भगवान् के इस पुंसवन-व्रत का जो मनुष्य विधिपूर्वक अनुष्ठान करता है, उसे यहीं उसकी मनचाही वस्तु मिल जाती है। स्त्री इस व्रत का पालन करके सौभाग्य, सम्पत्ति, सन्तान, यश और गृह प्राप्त करती है तथा उसका पति चिरायु हो जाता है।
: पं.शिवप्रसाद त्रिपाठी “आचार्य”
पुंसवन-व्रत समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला है,स्त्री को चाहिये कि वह अपने पतिदेव की आज्ञा लेकर मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा से इस व्रत का आरम्भ करे।
पहले मरुद्गण के जन्म की कथा सुनकर ब्राह्मणों से आज्ञा ले।
फिर प्रतिदिन सबेरे दाँतुन आदि से दाँत साफ करके स्नान करे, दो श्वेत वस्त्र धारण करे और आभूषण भी पहन ले।
प्रातःकाल कुछ भी खाने से पहले ही भगवान् लक्ष्मी-नारायण की पूजा करके इस प्रकार प्रार्थना करे-
अलं ते निरपेक्षाय पूर्णकाम नमो$स्तु ते।
महाविभूतिपयये नमस्कार सकलसिद्धये।।
‘प्रभो! आप पूर्णकाम हैं। अतएव आपको किसी से भी कुछ लेना-देना नहीं है। आप समस्त विभूतियों के स्वामी और सकल-सिद्धि स्वरूप हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करती हूँ।
यथा त्वं कृपया भूत्या तेजसा महिनौजसा।
जुष्ट ईश गुणैः सर्वैस्ततो$सि भगवान् प्रभुः।।
मेरे आराध्यदेव! आप कृपा, विभूति, तेज, महिमा और वीर्य आदि समस्त गुणों से नित्ययुक्त हैं। इन्हीं भगों-ऐश्वर्यों से नित्ययुक्त रहने के कारण आपको भगवान् कहते हैं,आप सर्वशक्तिमान् हैं।
विष्णुपत्नि महामाये महापुरुषलक्षणे।
प्रीयेथा मे महाभागे लोकमातर्नमो$स्तु ते।।
माता लक्ष्मी जी! आप भगवान् की अर्द्धांगिनी और महामाया-स्वरूपिणी हैं। भगवान् के सारे गुण आप में निवास करते हैं। महाभाग्यवती जन्माता! आप मुझ पर प्रसन्न हों। मैं आपको नमस्कार करती हूँ’।
इस प्रकार स्तुति करके एकाग्रचित्त से
“ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महानुभावाय महाविभूतिपतये सह महाविभूतिभिर्बलिमुपहराणि।”
‘ओंकार स्वरूप, महानुभाव, समस्त महाविभूतियों के स्वामी भगवान् पुरुषोत्तम को और उनकी महाविभूतियों को मैं नमस्कार करती हूँ और उन्हें पूजोपहार की सामग्री समर्पण करती हूँ’।
इस मन्त्र द्वारा प्रतिदिन स्थिर चित्त से विष्णु भगवान् का आवाहन, अर्घ्य, पाद्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि निवेदन करके पूजन करे,जो नैवेद्य बच रहे उससे—
“ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महाविभूतिपतये स्वाहा।”
‘महान् ऐश्वर्यों के अधिपति भगवान् पुरुषोत्तम को नमस्कर है। मैं उन्हीं के लिये इस हविष्य का हवन कर रही हूँ।’- यह मन्त्र बोलकर अग्नि में बारह आहुतियाँ दे।
सब प्रकार की सम्पत्तियों को प्राप्त करना चाहता हो, उसे चाहिये कि प्रतिदिन भक्तिभाव से भगवान् लक्ष्मीनारायण की पूजा करे; क्योंकि वे ही दोनों समस्त अभिलाषाओं के पूर्ण करने वाले एवं श्रेष्ठ वरदानी हैं। इसके बाद भक्तिभाव से भरकर बड़ी नम्रता से भगवान् को साष्टांग दण्डवत् करे,दस बार मन्त्र का जप करे—
“ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महानुभावाय महाविभूतिपतये सह महाविभूतिभिर्बलिमुपहराणि।”
फिर इस स्तोत्र का पाठ करे—–
युवां तु विश्वस्य विभू जगतः कारणं परम्।
इयं हि प्रकृतिः सूक्ष्मा मायाशक्तिर्दुरत्यया।।
‘हे लक्ष्मीनारयण! आप दोनों सर्वव्यापक और सम्पूर्ण चराचर जगत् के अन्तिम कारण हैं- आपका और कोई कारण नहीं है,भगवन्! माता लक्ष्मी जी आपकी मायाशक्ति हैं। ये ही स्वयं अव्यक्त प्रकृति भी हैं। इनका पार पाना अत्यन्त कठिन है।
तस्या अधीश्वरः साक्षात्त्वमेव पुरुषः परः।
त्वं सर्वयज्ञ इज्येयं क्रियेयं फलभुग्भवान्।।
प्रभो! आप ही इन महामाया के अधीश्वर हैं और आप ही स्वयं परमपुरुष हैं,आप समस्त यज्ञ हैं और ये हैं यज्ञ-क्रिया,आप फल के भोक्ता हैं और ये हैं उसको उत्पन्न करने वाली क्रिया।
गुणव्यक्तिरियं देवी व्यञ्जको गुणभुग्भवान्।
त्वं हि सर्वशरीर्यात्मा श्रीः शरीरेन्द्रियाशया।।
