मानव समाज का पतन और उत्थान लोगों की मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है,और यही स्थिति मानव जीवन के भविष्य की सीढ़ी बनती है,जिसके सकारात्मक स्थिति से कोई शंकराचार्य बनता है,तो कोई गौतम बुद्ध तो कोई स्वामी विवेकानंद जैसे महान सनातनी बनता है,फिर भी मानव समाज के मानसिकता में पीढ़ी दर पीढ़ी नाव निर्माण होते रहता है,किन्तु नवनिर्माण के क्रम में आदि काल से ही हम पिछले विचारधारा में से 2-4 बातें आवश्यकता नही होने के कारण छोड़ देते है।किन्तु हम उन छोड़े हुवे बातों पर ‘भूतं न विचारयेत् भविष्यम् नैव चिन्तयेत्’ भूत भविष्य का चिंतन नहीं करते है।
इस कारण समाज की शास्त्रोक्त संस्कृतियां शनैः शनैः हमसे पीछे छूटती जाती है, फलस्वरूप हमारी मानसिकता वेद के कुछ नित्य सभ्य विचारों से मुक्त हो जाती है,और उस स्थान पर असभ्यता पनपने लगती है,जैसे-पानी गिरते हुवे फर्श की सफाई न करें तो हरे रंग की काई जम जाती है,उसी प्रकार यदि मानव जीवन मे वैदिक सभ्यता का मंथन न किया जाए तो सामाजिक वातावरण पर वासनात्मक काई जम जाती है। इसलिए मानव को सदाचार का व्यवहार वैदिक साहित्य से ही सीखना चाहिए, क्योंकि सनातन धर्म का व्यक्तित्व सदैव प्रयत्नशील तथा कर्मनिष्ठ होता है।वेद मनुष्य के कुसंस्कारों को दूर कर उसे देवतुल्य आदर्श विद्वान, मनुष्य, महापुरुष, सदाचारी, देशभक्त, परोपकारी, वीर, साहसी, ईश्वरभक्त, योगी, वेदप्रचारक, चरित्रवान, समाज-सुधारक तथा विश्व-वन्द्य बनाता है।कुछ दिन पूर्व ही एक आध्यात्मध्येता श्री शिवदास जी से बड़े हीं सकारात्मक भाव मे हमारी ज्ञान चर्चा हो रही थी जिसमें उन्होंने Self Respect पर एक महत्वपूर्ण बात कही थी जिसकी चर्चा मैं ज्ञान संजीवनी डिजिटल पत्रिका में कर रहा हूँ,उन्होने कहा कि आज का समाज विपरीत मानसिकता के कारण केवल धन अर्जित करने में हीं लगा हुआ है,अपने इस अलौकिक देह के बारे में बिल्कुल नहीं सोचता -अर्थात खुद से कभी प्रेम नादि करता। उन्होंने कहा कि वैदिक संस्कृति का आध्यात्मवाद यह नहीं कहता कि हमें शरीर को भूल जाना है। या हमें मनुष्य की आर्थिक समस्या को हल नहीं करना है। सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखने वाले ऋषि महर्षि शरीर को घृणा की दृष्टि से कैसे देख सकते थे? वैदिक संस्कृति भौतिकवाद का तिरस्कार कभी नहीं करती,किन्तु रुग्ण एवं संकीर्ण मानसिकता को व्यापक करने का मार्ग भी नही छोड़ती।
वेद में ऋषियों ने मानव समूह को व्यवस्थित करने के लिये तीन प्रकार के प्रयास किये हैं, प्रथम गुण और कर्म आधार पर, द्वितीय राजनीति के आधार पर तथा तृतीय आयु के आधार पर। इनका क्रमशः निम्न नामकरण किया गया है, वर्णव्यवस्था, शासन व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था ये तीनों व्यवस्था एक दूसरे की विरोधी न होकर पूरक हैं।