मैं अपने माता-पिता,शरीर धारी गुरु और चारों पीठों पर विराजमान आदि गुरु शंकराचार्य जी को प्रणाम  करके गुरु की महिमा का वर्णन करता हूं!

प्रथम गुरु मनाऊं मैं और मैं मनाऊं गणेश !
तीसरे मां शारदा कंठ करो प्रवेश !!
सदा भवानी दाहिने सन्मुख रहे गणेश !
पंच देव रक्षा करें ब्रम्हा विष्णु महेश !!


आइए गुरु की महिमा का श्री गणेश करते हैं……
गुरुर्ब्रह्मा  गुरुर्विष्णुः  गुरुर्देवो  महेश्वरः !
गुरु र्साक्षात् परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः !!

अर्थात् गुरु ही ब्रह्मा है,गुरु ही विष्णु है,गुरु ही महेश्वर(शिव जी) और गुरु ही साक्षात परम ब्रह्म है इसलिए ऐसे परम पूजनीय गुरु जी को मेरा प्रणाम है!

गुरु को इतना ऊंचा स्थान क्यों दिया गया है इसका वर्णन करने में बड़े-बड़े देवता भी असमर्थ हैं परंतु अपने गुरु के आशीर्वाद से आइए जानने का प्रयास करते हैं….

देखिये कबीर दास जी ने कितने सुंदर शब्दों में गुरु की महिमा बतायी है…..
गुरु गोविंद दोऊ खडे काके लागू पाय !
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताए !!

अर्थात् गुरु और ईश्वर दोनों सामने खड़े हो तो शिष्य भी असमंजस में पड़ जाएगा कि दोनों ही पूजनीय है !
पहले वंदना किसकी हो ?

तब ईश्वर ने ही कहा है कि हे पुत्र !
सर्वप्रथम तुम गुरु वंदना करो क्योंकि मुझ तक पहुंचने का एकमात्र मार्ग,गुरु के द्वारा ही प्रशस्त हो सकता है!
अतः गुरु और ईश्वर में से सर्वप्रथम वंदना गुरु की ही करनी चाहिए उसके पश्चात ईश्वर की वंदना करनी चाहिए!
कबीरा हरि के रूठते गुरु के सरने में जाएं !
कह कबीर गुरु रूठते हरि नहीं होत सहाय !!

यदि आपसे भगवान के प्रति कोई त्रुटि हो जाए तो भगवान को मनाने का मार्ग गुरु बता सकते हैं परंतु यदि गुरु रूठ जाए तो आपको भगवान भी अपनी शरण में नहीं लेंगे!
कर्ता करे न कर सके, गुरु किए सब होय !
सात द्वीप नौ खंड में ,गुरु से बड़ा न कोय !!


देखिए तुलसीदास जी ने भी रामचरित मानस में गुरु के संबंध में कितनी सुंदर बात कही है कि …….
गुरु बिन भव निधि तरई न कोई !
जो बिरंचि संकर सम होई !!

अर्थात् गुरु के बिना कोई भी इस भवसागर को पार नहीं कर सकता चाहे वह ब्रह्मा जी और शंकर जी के समान ही क्यों न हो !