नामरुपे भगवती प्रत्ययस्त्वमपाश्रयः।।
माता लक्ष्मी जी तीनों गुणों की अभिव्यक्ति हैं और आप उन्हें व्यक्त करने वाले और उनके भोक्ता हैं। आप समस्त प्राणियों के आत्मा हैं और लक्ष्मी जी शीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण हैं। माता लक्ष्मी जी नाम एवं रूप हैं और आप नाम-रूप दोनों के प्रकाशक तथा आधार हैं।
यथा युवां त्रिलोकस्य वरदौ परमेष्ठिनौ।
तथा म उत्तमश्लोक सन्तु सत्या महाशिषः।।
प्रभो! आपकी कीर्ति पवित्र है। आप दोनों ही त्रिलोकी के वरदानी परमेश्वर हैं। अतः मेरी बड़ी-बड़ी आशा-अभिलाषाएँ आपकी कृपा से पूर्ण हों’।
इस प्रकार भगवान् लक्ष्मी-नारायण की स्तुति करके वहाँ से नैवेद्य हटा दे और आचमन करा के पूजा करे। तदनन्तर भक्तिभाव भरित हृदय से भगवान् की स्तुति करे और यज्ञावशेष को सूँघकर फिर भगवान् की पूजा करे।
भगवान् की पूजा के बाद अपने पति को साक्षात भगवान समझकर परम प्रेम से उनकी प्रिय वस्तुएँ सेवा में उपस्थित करे। पति का भी यह कर्तव्य है कि वह आन्तरिक प्रेम से अपनी पत्नी के प्रिय पदार्थ ला-लाकर उसे दे और उसके छोड़े-बड़े सब प्रकार के काम करता रहे,पति-पत्नी में से एक भी कोई काम करता है, तो उसका फल दोनों को होता है।
इसलिये यदि पत्नी (रजोधर्म आदि के समय) यह व्रत करने के अयोग्य हो जाये तो बड़ी एकाग्रता और सावधानी से पति को ही इसका अनुष्ठान करना चाहिये, यह भगवान विष्णु का व्रत है।
इसका नियम लेकर बीच में कभी नहीं छोड़ना चाहिये। जो भी यह नियम ग्रहण करे, वह प्रतिदिन माला, चन्दन, नैवेद्य और आभूषण आदि से भक्तिपूर्वक ब्राह्मण और सुहागिनी स्त्रियों का पूजन करे तथा भगवान् विष्णु की भी पूजा करे।
इसके बाद भगवान् को उनके धाम में पधरा दे, विसर्जन कर दे।
तदनन्तर आत्मशुद्धि और समस्त अभिलाषाओं की पूर्ति के लिये पहले से ही उन्हें निवेदित किया हुआ प्रसाद ग्रहण करे।
साध्वी स्त्री इस विधि से बारह महीनों तक-पूरे साल भर इस व्रत का आचरण करके मार्गशीर्ष की अमावस्या को उद्यापन सम्बन्धी उपवास और पूजन आदि करे।
उस दिन प्रातःकाल ही स्नान करके पूर्ववत् विष्णु भगवान् का पूजन करे और उसका पति पाकयज्ञ की विधि से घृतमिश्रित खीर की अग्नि में बारह आहुति दे।
इसके बाद जब ब्राह्मण प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दें, तो बड़े आदर से सिर झुकाकर उन्हें स्वीकार करे,भक्तिभाव से माथा टेककर उनके चरणों में प्रणाम करे और उनकी आज्ञा लेकर भोजन करे। पहले आचार्य को भोजन कराये, फिर मौन होकर भाई-बन्धुओं के साथ स्वयं भोजन करे।
इसके बाद हवन से बची हुई घृतमिश्रित खीर अपनी पत्नी को दे,वह प्रसाद स्त्री को सत्पुत्र और सौभाग्य दान करने वाला होता है।
भगवान् के इस पुंसवन-व्रत का जो मनुष्य विधिपूर्वक अनुष्ठान करता है, उसे यहीं उसकी मनचाही वस्तु मिल जाती है। स्त्री इस व्रत का पालन करके सौभाग्य, सम्पत्ति, सन्तान, यश और गृह प्राप्त करती है तथा उसका पति चिरायु हो जाता है।
इस व्रत का अनुष्ठान करने वाली कन्या समस्त शुभ लक्षणों से युक्त पति प्राप्त करती है और विधवा इस व्रत से निष्पाप होकर वैकुण्ठ में जाती है।,जिसके बच्चे मर जाते हों, वह स्त्री इसके प्रभाव से चिरायु पुत्र प्राप्त करती है,धनवती किन्तु अभागिनी स्त्री को सौभाग्य प्राप्त होता है और कुरुपता को श्रेष्ठ रूप मिल जाता है,रोगी इस व्रत के प्रभाव से रोग मुक्त होकर बलिष्ठ शरीर और श्रेष्ठ इन्द्रिय शक्ति प्राप्त कर लेता है।
जो मनुष्य मांगलिक श्राद्ध कर्मों में इसका पाठ करता है, उसके पितर और देवता अनन्त तृप्ति लाभ करते हैं,वे सन्तुष्ट होकर हवन के समाप्त होने पर व्रती की समस्त इच्छाएँ पूर्ण कर देते हैं।
ये सब तो सन्तुष्ट होते ही हैं, समस्त यज्ञों के एकमात्र भोक्ता भगवान् लक्ष्मी-नारायण भी सन्तुष्ट हो जाते हैं और व्रती की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते हैं।
पं.शिवप्रसाद त्रिपाठी “आचार्य”
(श्रीमद्भागवत कथा वाचक), शिक्षक
श्री रणञ्जय इण्टर कालेज ठेंगहा