले और पाण्डु वाले क्या कर चुके हैं संजय। ऐसा कौन बोल सकता है। तर्क करने पर धृतराष्ट्र ही समझ में आते। अब अकुर्वत धातु से पूछें कि कौन तो उत्तर मिलेगा मामकाः और पाण्डवाः। कहां पर का उत्तर है धर्मक्षेत्रे, कुरुक्षेत्रे। मामकाः और पाण्डवाः की क्या विशेषता है? तो श्लोक बताता है कि वे युयुत्सवः अर्थात युद्धप्रिय हैं। युयुत्सु का बहुवचन युयुत्सवः है। समवेताः हैं। अर्थात एकसाथ आ गये हैं। एकत्रित हो गये हैं।
“च” पद मामकाः और पाण्डवाः को “और” से जोड़ने के लिए है। “एव” पद ही के निश्चयात्मक भाव के लिए है।
“ही” का प्रयोग यह बताता है कि धृतराष्ट्र केवल अपने और पाण्डुपुत्रों के सम्बन्ध में पूछ रहा है। अन्य योद्धाओं के सम्बन्ध में उसे विशेष जिज्ञासा नहीं है।
यह तो व्याकरण से अर्थ मिल गया। अब देखिये। महाराज धृतराष्ट्र कौरव और पाण्डवों दोनों को युयुत्सवः बोल रहे हैं जबकि पाण्डव तो युयुत्सु नहीं हैं। वे तो अपना आधा राज्य ही मांग रहे थे। न दिये जाने पर पांच गांव लेने हेतु भी तत्पर हुए थे। वे युयुत्सु क्यों कहे गये। यह तथ्य धृतराष्ट्र को पक्षपाती सिद्ध करता है। इसी प्रकार कौरवों को मामका: और पाण्डुपुत्रों को पाण्डवा: कहना अपने पुत्रों के प्रति उनका विशेष अनुराग प्रकट करता है।
यह बात व्याकरण से नहीं निकलेगी। इसे तो तर्क और मेधा से निकाला जाएगा। यह हमने संक्षेप में श्लोक के अर्थ करने हेतु सुझाव दिया है। इसी ढंग से यदि प्रयत्नपूर्वक गीता को पढ़ा जाएगा तो निस्सन्देह उसका अर्थ हृदय में प्रकट होने लगेगा। परन्तु इस सबमें भी निर्मल बुद्धि अत्यावश्यक है जो केवल परमात्मा की कृपा से ही मिलती है। योगाभ्यास, प्राणायाम, ध्यान इत्यादि उपक्रम भी सहायक होते हैं।
आशीष कुमार पांडेय,
केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय तिरुपति