महाभारत के शांति पर्व में भीष्म पितामह ने भी युधिष्ठिर को माता-पिता और गुरु की महिमा कितने सुंदर शब्दों में बतायी है….
हे युधिष्ठिर– मैं तो माता-पिता तथा गुरुजनों की पूजा को ही सबसे श्रेष्ठ धर्म समझता हूं !
तुम पिता की सेवा से इस लोक को,माता की सेवा से परलोक को और गुरु की सेवा से ब्रह्मलोक को पार कर जाओगे !
जो लोग विद्या पढ़कर गुरु का आदर नहीं करते और निकट रहते हुए भी मन वाणी अथवा क्रिया से गुरु की सेवा नहीं करते, उन्हें गर्भस्थ बालक की हत्या का पाप लगता है !
भीष्म पितामह ने गुरु को माता-पिता से अधिक सम्मान इसलिए दिया है क्योंकि माता पिता केवल इस शरीर को जन्म देते हैं किंतु आत्म तत्व का उपदेश देने वाले गुरु के द्वारा जो जन्म प्राप्त होता है वह दिव्य है’अजर अमर है!
मनुष्य जिस धर्म से पिता को प्रसन्न करता है उसके द्वारा प्रजापति ब्रह्मा जी भी प्रसन्न होते हैं तथा जिस बर्ताव से वह माता को प्रसन्न कर लेता है उसके द्वारा संपूर्ण पृथ्वी की पूजा हो जाती है परंतु जिस व्यवहार से शिष्य अपने गुरु को प्रसन्न कर लेता है उसके द्वारा परब्रह्म परमात्मा की पूजा संपन्न होती है इसलिए गुरु माता पिता से भी बढ़कर पूज्य है!
गुरुओं की पूजा से देवता,ऋषि और पितरो को भी प्रसन्नता होती है इसलिए गुरु परम पूजनीय है!
(महाभारत/शांति पर्व)

आगे बढ़ते हैं….
कुछ सज्जनों को मैंने कहते सुना है कि भगवान को गुरु की आवश्यकता नहीं होती परंतु यह सत्य नहीं है!
यदि यह सत्य होता तो सन्तजन कभी ना कहते….
राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूँ तो गुरु कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी गुरु आज्ञा आधीन॥

अर्थात् श्री राम और श्री कृष्ण संपूर्ण जगत के गुरु हैं और तीनों लोकों के स्वामी भी !परंतु वह भी अपने गुरु-आज्ञा के अधीन है!
भगवान श्रीराम ने विश्वामित्र जी एवं वशिष्ठ जी और
भगवान कृष्ण ने सांदीपनी जी को अपना गुरू बनाया!


गुरु के लक्षण
1. जो गुरू अपने शिष्य को भ्रम से दूर रखें और प्रत्येक स्थिति में उसका मार्गदर्शन करें,वही सच्चा गुरु है!
2. जो गुरु,दीक्षा देते समय अथवा बाद में भी प्रत्येक परिस्थिति में शिष्य के कल्याण की कामना करता हो,वही सच्चा गुरु है!
3. जो गुरु, अपने शिष्य से किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं रखता और शिष्य के द्वारा समाज का कल्याण चाहता है, वही सच्चा गुरु है!
4. जो गुरु अपने शिष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है, वही सच्चा गुरु है!
5. धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः ।
5. तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते ॥
अर्थात् धर्म को जानने वाले, धर्म मुताबिक आचरण करने वाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों के अनुसार आदेश करने वाले गुरु कहे जाते हैं।
अतः ऐसे गुरु से ही शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करना शास्त्र सम्मत है!

शिष्य के लक्षण
1. शिष्य को अपने गुरू पर कभी भी संशय नहीं करना चाहिए!
2. गुरु द्रोणाचार्य जी के गुरु-दक्षिणा मांगने पर एकलव्य ने अपना अंगूठा काटकर गुरु के श्री चरणों में अर्पित कर दिया था अर्थात् एक सच्चे शिष्य को चाहिए कि गुरु के प्रति उसके अंदर आत्म समर्पण का भाव हो!
3. एक शिष्य को कोई भी कार्य आरंभ करने से पहले अपने गुरु के श्री चरणों का ध्यान करना चाहिए!
4. गुरु के प्रति सच्ची श्रद्धा ही शिष्य द्वारा दी गई सबसे अनमोल दक्षिणा होनी चाहिए!
5. गुरु के भी गुरु और गुरु के श्रेष्ठ संबंधी जनों एवं गुरू पुत्र के साथ गुरु के समान ही व्यवहार करना चाहिए!( भविष्य पुराण/ब्राह्मपर्व/अध्याय 4)

विशेष:
जिसने अपना गुरु ना बनाया हो वह भगवान शिव अथवा भगवान कृष्ण को अपना गुरु बनाकर अपने इष्ट देव की साधना कर सकता है!

error: Content is protected !!